केरल में बच्चे जनना मांओं के लिए है अमेरिका से भी सुरक्षित
कार्ला ब्लाइकर
१९ जनवरी २०२४
2020 में दुनिया की करीब तीन लाख महिलाओं ने गर्भावस्था के दौरान जान गंवा दी. इनमें अमेरिका भी शामिल है, जहां मातृ मृत्यु दर बढ़ रही हैं. लेकिन भारत में ये दर (एमएमआर) नीचे आई है.
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प्रेग्नेंसी का मतलब नए जीवन से है- एक अनोखा अनुभव, एक बच्चे का दुनिया में आना, लेकिन बहुत सारे मामलों में प्रेग्नेंसी का मतलब जीवन का अंत भी है.
फरवरी 2023 के आखिरी दिनों में संयुक्त राष्ट्र ने दुनिया में मांओं की मृत्यु पर एक नई रिपोर्ट जारी की थी. रिपोर्ट में बताया गया कि कैसे, बच्चा पैदा करने से हर दो मिनट में एक औरत की मौत हो जाती है. रिपोर्ट में प्रेग्नेंसी के दौरान अनुभव की जाने वाली मुश्किलों का भी जिक्र किया गया है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन, डब्लूएचओ के महानिदेशक टेडरोस गेब्रियासुस का कहना है, "ये त्रासद स्थिति है कि दुनिया भर में लाखों लोगों के लिए, गर्भावस्था स्तब्ध कर देने वाली भयानकता का अनुभव है."
साल 2000 में, वैश्विक मातृ मृत्यु दर (एमएमआर) 339 थी. मतलब प्रति लाख नवजातों के जन्म के मुकाबले, 339 गर्भवती मांओं ने दम तोड़ा था. 2020 में ये वैश्विक एमएमआर 223 थी. लेकिन संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक इस 20 साल की अवधि में कई देश अपने यहां मातृ मृत्यु दर को उल्लेखनीय रूप से कम करने में नाकाम रहे.
ना कोरोना, ना हंटा, ये हैं दुनिया के सबसे खतरनाक वायरस
इस वक्त पूरी दुनिया कोरोना के खौफ में है. लेकिन मृत्यु दर के हिसाब से देखा जाए तो और भी कई वायरस हैं जो कोरोना से भी ज्यादा खतरनाक हैं. बच के रहिए इनसे.
मारबुर्ग वायरस
इसे दुनिया का सबसे खतरनाक वायरस कहा जाता है. वायरस का नाम जर्मनी के मारबुर्ग शहर पर पड़ा जहां 1967 में इसके सबसे ज्यादा मामले देखे गए थे. 90 फीसदी मामलों में मारबुर्ग के शिकार मरीजों की मौत हो जाती है.
तस्वीर: picture alliance/dpa/CDC
इबोला वायरस
2013 से 2016 के बीच पश्चिमी अफ्रीका में इबोला संक्रमण के फैलने से ग्यारह हजार से ज्यादा लोगों की जान गई. इबोला की कई किस्में होती हैं. सबसे घातक किस्म के संक्रमण से 90 फीसदी मामलों में मरीजों की मौत हो जाती है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
हंटा वायरस
कोरोना के बाद इन दिनों चीन में हंटा वायरस के कारण एक व्यक्ति की जान जाने की खबर ने खूब सुर्खियां बटोरी हैं. यह कोई नया वायरस नहीं है. इस वायरस के लक्षणों में फेफड़ों के रोग, बुखार और गुर्दा खराब होना शामिल हैं.
तस्वीर: REUTERS
रेबीज
कुत्तों, लोमड़ियों या चमगादड़ों के काटने से रेबीज का वायरस फैलता है. हालांकि पालतू कुत्तों को हमेशा रेबीज का टीका लगाया जाता है लेकिन भारत में यह आज भी समस्या बना हुआ है. एक बार वायरस शरीर में पहुंच जाए तो मौत पक्की है.
तस्वीर: picture-alliance/Zumapress/L. Thomas
एचआईवी
अस्सी के दशक में एचआईवी की पहचान के बाद से अब तक तीन करोड़ से ज्यादा लोग इस वायरस के कारण अपनी जान गंवा चुके हैं. एचआईवी के कारण एड्स होता है जिसका आज भी पूरा इलाज संभव नहीं है.
