चांद का वायुमंडल पृथ्वी के वायुमंडल से बहुत पतला है.
३ अगस्त २०२४
चांद का वायुमंडल पृथ्वी के वायुमंडल की तुलना में बहुत पतला है. यह वायुमंडल कैसे बना और बचा रहा इसकी प्रक्रिया के बारे में वैज्ञानिकों ने अहम जानकारी जुटाई है.
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चांद की जमीन पर पहली बार कदम रखने वाले नासा के अंतरिक्ष यात्रियों ने चांद के वायुमंडल का भी पता लगाया था. इसके बारे में इससे पहले जानकारी नहीं थी. यह वायुमंडल काफी कमजोर है. हाल ही में चांद की मिट्टी के नमूनों का अध्ययन करने के बाद वैज्ञानिक यह पता लगा सके हैं कि यह वायुमंडल किस प्रक्रिया से तैयार हुआ था.
अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के 5 अपोलो अभियानों से हासिल हुई मिट्टी के 9 नमूनों में वैज्ञानिकों को पोटेशियम और रुबिडियम मिला है. इनके प्रकारों का अध्ययन यह दिखाता है कि चांद का वायुमंडल छोटे बड़े धूमकेतुओं की टक्कर से बना और फिर बचा रहा.
कैसे बना चांद का वायुमंडल
शुक्रवार को साइंस जर्नल में प्रकाशित एक रिसर्च रिपोर्ट में की प्रमुख लेखक निकोल नी मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी की प्लेनेटरी साइंटिस्ट हैं. उनका कहना है, "धूमकेतु की टक्कर से बहुत ऊंचे तापमान की गर्मी पैदा होती है जिनका दायरा 2,000-6,000 डिग्री सेल्सियस के करीब होता है. यह अत्यधिक गर्मी चांद की सतह पर मौजूद चट्टानों को पिघला कर वाष्प बना देती है, और उसके परमाणु वातावरण में मिल जाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे गर्मी पानी को वाष्प में बदल देती है."
चांद का वायुमंडल अत्यधिक पतला है और तकनीकी रूप से इसे बाह्यमंडल यानी एक्सोस्फीयर कहा जाता है. इसका मतलब है कि इसके परमाणु एक दूसरे से टकराते नहीं हैं क्योंकि उनकी संख्या बहुत कम होती है. इसके उलट पृथ्वी का वायुमंडल मोटा और स्थाई है. नी का कहना है, "अपोलो मिशनों में चांद की सतह पर ऐसे उपकरण ले जाए गए थे जिन्होंने वायु में परमाणुओं का पता लगाया."
दो प्रक्रियाओं ने बनाया वायुमंडल
2013 नासा ने रोबोटिक एलएडीईई (लुनर एटमॉस्फियर एंड डस्ट एनवायरनमेंट एक्सप्लोरर) अंतरिक्ष यान को चांद की कक्षा में उसके वायुमंडल और सतह के पर्यावरण का अध्ययन करने के लिए भेजा था. इसने वहां काम कर रही दो प्रक्रियाओं का पता लगाया जिन्हें स्पेस वेदरिंग कहा जाता है. इनमें से एक है मीटियोराइट इम्पैक्ट यानी धूमकेतु की चोट और दूसरा सोलर विंड स्पटरिंग यानी सौर हवाओं की हलचल.
नी ने बताया, "सौर हवाएं अत्यधिक ऊर्जा से आवेशित कणों को पूरे अंतरिक्ष में यहां वहां ले जाती हैं जिनमें ज्यादातर प्रोटॉन होते हैं. जब यह कण चांद से टकराते हैं तो वे अपनी ऊर्जा चांद की सतह पर मौजूद परमाणुओं को दे देते हैं, इसकी वजह से परमाणु सतह को छोड़ कर बाहर निकल जाते हैं."
धूमकेतुओं की टक्कर
सौर हवाओं का मतलब सूरज से लगातार निकलने वाली ऊर्जा से भरपूर कणों की धारा से है, जो सौर मंडल में सब जगह पहुंचते हैं. एलएडीईई चांद के वायुमंडल में इन दो प्रक्रियाओं के तुलनात्मक योगदान का पता नहीं लगा सका था. एक नई रिसर्च ने बताया है कि धूमकेतुओं की टक्कर का योगदान 70 फीसदी से ज्यादा है जबकि सौर हवाओं का योगदान 30 फीसदी से कम है.
