अमेरिका में सोशल मीडिया पर कानून को लेकर फेसबुक और सरकार के बीच ठन गई है. फेसबुक ने वैसा ही प्रतिबंध लगाने की धमकी दी है जैसा पिछले साल ऑस्ट्रेलिया में लगाया था.
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अमेरिकी कंपनी मेटा ने धमकी दी है कि वह फेसबुक से अमेरिका की सारी खबरें हटा सकती है. एक नए प्रस्तावित कानून को लेकर सोशल मीडिया कंपनी ने यह चेतावनी जारी करते हुए कहा है कि अगर यह कानून पास हुआ तो वह अमेरिकी समाचार अपने प्लैटफॉर्म से हटा लेगी.
यह कानून समाचार संस्थानों की सामग्री सोशल मीडिया पर शेयर करने से जुड़ा है, जिसके तहत संस्थानों को अपनी सामग्री के बदले धन पाने के लिए मोलभाव की ज्यादा शक्तियां देने का प्रस्ताव है.
ऐसी है मेटा (फेसबुक) की पहली दुकान
फेसबुक की मालिक कंपनी मेटा ने अपनी पहली दुकान खोलने की तैयारी कर ली है. देखिए, कैलिफॉर्निया में खुलने वाली यह दुकान कैसी होगी.
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फेसबुक का पहला स्टोर
इस महीने खुलने वाला मेटा का पहला भौतिक शोरूम सिलिकन वैली के बर्लिनगेम में है.
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क्या मिलेगा?
यहां रे-बैन के स्मार्ट ग्लास, पोर्टल वीडियो कॉलिंग डिवाइस और ऑक्युलस वीआर हेडसेट जैसी चीजें बेची जाएंगी.
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सादा डिजाइन
शोरूम का रूप-रंग और डिजाइन उसी तरह का है, जैसा एप्पल के स्टोर का होता है. यहां लकड़ी ज्यादा नजर आती है और साज-सज्जा को बहुत सादा रखने की कोशिश है.
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भविष्य का इंटरनेट
फेसबुक ने पिछले साल ही अपना नाम बदलकर मेटा कर लिया था और भविष्य के इंटरनेट के रूप में मेटावर्स पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करने की बात कही थी.
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मेटावर्स पर जोर
अब कंपनी ऐसी डिवाइस को बढ़ावा दे रही है जो मेटावर्स के लिए काम आएंगी जिनमें हेडसेट और स्मार्ट ग्लास आदि चीजें हैं.
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वर्चुअल और फिजिकल का मिलन
कंपनी आगमेंटेड रिएलिटी के साथ भी काफी प्रयोग कर रही है. इस तकनीक के जरिए कॉन्फ्रेंस कॉल के दौरान वर्चुअल अवतारों का प्रयोग होगा और कंपनी उससे जुड़ी चीजें बेचेगी.
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मेटा का दावा है कि समाचार संस्थान अपनी सामग्री को उसके मंचों पर शेयर करके ज्यादा लोगों तक पहुंचते हैं और खासकर छोटे संस्थानों को इससे ज्यादा लाभ पहुंचता है. कंपनी ने कहा कि प्रकाशक फेसबुक पर अपनी सामग्री इसलिए साझा करते हैं क्योंकि इससे ‘उनकी सबसे पिछली पंक्ति को फायदा होता है.'
मिनेसोटा की सेनेटर एमी क्लबूखर ने जर्नलिजम कॉम्पटिशन एंड प्रिजरवेशन एक्ट (जेपीसीए) बिल संसद में पेश किया है. इस बिल को दोनों ही दलों का समर्थन हासिल है. इस बिल में प्रस्ताव है कि प्रकाशकों और प्रसारकों को एकजुट होकर सोशल मीडिया कंपनियों से मोलभाव करने की शक्ति दी जाए ताकि उन्हें विज्ञापनों से मिलने वाले धन का ज्यादा बड़ा हिस्सा मिल सके.
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मेटा बनाम मीडिया
मीडिया कंपनियों का तर्क है कि मेटा उनकी सामग्री के जरिए बड़ी कमाई करती है और उसका एक हिस्सा इन कंपनियों को भी मिलना चाहिए. इन कंपनियों के मुताबिक महामारी के दौरान स्थानीय स्तर पर काम करने वाले छोटे संस्थानों को संघर्ष करना पड़ा जबकि मेटा ने बड़ा मुनाफा कमाया.
उधर मेटा का तर्क है कि यह पूरी बात जिस तरह पेश की जा रही है, वह सही नहीं है. कंपनी का कहना है कि मेटा नये संसाधनों से धन कमा रही है. मेटा की प्रवक्ता एंडी स्टोन ने कहा, "अगर कांग्रेस एक गलत समझ वाले जर्नलिजम बिल को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत पास करती है तो हमें समाचारों को पूरी तरह अपने प्लैटफॉर्म से हटाने के बारे में सोचना पड़ेगा.”
मेटा का यह भी तर्क है कि फेसबुक पर समाचार सामग्री से होने वाली कमाई उसके कुल राजस्व का एक मामूली सा हिस्सा है.