तस्वीर: picture-alliance/Photoshot/B. Coleman
चेचक
इंसानों ने हजारों सालों तक इस वायरस से जंग लड़ी. मई 1980 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने घोषणा की कि अब दुनिया पूरी तरह से चेचक मुक्त हो चुकी है. उससे पहले तक चेचक के शिकार हर तीन में से एक व्यक्ति की जान जाती रही.
तस्वीर: cc-by/Otis Historical Archives of National Museum of Health & Medicine
इन्फ्लुएंजा
दुनिया भर में सालाना हजारों लोग इन्फ्लुएंजा का शिकार होते हैं. इसे फ्लू भी कहते हैं. 1918 में जब इसकी महामारी फैली तो दुनिया की 40% आबादी संक्रमित हुई और पांच करोड़ लोगों की जान गई. इसे स्पेनिश फ्लू का नाम दिया गया.
तस्वीर: picture-alliance/Everett Collection
डेंगू
मच्छर के काटने से डेंगू फैलता है. अन्य वायरस के मुकाबले इसका मृत्यु दर काफी कम है. लेकिन इसमें इबोला जैसे लक्षण हो सकते हैं. 2019 में अमेरिका ने डेंगू के टीके को अनुमति दी.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/EPA/G. Amador
रोटा
यह वायरस नवजात शिशुओं और छोटे बच्चों के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक होता है. 2008 में रोटा वायरस के कारण दुनिया भर में पांच साल से कम उम्र के लगभग पांच लाख बच्चों की जान गई.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
कोरोना वायरस
इस वायरस की कई किस्में हैं. 2012 में सऊदी अरब में मर्स फैला जो कि कोरोना वायरस की ही किस्म है. यह पहले ऊंटों में फैला, फिर इंसानों में. इससे पहले 2002 में सार्स फैला था जिसका पूरा नाम सार्स-कोव यानी सार्स कोरोना वायरस था. यह वायरस 26 देशों तक पहुंचा. मौजूदा कोरोना वायरस का नाम है सार्स-कोव-2 है और यह दुनिया के हर देश तक पहुंच चुका है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/AP/NIAID-RML
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संयुक्त राष्ट्र रिपोर्ट कहती है कि 2002 और 2025 के बीच थोड़ी सी गिरावट आई थी लेकिन 2016 के बाद से वैश्विक मातृ मृत्यु दर में ठहराव आ गया. रिपोर्ट के सह लेखक और डब्लूएचओ में वैज्ञानिक जेनी क्रेसवेल का कहना है कि ये अस्वीकार्य है.
उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "अवरोध या ठहराव बिल्कुल भी काफी नहीं है. टिकाऊ विकास लक्ष्य (एसडीजी) वैश्विक मातृ मृत्यु दर को प्रति एक लाख जन्म के मुकाबले 70 मौतों से भी कम रखने का है. हम लोग इस लक्ष्य से अभी काफी पीछे हैं."
अमेरिकामेंबढ़तीमातृमृत्युदर
अमेरिका जैसे विकसित देशों समेत कई मुल्कों में, मातृ मृत्यु दर सालों से बढ़ती रही है. तमाम औद्योगिक देशों में अभी तक सबसे ज्यादा एमएमआर अमेरिका में ही हैं- 23 से ज्यादा. 2000 से 2020 के बीच ये दर कमोबेश 78 फीसदी बढ़ी है.
कुल संख्या इतनी कम है कि इसे देखते हुए हल्का सा बदलाव भी संख्या के प्रतिशत में काफी ज्यादा बढ़ोतरी कर देता है. लेकिन इससे ये तथ्य नहीं बदल जाता कि प्रेग्नेंसी के दौरान, बच्चा पैदा करते वक्त या उसके फौरन बाद होने वाली मौतों की संख्या, दुनिया के सबसे अमीर मुल्कों में से एक- अमेरिका में दशकों से बढ़ती ही जा रही है.
अमेरिकामेंगड़बड़कहांहै?