चांद पर धूमकेतुओं की टक्कर लगातार होती रहती है. इनमें पहले हुई बड़ी टक्करें भी शामिल हैं जिनकी वजह से इसकी सतह पर गड्ढे बन गए हैं जो आसानी से देखे जा सकते हैं. इसके अलावा छोटे धूमकेतुओं की टक्कर भी लगातार होती रहती है जिनका आकार तो कई बार धूल के बराबर होता है. इन टक्करों के नतीजे में कुछ परमाणु तो अंतरिक्ष में भी चले जाते हैं. बाकी परमाणु सतह के ऊपर वायुमंडल में लटके रहते हैं. बाद में होने वाले और धूमकेतुओं की टक्कर से निकले परमाणु इनके साथ आते रहते हैं.
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कितना मोटा है चांद का वायुमंडल
चांद के वायुमंडल में मुख्य रूप से एरगॉन, हीलियम और नियॉन के साथ पोटेशियम और रुबिडियम और कम मात्रा में कुछ दूसरे तत्व हैं. इनका दायरा चांद की सतह से करीब 100 किलोमीटर तक है. इसके मुकाबले पृथ्वी के वायुमंडल का दायरा लगभग 10,000 किलोमीटर तक है.
चांद की सतह के वास्तविक परमाणुओं का परीक्षण करने की बजाय रिसर्चरों ने चांद की मिट्टी का इस्तेमाल किया. इसे रिगॉलिथ कहा जाता है. रिसर्चर एक खास उपकरण का इस्तेमाल करते हैं जिसे मास स्पेक्ट्रोमीटर कहा जाता है जो मिट्टी में पोटेशियम और रुबिडियम के अलग अलग आइसोटोप्स के अनुपात का परीक्षण करता है. आइसोटोप एक ही तत्व के अलग अलग परमाणु होते हैं जिनका भार अलग होता है. ऐसा उनके अंदर मौजूद न्यूट्रॉन की संख्या अलग होने के कारण होता है. चांद के वायुमंडल में पोटेशियम के तीन और रुबिडियम के दो आइसोटोप मौजूद हैं.
एनआर/एसके (रॉयटर्स)
नील आर्मस्ट्रॉन्ग के तीसरे साथी क्यों नहीं उतरे थे चांद पर?
विज्ञान और चमत्कार, आमतौर पर ये दोनों एक-दूसरे से कोसों दूर माने जाते हैं. लेकिन ठीक 55 साल पहले विज्ञान की पीठ पर सवार हम इंसानों ने एक अद्भुत चमत्कार किया था. कभी ना भूल पाने वाली यह तारीख थी, अपोलो 11 की मून लैंडिंग.
तस्वीर: Sven Hoppe/dpa/picture alliance
इंसानी इतिहास के सबसे यादगार हासिलों में से एक
55 साल पहले की यही तारीख थी... 20 जुलाई 1969 का दिन जब इंसान ने वह कमाल कर दिखाया जो पहले कभी नहीं हुआ था. इंसान पहली बार अपनी दुनिया से परे एक जीवनविहीन निरे वीरान पिंड पर पहुंचा. सफेद सूट में पैक, पीठ पर ऑक्सीजन सिलिंडर लादे दो लोगों ने वहां पांव धरे, जहां पहले कभी कोई इंसान नहीं पहुंच सका था.
उन दो लोगों ने जिस मिट्टी पर कदमों के निशान छोड़े, वो हमारी इस पृथ्वी से बहुत दूर किस्से-कहानियों और गीतों की जमीन थी. उन दो लोगों के नाम थे: नील आर्मस्ट्रॉन्ग और एडविन बज आल्ड्रिन. 16 जुलाई, 1969 को जब एक सैटर्न वी रॉकेट अपोलो 11 मिशन को लेकर केप कैनेडी से रवाना हुआ, तो इसकी तैयारी करते अमेरिका को कई साल हो चुके थे.
