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लव जिहाद: हदिया को मिली आजादी के मायने

शिवप्रसाद जोशी
२८ नवम्बर २०१७

केरल के बहुचर्चित लव जिहाद मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अखिला से हदिया बनी युवती की बात को तवज्जो दी. अदालत को अहम बताते हुए शिवप्रसाद जोशी लिखते हैं कि इससे कई चीजें साफ हो गयी हैं.

Indien Muslimische Hochzeit
तस्वीर: picture alliance/AP Photo/R. Kakade

सुप्रीम कोर्ट ने हदिया को पिता की अघोषित हिरासत से मुक्त कर अपनी पढ़ाई पूरी करने की इजाजत दे दी है. हदिया ने इस्लाम धर्म कुबूल कर शफी जहां नामक एक युवक से विवाह कर लिया था जिसे केरल हाई कोर्ट ने खारिज कर हदिया को उसके मांबाप के पास भेजने का फैसला सुनाया था.

"क्या भविष्य के लिए तुम्हारा कोई सपना है?” सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ जज डीवाई चंद्रचूढ़ ने हदिया से अंग्रेजी में पूछा. 25 साल की हदिया ने अपनी मातृभाषा मलयालम में दिलेरी से जवाब दिया, "मुझे आजादी चाहिए. हिरासत से मुक्ति चाहिए!” सुनते ही सुप्रीम कोर्ट ने हदिया को अपने मातापिता से अलग करने का आदेश दे दिया. हदिया और उसके पति के लिए यह एक बड़ी नैतिक जीत थी.

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कोर्ट ने कहा कि हदिया केरल के सालेम जिले के होम्योपैथी कॉलेज में 11 महीने की अपनी ट्रेनिंग और इंटर्नशिप पूरी करेगी. उसे पूरी सुरक्षा मुहैया होगी और कॉलेज के डीन उसके संरक्षक की हैसियत से उसका ख्याल रखेंगे. परिजनों को इस मामले में दखल न देने की हिदायत भी कोर्ट ने दी. इस सुनवाई पर पूरे देश की निगाहें थीं. केरल में अपने गांव से दिल्ली पहुंची हदिया मीडिया को बता चुकी थी कि वह अपनी मर्जी से मुसलमान बनी है और शफी जहां को उसने अपनी मर्जी से अपना शौहर चुना है.

मामले की अगली सुनवाई जनवरी के तीसरे सप्ताह की किसी तारीख को होगी. कोर्ट को राष्ट्रीय जांच एजेंसी एनआईए के आतंकवाद और लव-जिहाद ऐंगल और हदिया की शादी की वैधानिकता पर भी फैसला देना है जिसे उसके परिजनों और एनआईए ने चुनौती दी है. आरोप है कि हदिया को बहलाफुसला कर उससे शादी की गयी और उसे आईएस के एजेंट सीरिया ले जाना चाहते हैं. एनआईए का दावा है कि वह केरल में ऐसे 11 मामलों की जांच कर रही है. हालांकि केरल सरकार और राज्य पुलिस इस मामले में पहले ही हदिया और उसके पति को क्लीन चिट दे चुकी है और अदालत में भी अपना रुख स्पष्ट कर चुकी है.

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हदिया मामले की अदालती सुनवाइयों और नजरियों को टटोलें तो पाएंगे कि कोर्ट ने इस मामले में संविधान प्रदत मौलिक अधिकारों की पुष्टि और विभिन्न मानवाधिकारों की हिफाजत ही की है. सबसे पहले तो नागरिक के तौर पर हदिया का निजता और अपना जीवन जीने का, धार्मिक स्वतंत्रता का, अपनी इच्छा पर अमल कर सकने का और सबसे बढ़कर एक औरत के रूप में अपनी गरिमा की हिफाजत का, लैंगिक समानता का अधिकार है.

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इसी साल मई में जब केरल हाईकोर्ट की एक बेंच ने हदिया मामले में स्तब्ध करने वाला फैसला सुनाते हुए शादी को खारिज किया था और हदिया को नादान और मासूम करार देकर मातापिता के पास वापस भेज दिया था, तो लग रहा था कि अदालती फैसलों में एक नजरिया किस तरह चाहे अनचाहे मानवाधिकार और लैंगिक समानता पर अंकुश का बायस बन सकता है. उस दौरान तो मीडिया में इस तरह की दलीलें भी परिजनों के हवाले से तैर रही थीं कि हदिया पर जादू किया गया है, उसे सम्मोहित कर मुसलमान बनाया गया है, उसका ब्रेनवॉश किया गया है आदि आदि. एक युवा स्त्री की कामनाओं और सपनों को तोड़ने के लिए ऐसी अनर्गलताएं काफी थीं लेकिन दाद देनी पड़ेगी हदिया के साहस और विवेक की. वह दबाव में न टूटी न विचलित हुई. सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों को उसने अपने सचेत और सयाने जवाबों से प्रभावित किया.

प्रेम विवाह को लेकर भारतीय समाज अब भी वैचारिक पिछड़ेपन में घिरा है. अंतर्जातीय और अंतर्धामिक विवाहों पर वितंडा कायम है बल्कि अब तो लगता है और भीषण खुंखारी आ गयी है. इधर जिस तरह से कट्टरपंथी और हिंदूवादी ताकतें एक नयी उग्रता में सक्रिय हैं, उससे समाज में डर और अशांति का माहौल बना है. अदालतों को इस पर भी सख्त टिप्पणी या आदेश करना चाहिए कि हर कोई मुंह उठाये किसी भी रिश्ते को लांछित न करे. हर संबंध को हिंदू मुस्लिम तनाव से न जोड़े और हर प्रेम को लव जिहाद कहकर साम्प्रदायिकरण न करे. सुप्रीम कोर्ट ने हदिया मामले में एक शुरुआत तो की है और यह कहते हुए फटकार भी लगायी है कि हम निरंकुश समाज में नहीं रहते. कोर्ट की विवेचनाओं से इतर, आम भारतीय समाज में देखें तो दक्षिण से लेकर उत्तर तक, हालात चिंताजनक ही हैं.

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अभी राजस्थान के जोधपुर में अंतर्धामिक विवाह करने वाले एक प्रेमी युगल को अदालती हस्तक्षेप से ही न्याय मिल पाया. पायल, आरिफा के रूप में फैज की पत्नी बनी तो उसके परिजनों ने अदालत में शिकायत कर दी. राजस्थान हाई कोर्ट ने फैज की गिरफ्तारी के आदेश जारी कर दिये. लेकिन रिश्ते की वैधानिकता और पायल की अपनी मर्जी के पहलू ने हाईकोर्ट को मजबूर किया और दोनों आखिरकार मिल पाये.

लव जिहाद और धर्मांतरण के मुद्दों की तीखी सामाजिक और कानूनी टकराहटों में जाहिर है अदालतों पर भी दबाव बढ़ा दिया है जबकि ये मामले समाज और समुदाय के स्तर पर ही सुलझ जाने चाहिए. केरल हाई कोर्ट की ही एक बेंच ने पिछले दिनों एक याचिका पर फटकार लगाते हुए कहा था कि हिंदू मुसलमान युवक युवतियों के प्रेम संबंधों को लव-जिहाद का नाम देने की फितरत से बाज आना चाहिए. कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के 2004 के एक आदेश का हवाला भी दिया था जिसमें समाज में अंतर्जातीय और अंतर्धामिक विवाहों को प्रोत्साहित किये जाने की जरूरत पर भी जोर दिया गया है. 

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