अमेरिका में स्वास्थ्य कल्याण से जुड़े मुद्दों पर स्वतंत्र रिसर्च को सहायता देने वाली फाउंडेशन, कॉमनवेल्थ फंड में वरिष्ठ शोधकर्ता मुनीरा गुंजा कहती हैं कि ये समझाना आसान नहीं कि अमेरिका में एमएमआर क्यों बढ़ रही है.
गुंजा कहती हैं कि इस स्थिति के लिए बहुत से कारक जिम्मेदार हो सकते हैं, जिसमें ये भी शामिल है कि हाल के वर्षों में स्वास्थ्य से जुड़ी बहुत सारी समस्याओं का उभार देखने में आया है.
एक तथ्य ये भी है कि बहुत से अमेरीकियों के पास स्वास्थ्य बीमा नहीं होता और उनके पास डॉक्टर के पास जाने के पैसे नहीं होते. स्वास्थ्य सेवाओं की कीमत भी बढ़ चुकी है. ऐसी प्रशिक्षित दाइयों की भी कमी है जो किसी की प्रेग्नेंसी के दौरान मदद कर सकें.
समुद्र में समाते गांव का चार बच्चों वाला स्कूल
गाहे-बगाहे जमीन में दबे अवशेष, बीती सभ्यताओं के टुकड़े थमाते हैं. अतीत बनने का दंश बस इतिहास का हिस्सा नहीं है. दुनिया के कई इलाके होने से "ना होने" की एक तेज-रफ्तार यात्रा से जूझ रहे हैं. देखिए, ऐसा ही एक खत्म होता गांव
तस्वीर: Manan Vatsyayana/AFP/Getty Images
इस गांव को लीलता जा रहा है समंदर
जलवायु संकट, कोई धीमा जहर नहीं जो आहिस्ता-आहिस्ता असर कर रहा हो. लंबी गर्मियां, गर्म से गर्म होते जा रहे महीने, लंबे सूखे... गौर करिए तो ग्लोबल वॉर्मिंग का बढ़ता चरम साफ नजर आएगा. दुनिया का कोई हिस्सा इस असर से अछूता नहीं. लेकिन कुछ इलाके हैं, जहां असर और ज्यादा प्रत्यक्ष है. इनमें से ही एक है, थाइलैंड का तटीय गांव वाट खुन समुत चिन.
तस्वीर: Manan Vatsyayana/AFP/Getty Images
गांव के स्कूल में अब बस चार बच्चे
जब वैज्ञानिक कहते हैं कि ग्लेशियर और ध्रुवीय बर्फ तेजी से पिघल रहे हैं और समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है, तो कई लोगों को खतरा बहुत दूर लगता है. लेकिन जोखिम बहुत पास आता जा रहा है. इसी की एक दुखद मिसाल है, वाट खुन समुत चिन. मैंग्रोव जंगलों की कटाई ने द्वीप के रक्षा कवच को नष्ट कर दिया. अब समुद्र बढ़ा चला आ रहा है. ये चार बच्चे, गांव के स्कूल के आखिरी छात्र हैं. साथ में हैं उनकी टीचर.
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समंदर बढ़ता गया, लोग खिसकते गए
पहले गांव में मछुआरों की भरी-पूरी आबादी थी. फिर समुद्र पास आता गया और लोग, द्वीप में और पीछे खिसकते गए. लोगों को कई बार बसा-बसाया घर छोड़कर हटना पड़ा. लेकिन समंदर का हमला नहीं रुका. मजबूरन कई परिवारों को गांव छोड़कर जाना पड़ा. यह सब एकाएक नहीं हुआ. तीन दशक से भी ज्यादा समय से जलस्तर बढ़ रहा है और तट का कटाव हो रहा है. तस्वीर में: जून 2023 की इस फोटो में दो छात्र क्लास में पढ़ाई कर रहे हैं.
तस्वीर: Manan Vatsyayana/AFP/Getty Images
हम कैसी दुनिया छोड़ जाएंगे?
यहां रहने वाले लोगों के आसपास उफनते नीले समंदर के बीच उनकी जमीन, एक पतली उंगली जैसी दिखती है. विकासक्रम में जिन प्रेरकों ने जीवों को जुझारू बनाया, मुश्किलों के आगे ढलने की प्रेरणा दी, उनमें अपने पीछे अपने बच्चों को छोड़ जाने की इच्छा भी थी. हम आने वाली पीढ़ियों को क्या दे जाएंगे?