तस्वीर: NASA/Zuma/picture alliance
अंतरिक्ष की होड़
इस तारीख के आठ साल पहले 25 मई 1961 को तब राष्ट्रपति रहे जॉन एफ. कैनेडी ने अपोलो 11 के लिए एक असीम महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किया कि इंसानों को चांद की धरती पर उतारेंगे और उन्हें सुरक्षित पृथ्वी पर वापस भी लाएंगे. उन दिनों सोवियत संघ और अमेरिका में एक होड़ मची थी. पहली-पहली बार अंतरिक्ष में ये और वो करने की.
तस्वीर: MAURO PIMENTEL/AFP
मानव ने तय किया एक अकल्पनीय लक्ष्य
अप्रैल 1961 में सोवियत संघ ने यूरी गागरिन को अंतरिक्ष पहुंचाया. यह कारनामा पहली बार हुआ था. इससे अमेरिका ने खुद पर बहुत दबाव बढ़ा लिया. उसे अंतरिक्ष में ऐसी कामयाबी की तलाश थी, जो नाटकीय और अकल्पनीय हो. आखिरकार इस लक्ष्य की शिनाख्त हुई और 25 मई 1961 को कैनेडी ने कांग्रेस के साझा सत्र में कहा कि चांद पर मानव अभियान भेजेंगे.
तस्वीर: AP Photo/picture-alliance
तीन अंतरिक्षयात्रियों की रवानगी
16 जुलाई 1969 को एक सैटर्न वी रॉकेट ने अपोलो 11 मिशन को लेकर चांद के लिए कूच किया. इसमें तीन अंतरिक्षयात्री थे. मिशन कमांडर नील आर्मस्ट्रॉन्ग. लूनर मॉड्यूल पायलट एडविन बज आल्ड्रिन. और, कमांड मॉड्यूल पायलट माइकल कॉलिन्स. टीवी पर प्रसारित इस लॉन्चिंग को देख रहे लाखों लोग इस ऐतिहासिक पल के साक्षी बने.
तस्वीर: NASA via CNP /MediaPunch/picture alliance
शांति का समंदर
चांद का व्यास तो 3,476 किलोमीटर है. इतने बड़े चांद पर अपोलो 11 मिशन को कहां उतारा जाए, यह तय करने में नासा को दो साल लगे. उसने पांच संभावित जगहों की शिनाख्त की. लेकिन जब लैंडिंग का मौका आया, तो लूनर मॉड्यूल ईगल बहुत रफ्तार में था. ऐसे में जहां उतरने की योजना बनी थी, ईगल उसके पश्चिम में उतरा. इस पॉइंट को "मारे ट्रेंक्विलिटाटिस" कहा जाता है. हिन्दी में कहें, तो शांति का समंदर.
तस्वीर: ingimage/IMAGO
"दी ईगल हैज लैंडेड"
20 जुलाई 1969 को जब अपोलो 11 मिशन चांद पर उतरा, तब उसके लूनर मॉड्यूल ईगल में बस 25 सेकेंड का ईंधन बचा था. लैंडिंग होने पर आर्मस्ट्रॉन्ग ने मिशन कंट्रोल से कहा, "दी ईगल हैज लैंडेड." इसके कुछ घंटों बाद हैच खुला और बतौर मिशन कमांडर नील आर्मस्ट्रॉन्ग ने पैर बढ़ाए और चांद पर कदम रखने वाले पहले इंसान बने.
तस्वीर: Neil Armstrong/NASA/dpa/picture alliance
"इंसान का एक छोटा कदम, इंसानियत के लिए महान छलांग"
करीब 20 मिनट बाद बज आल्ड्रिन सीढ़ियों से उतरे और चांद की जमीन पर उनके पांव पड़े. आर्मस्ट्रॉन्ग और आल्ड्रिन ने मिलकर चांद की सतह पर अमेरिकी झंडा गाड़ दिया. दोनों ने चांद से पत्थर और धूल के नमूने जमा किए. आर्मस्ट्रॉन्ग और आल्ड्रिन ने चांद पर कुल 21 घंटे, 36 मिनट बिताए. इसमें चांद की सतह पर बिताई गई अवधि थी करीब ढाई घंटा. 21 जुलाई को वापसी का सफर शुरू हुआ, जो 24 जुलाई को हवाई पहुंचने पर पूरा हुआ.