टेक कंपनियों पर लगाम
अमेरिकी कानून ऐसे कई कानूनों का हिस्सा है जिसके तहत बड़ी तकनीकी कंपनियों पर लगाम लगाने की कोशिश हो रही है. जेसीपीए के समर्थकों का कहना है कि अगर यह कानून पास नहीं हुआ तो सोशल मीडिया ही अमेरिका का ‘लोकल न्यूज' बन जाएगा.
अमेरिकन इकोनॉमिक लिबर्टीज प्रोजेक्ट के शोध निदेशक मैट स्टोलर कहते हैं, "मेटा मीडिया संस्थानों को जिंदा निगल रही है. मेटा की कांग्रेस को ब्लैकमेल करने की कोशिश एक बार फिर साबित करती है कि क्यों यह एकाधिपत्य दुनियाभर के लोकतंत्रों के लिए खतरा है.”
भारत में बढ़ती डिजिटल खाई
ऑक्सफैम इंडिया ने एक अध्ययन में पाया है कि भारत में बढ़ते डिजिटलीकरण से विशिष्ट लोगों को फायदा हुआ है लेकिन लोगों के बीच असमानताएं भी बढ़ी हैं. आखिर क्या स्वरूप है इस डिजिटल खाई का?
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डिजिटल खाई
असमानता पर ऑक्सफैम इंडिया की 2022 की रिपोर्ट कहती है कि कोविड-19 महामारी के बाद से तो डिजिटल दुनिया सबकी जिंदगी का एक अपरिहार्य हिस्सा बन गई है. लेकिन एक डिजिटल खाई भी बनी है जिसकी एक तरफ हैं डिजिटलीकरण का लाभ लेने वाले लोग कुछ विशिष्ट लोग और दूसरी तरफ वो जो इस डिजिटल दुनिया से आज तक जुड़ ही नहीं पाए.
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नहीं है इंटरनेट
रिपोर्ट के मुताबिक भारत में डिजिटल सेवाएं 70 प्रतिशत लोगों के पास या तो नहीं पहुचतीं हैं या खराब रूप में पहुंचती हैं. 2022 में ग्रामीण इलाकों में सिर्फ 31 प्रतिशत परिवारों के पास इंटरनेट था.
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शहर और गांव में फर्क
जहां ग्रामीण भारत की सिर्फ 31 प्रतिशत आबादी इंटरनेट का इस्तेमाल करती है, वहीं शहरों में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों की संख्या 67 प्रतिशत है. फर्क दोगुना से भी ज्यादा का है.
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सभी के पास नहीं है स्मार्टफोन
रिपोर्ट के मुताबिक 2021 में देश में 1.2 अरब लोगों के पास मोबाइल फोन थे लेकिन इनमें से करीब 40 प्रतिशत लोगों के पास स्मार्टफोन नहीं थे, जिनके जरिए इंटरनेट का इस्तेमाल किया जा सके.
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जाति के आधार पर अंतर
रिपोर्ट के मुताबिक दलितों के मुकाबले सवर्ण लोगों के पास स्मार्टफोन होने की संभावना औसतन सात प्रतिशत ज्यादा है. मोबाइल फोन रिचार्ज पर हर महीने 400 रुपए से ज्यादा खर्च करने की संभावना दलितों के मुकाबले सवर्णों में 10 प्रतिशत ज्यादा है.
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लैंगिक भेदभाव
जहां कम से कम 61 प्रतिशत पुरुषों के पास मोबाइल फोन है, वहीं महिलाओं में यह संख्या 31 प्रतिशत पर ही रुक जाती है. यानी पूरे 30 प्रतिशत का अंतर.
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शिक्षा भी है एक कारक
जैसे जैसे शिक्षा का स्तर बढ़ता जाता है वैसे वैसे मोबाइल फोन होने की गुंजाइश भी बढ़ती जाती है. एक अशिक्षित व्यक्ति के मुकाबले एक पीएचडी हासिल कर चुके व्यक्ति के पास मोबाइल फोन होने की 60 प्रतिशत ज्यादा संभावना है.
रिपोर्ट के मुताबिक देश में 90 प्रतिशत से ज्यादा लोग इंटरनेट पर एक महीने में 100 रुपए से कम खर्च करते हैं. महामारी के बाद 100 रुपए से कम खर्च करने वालों की संख्या बढ़ कर 94 प्रतिशत हो गई है.
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ऑस्ट्रेलिया ने भी पिछले साल एक ऐसा ही कानून पास किया था. 2021 में जब यह कानून पारित हुआ तो फेसबुक ने तमाम समाचार संस्थानों के फेसबुक पर पोस्ट करने के अधिकार ही छीन लिए. इस कारण कुछ समय तक फेसबुक पर समाचार शेयर नहीं किए जा सके और अव्यवस्था फैल गई. तब वहां के लोगों ने बायकॉट फेसबुक नाम से अभियान छेड़ दिया था. इस कारण मेटा की खासी आलोचना हुई और उसने सरकार के साथ हुए एक समझौते के बाद अपना फैसला बदल दिया.
भारत में भी सोशल मीडिया कंपनियों को लेकर सरकार सख्त कदम उठा रही है जिसका असर कंपनियों और सरकार के संबंधों पर भी दिख रहा है. हाल ही में भारत सरकार ने फर्जी ऑनलाइन रिव्यू को रोकने के लिए कुछ दिशा निर्देशजारी किए थे. इससे पहले फेसबुक और ट्विटर को लेकर भी कई सख्त नियम बनाए गए हैं.