तस्वीर: Manan Vatsyayana/AFP/Getty Images
कंक्रीट की ये दीवार समंदर को कैसे रोक पाएगी
खबरों के मुताबिक, गांव का स्कूल पहले जिस जगह पर था, अब वो समंदर में जा चुकी है. एक ओर वाट खुन समुत चिन जैसी जगहें और यहां रहने वाले समुदाय हैं, जो जलवायु संकट के कारण गले तक जोखिम में डूबे हैं. वहीं कई लोगों को अब भी ग्लोबल वॉर्मिंग पर यकीन नहीं है. जीवाश्म ईंधनों का इस्तेमाल बंद करने पर भी कुछ ठोस नहीं हो सका है. तस्वीर: कटाव रोकने के लिए लगाए गए कंक्रीट के अवरोधक.
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पर्यावरण संरक्षण के सबक की बड़ी कीमत चुकाई
अनुमान है कि 1950 के दशक के मध्य से अब तक, तटरेखा डेढ़ से दो किलोमीटर तक पीछे खिसक चुकी है. गांव का ये स्कूल जाने कब तक बचा रहेगा! ग्लोबल वॉर्मिंग को प्रत्यक्ष महसूस कर रहे बच्चे, स्कूल में जलवायु संकट के बारे में सीखते हैं और पर्यावरण संरक्षण के सबक लेते हैं. पहले की पीढ़ियों ने मैंग्रोव के जंगलों को गंवाया. झींगे की फार्मिंग के लिए तेजी से मैंग्रोव काटे गए. अब ये बच्चे उनकी अहमियत जान रहे हैं.
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गुंजा का कहना है, "दूसरे विकसित देशों की तुलना में अमेरिका में चिकित्सा सुविधा का लाभ न लेने की दर नाटकीय रूप से बहुत ज्यादा है. ये सब चीजें इस अस्वीकार्य मातृ मृत्यु दर को बढ़ाने में अपना अपना योगदान देती हैं."
साथ ही, अश्वेत अमेरीकियों में एमएमआर गोरों के मुकाबले तीन गुना ज्यादा है. गुंजा का कहना है कि ये बड़ा अंतर "ढांचागत नस्लवाद" की वजह से है. "अश्वेत अमेरिकी शुरुआत से ही नुकसान में रहते हैं- उनका रहन-सहन, उनकी शिक्षा का स्तर, उनकी नौकरी और तनख्वाह. और जब वे डॉक्टर के पास जाते हैं, तो उनका सामना प्रत्यक्ष नस्लवाद से होता है."
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बहुतसेस्तरोंपरहेल्थकेयरमेंबदलाव
गुंजा कहती हैं कि अगर अमेरिका में ज्यादा सक्रिय दाइयां होती तो उससे एक बड़ा फर्क पड़ता. वे गर्भवती व्यक्ति से नजदीकी रिश्ता बना सकती हैं, घर पर उनकी देखभाल कर सकती हैं और प्रसवकाल के बाद मां की मनोदशा का ध्यान भी रख सकती है. क्योंकि उस अवधि में अमेरिका में आधा से ज्यादा मौतें होती हैं.
लेकिन क्लिनिकल और नीतिगत स्तरों पर भी बदलाव की जरूरत है. अमेरिका में स्वास्थ्य मुद्दों पर ध्यान देने वाले एनजीओ, काइजर फैमिली फाउंडेशन में महिला स्वास्थ्य नीति की सह निदेशक उषा रणजी का कहना है कि क्लिनिकल स्तर पर हेल्थकेयर प्रोफेश्नल्स को शिशु जन्म से पहले, जन्म के दौरान और जन्म के बाद पैदा होने वाले चेतावनी के निशानों को चिन्हित करने की जरूरत है.
बच्चे के लिए क्यों जरूरी है मां का दूध
मां का दूध बच्चे की सेहत के लिए बहुत जरूरी है. स्तनपान को बढ़ावा देने और इसपर जागरूकता बढ़ाने के लिए 1 से 7 अगस्त तक "विश्व स्तनपान सप्ताह" मनाया जाता है. जानिए, बच्चे के लिए क्यों जरूरी है मां का दूध.