तस्वीर: NASA
तीसरे अंतरिक्षयात्री कॉलिन्स कहां रह गए?
इस ऐतिहासिक सफर में आर्मस्ट्रॉन्ग और आल्ड्रिन की उपलब्धि के आगे अक्सर कमांड मॉड्यूल पायलट माइकल कॉलिन्स का नाम भुला दिया जाता है. वो भी तो थे अपोलो 11 मिशन का हिस्सा, फिर वो चांद की जमीन पर क्यों नहीं उतरे? दरअसल अपोलो 11 मिशन में दो उपकरणों को सैटर्न वी रॉकेट से लॉन्च किया गया था. एक, लूनर लैंडर ईगल. दूसरा कोलंबिया, जो ऑर्बिट करने वाली एक मदरशिप थी. कॉलिन्स इसी मदरशिप में थे.
तस्वीर: AP/dpa
क्या कर रहे थे माइकल कॉलिन्स
16 जुलाई को लॉन्चिंग के बाद कॉलिन्स, आर्मस्ट्रॉन्ग और आल्ड्रिन तीन दिन साथ थे. 20 जुलाई को कोलंबिया के पिछले हिस्से से निकलकर ईगल लैंडिंग के लिए बढ़ता, इसमें कॉलिन्स की अहम भूमिका थी. आर्मस्ट्रॉन्ग और आल्ड्रिन ईगल लैंडर में बैठकर चांद की सतह के लिए रवाना हो गए. कोलंबिया को पायलट कर रहे कॉलिन्स 21 घंटे से ज्यादा वक्त तक अकेले चांद का चक्कर लगाते रहे. दुनिया से दूर, हर एक इंसान से दूर, निरे अकेले.
तस्वीर: NASA
"मैं एकदम अकेला हूं"
कहते हैं कि ये इतना एकांत था, जितना शायद कभी किसी इंसान ने महसूस नहीं किया था. दी गार्डियन अखबार के मुताबिक, उन्होंने अपने कैप्सूल में लिखा था, "मैं अब सच में बिल्कुल अकेला हूं, किसी भी ज्ञात जीवन से एकदम अकेला." बताते हैं कि मिशन की तैयारी के समय से ही कॉलिन्स को डर था कि कहीं उनके दोनों साथियों के साथ हादसा ना हो जाए.
तस्वीर: Abaca/CNP/picture alliance
बहुत मुमकिन था कि कोई हादसा हो जाता
कॉलिन्स को इस बात का हद से ज्यादा खौफ था कि कहीं उन्हें अकेले पृथ्वी पर ना लौटना पड़े. ऐसे किसी हादसे की आशंका बहुत मजबूत थी. तीनों अंतरिक्षयात्रियों को हादसे का पुरजोर अंदेशा था. आर्मस्ट्रॉन्ग ने भी पृथ्वी पर जिंदा लौटने की संभावना 50-50 आंकी थी. कई तरह के खतरे थे. मसलन कहीं लैंडर क्रैश हो गया, तो? इंजन फेल हो गया, तो? वापसी के वक्त इंजन चालू ही ना हुआ, तो?
तस्वीर: The Print Collector/picture alliance
यह डर नासा को भी था
यहां तक कि ईगल के फेल होने की आशंका के मद्देनजर राष्ट्रपति निक्सन का एक भाषण तैयार रखा गया था, जिसमें वह श्रद्धांजलि देते हुए कहते, "नियति का आदेश था कि जो मानव शांति से खोजबीन करने चांद गए, वे अब चिर शांति में हमेशा चांद पर रहेंगे." क्या यह विज्ञान और इंसानी जज्बे से हासिल चमत्कार नहीं था कि यह शोक संदेश पढ़ने की कभी नौबत ही नहीं आई! कि सच में इंसान चांद पर चढ़ा और वापस अपनी दुनिया में लौट आया!