तस्वीर: Olena Mykhaylova/Zoonar/picture alliance
संतुलित पोषण
दुनियाभर में डॉक्टर सलाह देते हैं कि मुमकिन हो तो बच्चे को मां का दूध जरूर पिलाएं. मां के दूध से बच्चे को बढ़ने के लिए जरूरी पोषक तत्व मिलते हैं. इसमें प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन और मिनरल्स की सटीक मात्रा होती है और बच्चे के लिए इसे पचाना बड़ा आसान होता है.
तस्वीर: Diana Bagnoli/Getty Images
संक्रमण से बचाता है
बच्चे के जन्म के बाद स्तन जो शुरुआती दूध बनाते हैं, उसे कोलोस्ट्रम कहा जाता है. यह बच्चे के पाचन तंत्र पर एक रक्षात्मक कवच बनाता है और बीमार करने वाले रोगाणुओं से बचाता है. साथ ही, मां का दूध बच्चे की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है. यह बच्चे को संतुलित पोषण देने के साथ-साथ संक्रमणों का खतरा भी कम करता है.
तस्वीर: Olena Mykhaylova/Zoonar/picture alliance
भविष्य में भी फायदे
मां का दूध बच्चे के लिए आदर्श भोजन है. नवजातों को जीवन के शुरुआती महीनों में जितने पोषण और ऊर्जा की जरूरत पड़ती है, वो सब मां के दूध में मौजूद है. शोध बताते हैं कि जिन बच्चों को मां का दूध मिलता है, वो इंटेलिजेंस टेस्ट में बेहतर प्रदर्शन करते हैं. उनमें मोटापे की आशंका कम होती है.
तस्वीर: Addictive Stock/Shotshop/IMAGO
शुरुआती छह महीने बस मां का दूध
विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि बच्चे के जन्म के पहले घंटे में ही उसे मां का दूध पिलाना शुरू कर देना चाहिए. बच्चे के छह महीने के होने तक उसे सिर्फ मां का दूध ही देना चाहिए. कोई और तरल या खाना नहीं, पानी भी नहीं. छह महीने बाद बच्चे को मां के दूध के साथ-साथ और भी चीजें खिलाने की शुरुआत की जानी चाहिए. बच्चे के दो साल का होने तक स्तनपान जारी रखा जा सकता है, जरूरत पड़े तो इससे ज्यादा भी.
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मां के लिए भी फायदेमंद
शोध बताते हैं कि बच्चे को अपना दूध पिलाने से मां को भी कई बीमारियों से सुरक्षा मिलती है. टाइप 2 डाइबिटीज और स्तन कैंसर का खतरा कम होता है. यह मां और बच्चे के बीच एक खास लगाव भी विकसित करता है.
तस्वीर: Olena Mykhaylova/Zoonar/picture alliance
कुदरती और सहजता से उपलब्ध
मां का दूध कुदरती और ताजा होता है. इसका तापमान बच्चे के मुफीद होता है. प्रॉसेस्ड और डिब्बाबंद उत्पादों की तरह इसे लाने-ले जाने, गरम या ठंडा करने का झंझट नहीं होता. जब भी बच्चे को जरूरत हो, यह उपलब्ध होता है.
आंकड़े बताते हैं कि चार में से एक ही नवजात को छह महीने तक पूरी तरह से मां का दूध मिलता है. सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के मुताबिक, स्तनपान की कम दर के कारण अमेरिका में ही मां और बच्चे पर सालाना तीन अरब डॉलर से ज्यादा की मेडिकल लागत आती है. डब्ल्यूएचओ की कोशिश है कि शुरुआती छह महीनों में पूरी तरह से मां के दूध पर निर्भर बच्चों की संख्या बढ़ाकर 2025 तक कम-से-कम 50 फीसदी तक लाई जा सके.
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"गर्भवती मांओं की मौतों से जुड़े कारणों में डिलीवरी के दौरान या पश्चात् रक्तस्राव, सेप्सिस (खून में जहर फैलना), इकलैम्पसी और प्रि-इकलैम्पसी (शिशु को जन्म देने के दौरान दौरे पड़ना) भी शामिल हैं. ये चीजें अनदेखी रह जाती हैं, लेकिन जानलेवा हो सकती हैं.
रणजी कहती हैं कि डॉक्टरों और नर्सों की ट्रेनिंग में सुधार हुआ है, लेबर और डिलीवरी में काम करने वाले स्टाफ की ट्रेनिंग भी सुधरी है और मरीजों के साथ बेहतर संचार और उनकी बात सुनने पर ज्यादा जोर दिया जाने लगा है.
नीतिगत स्तर पर रणजी कहती हैं कि हर किसी को स्वास्थ्य बीमा के दायरे में लाना बहुत जरूरी हैं क्योंकि अमेरिका में मां बनने की उम्र वाली 10 प्रतिशत महिलाएं अभी भी बीमा से वंचित हैं. नतीजतन उन्हें जिस किस्म की चिकित्सा देखभाल की जरूरत है वो नहीं मिल पाती.
रणजी कहती हैं, "गर्भवती होने से पहले ही उन्हें देखरेख में ले लेना जरूरी है, ताकि उनकी ओवरऑल सेहत अच्छी रहे. लेकिन स्वास्थ्य बीमा ही नहीं होगा तो देखरेख हो पाना मुश्किल हो जाता है."
भारतमेंमिलीकामयाबी
संयुक्त राष्ट्र रिपोर्ट कहती है कि दक्षिण एशिया दुनिया के उन चुनिंदा इलाकों में है जहां मातृ मृत्यु दर घट रही है. भारत की एमएमआर में सबसे बड़ा सुधार हुआ है. 2000 से 2020 के बीच भारत में मातृ मृत्यु दर 73 फीसदी से भी ज्यादा गिर गई. 2020 में भारत की एमएमआर 103 थी. अमेरिका की एमएमआर से कहीं ज्यादा. लेकिन जहां अमेरिका में 2000 से 2020 के दरमियान, एमएमआर 2.88 फीसदी की सालाना दर से बढ़ी, वहीं भारत में उसी अवधि में वो 6.64 फीसदी की सालाना दर से गिरी.
जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में सेंटर ऑफ मेडिसिन एंड कम्युनिटी हेल्थ में प्रोफेसर राजीब दासगुप्ता ने बताया कि पिछले दो दशकों में भारत को ज्यादा उदार और बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था के लाभ मिलने लगे थे. वह कहते हैं, "अत्यंत गरीबी में कुल मिलाकर गिरावट आई, महिला शिक्षा और महिला आय जैसे अहम निर्धारक तत्वों में टिकाऊ बढ़ोतरी हुई और बुनियादी ढांचे का विकास हुआ."
बच्चों को यौन दुर्व्यवहार से बचाएं
बाल दिवस यानि 14 नवंबर 2012 को भारत में लागू हुए पॉक्सो (POCSO) कानून में बच्चों से यौन अपराधों के मामले में कड़ी सजा का प्रावधान है. बच्चों को पहले से सिखाएं कुछ ऐसी बातें जिनसे वे खुद समझ पाएं कि उनके साथ कुछ गलत हुआ.
तस्वीर: Reuters/N. Bhalla
सबसे ज्यादा शिकार बच्चे
भारत में हुए कई सर्वे में पाया गया कि देश के आधे से भी अधिक बच्चे कभी ना कभी यौन दुर्व्यवहार का शिकार हुए हैं. इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि इनमें से केवल 3 फीसदी मामलों में ही शिकायत दर्ज की जाती है.
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बच्चों को समझाएं
बच्चों को समझाना चाहिए कि उनका शरीर केवल उनका है. कोई भी उन्हें या उनके किसी प्राइवेट हिस्से को बिना उनकी मर्जी के नहीं छू सकता. उन्हें बताएं कि अगर किसी पारिवारिक दोस्त या रिश्तेदार का चूमना या छूना उन्हें अजीब लगे तो वे फौरन ना बोलें.
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बच्चों से बात करें
बच्चों को नहलाते समय या कपड़े पहनाते समय अगर वे उत्सुकतावश बड़ों से शरीर के अंगों और जननांगों के बारे में सवाल करें तो उन्हें सीधे सीधे बताएं. अंगों के सही नाम बताएं और ये भी कि वे उनके प्राइवेट पार्ट हैं.
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क्या सही, क्या गलत
ना तो बच्चों को और लोगों के सामने नंगा करें और ना ही खुद उनके सामने निर्वस्त्र हों. बच्चों को नहलाते या शौच करवाते समय हल्की फुल्की बातचीत के दौरान ही ऐसी कई बातें सिखाई जा सकती हैं जो उन्हें जानना जरूरी है.
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बात करें
बच्चों के साथ बातचीत के रास्ते हमेशा खुले रखें. उन्हें भरोसा दिलाएं कि वे आपसे कुछ भी कह सकते हैं और उनकी कही बातों को आप गंभीरता से ही लेंगे. मां बाप से संकोच हो तो बच्चे अपनी उलझन किसी से नहीं कह पाएंगे.
तस्वीर: Fotolia/pegbes
चुप्पी में छिपा है राज
बच्चों का काफी समय परिवार से दूर स्कूलों में बीतता है. बच्चों से स्कूल की सारी बातें सुनें. अगर बच्चा बेवजह गुमसुम रहने लगा हो, या पढ़ाई से अचानक मन उचट गया हो, तो एक बार इस संभावना की ओर भी ध्यान दें कि कहीं उसे ऐसी कोई बात अंदर ही अंदर सता तो नहीं रही है.
तस्वीर: picture-alliance/blickwinkel
सही गलत की सीख दें
बच्चों को बताएं कि ना तो उन्हें अपने प्राइवेट पार्ट्स किसी को दिखाने चाहिए और ना ही किसी और को उनके साथ ऐसा करने का हक है. अगर कोई बड़ा उनके सामने नग्नता या किसी और तरह की अश्लीलता करता है तो बच्चे माता पिता को बताएं.
तस्वीर: Fotolia/Gerhard Seybert
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संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक ये सामाजिक कारक, मातृ स्वास्थ्य में सुधार और प्रेग्नेंसी के दौरान और उसके पश्चात् मौतों को रोकने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं.
दक्षिण एशिया के देशों ने पिछले 20 साल में अपनी एमएमआर में गिरावट देखी है. क्रेसवेल ने डीडब्ल्यू को बताया कि "ये वे देश हैं जहां आर्थिक विकास बेहतर ढंग से हुआ है, महिला शिक्षा बढ़ी है और दूसरे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भी प्रगति हुई है, और ये सब अपनी भूमिका निभाते हैं. इन देशों ने गुणवत्तापूर्ण मातृ स्वास्थ्य सेवाओं को सुगम बनाकर टिकाऊ राजनीतिक प्रतिबद्धता का प्रदर्शन किया है."
भारतमेंअसमानतासेनिपटनेकीचुनौती
लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि भारत को देश भर में समान रूप से सुधारों को फैलाने के प्रति ज्यादा राजनीतिक प्रतिबद्धता दिखानी होगी.
दासगुप्ता कहते हैं, "एसडीजी लक्ष्य (70 के नीचे का एमएमआर) तक पहुंचने के लिए भारत में राज्यों के बीच असमानता पर और अधिक ध्यान देना होगा." बहुत से भारतीय राज्यों ने इस मामले में टिकाऊ विकास लक्ष्य (एसडीजी) हासिल कर लिया है
केरल में सबसे कम एमएमआर है. उसकी 19 की दर न सिर्फ भारत में सबसे कम है बल्कि अमेरिका से भी कम है. इस परिदृश्य के दूसरे छोर पर असम राज्य है जहां मातृ मृत्यु दर 195 है. केरल की दर के 10 गुना से भी ज्यादा. लेकिन असम में भी चीजें सही दिशा में चल रही हैं. भारत में पर्यावरण और विकास नीति पर केंद्रित पत्रिका डाउन टु अर्थ ने 2022 के आखिर में अपनी एक रिपोर्ट मे बताया था कि असम की एमएमआर 2014 से 2016 के बीच 237 थी. इस लिहाज से आज उसमें एक बड़ी गिरावट तो आई ही है.
दासगुप्ता कहते हैं कि भारत सही रास्ते पर है. उसने चिकित्सा के बुनियादी ढांचे पर निवेश किया है और देश भर में चिकित्साकर्मियों की संख्या बढ़ाई है. और अब "अपनी इस सामर्थ्य को और विकसित करने का समय है."