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सूदखोर महाजनों से बिहार को कब मिलेगी मुक्ति

मनीष कुमार
१४ नवम्बर २०२२

दूर दराज के गांव में बैंकों की शाखाएं खुल गई हैं लेकिन बिहार आज भी महाजनों के चंगुल में है. छोटे मोटे कारोबार, आकस्मिक संकट या शादी जैसी जरूरतों में लोग महाजनों से कर्ज लेते हैं. यही कर्ज उनके गले का फंदा बन जाता है

महाजनों के चंगुल में फंसा है बिहार
बैंक तो बहुत हैं लेकिन मजदूरों, किसानों और छोटे कारोबारियों को यहां कर्ज मुश्किल से ही मिलता हैतस्वीर: Manish Kumar/DW

‘‘कर्ज से दोगुनी-तिगुनी राशि जमा कर दी, फिर भी कर्ज खत्म नहीं हुआ. कर्ज चुकाने के लिए समय मांग रहे थे, लेकिन महाजन कुछ सुनने को तैयार नहीं थे. सूद (ब्याज) की रकम नहीं देने पर गाली-गलौज करते थे, इसलिए विवश होकर यह कदम उठाया.'' ये चंद शब्द हैं उस सुसाइड नोट के, जिसे सूदखोरों की प्रताड़ना से तंग आकर बिहार के नवादा जिले के एक फल व्यवसायी ने परिवार के छह लोगों के साथ जहर पीकर जान देने के पहले लिखा है.

जाहिर है, फल व्यवसायी व परिवार के मुखिया केदार लाल गुप्ता ने अपने व्यवसाय को बढ़ाने के उद्देश्य से महाजन से कर्ज लिया होगा. इसके बाद परिवार सूद के जाल में फंसता चला गया. परिवार पर 12 लाख रुपये का कर्ज था, दोगुने से अधिक लौटाया भी, लेकिन फिर भी कर्ज खत्म नहीं हुआ.

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केदार लाल गुप्ता के बड़े बेटे अमित गुप्ता का कहना था कि महाजन अब उनकी बहन को उठाने की धमकी दे रहे थे. पांच-छह साल से प्रताड़ित हो रहा परिवार सूदखोरों की प्रताड़ना से टूट चुका था. अपने सुसाइड नोट में गुप्ता ने सूदखोरों की ओर से दी जा रही प्रताड़ना का जिक्र करते हुए उन छह  महाजनों के नाम लिखे हैं.

पुलिस ने सामूहिक आत्महत्या के इस मामले में सात सूदखोरों के खिलाफ आत्महत्या के लिए उकसाने तथा मनी लांड्रिंग एक्ट,1974 के तहत केस दर्ज किया है. इनमें एक आरोपी को गिरफ्तार किया गया है.

कर्ज चुकाने के लिए मां ने किया बच्ची का सौदा

यह कोई पहला मामला है. इसी हफ्ते जमुई में कर्ज में डूबे पति के लिए पत्नी ने नन्ही सी बच्ची को बेचने का फैसला कर लिया. बच्ची के पिता और मां कचरा चुनने का काम करते हैं. उसने एक साल पहले पांच हजार रुपये का कर्ज लिया था जो बढ़कर 25 हजार रुपये हो गया था. कर्ज चुकाने का और कोई उपाय नहीं दिखा तो उन दोनों ने दो माह की बच्ची को ही 30 हजार रुपये में बेचने का फैसला कर लिया. हालांकि, मामला खुल जाने पर वह ऐसा नहीं कर सकी.

फल सब्जी बेचने वाले या छोटे दुकानदार अकसर महाजनों के चंगुल में फंसते हैंतस्वीर: Manish Kumar/DW

पांच लाख का कर्ज नहीं चुकाने के कारण ही पटना के एक अस्पताल के गार्ड सुमन कुमार को अगवा कर उससे मारपीट की गई. उसकी मां को फोन पर पैसा नहीं देने पर उसकी हत्या की धमकी दी गई. बेटे सुमन की हत्या की बात सुन कर मां थाने पहुंच गई और पुलिस ने सभी आरोपियों को दबोच लिया. अकसर इस तरह की खबरें मीडिया में आती हैं.

मूलधन से ज्यादा देना पड़ता है ब्याज

पूरे बिहार में सूदखोर महाजनों का जाल फैलता जा रहा है.आजादी के बाद महाजनी (मनी लैंडिंग) प्रथा को अवैध घोषित करते हुए इस पर रोक लगा दी गई थी, लेकिन हकीकत यह है कि पूरे प्रदेश में इनकी एक समानांतर अर्थव्यवस्था है. इसके अधिकतर शिकार मध्यम व छोटे व्यवसायी होते हैं. सब्जी-फल का व्यवसाय करने वाले हों या कम जोत वाले किसान, जिन्हें बेटी की शादी या खेती के लिए मजबूरन इनकी शरण में जाना पड़ता है.

ये लोग इन्हीं महाजनों से तीन से पांच रुपये सैकड़ा प्रतिमाह के हिसाब से कर्ज लेते हैं. हिसाब लगाइए, अगर किसी ने एक लाख रुपये का कर्ज तीन रुपये प्रति सैकड़ा पर लिया हो उसे एक महीने में बतौर ब्याज तीन हजार रुपये देने होंगे. सलाना उसे 36,000 रुपये की राशि देनी होगी. प्रतिशत के हिसाब से यह आंकड़ा सालाना 36 से 50 प्रतिशत तक पहुंच जाता है. साफ है, कर्जदार को एक भारी रकम सूद के रूप में देनी पड़ती है. अगर किसी महीने ब्याज की रकम नहीं दी तो वह मूलधन में जुट जाती है. उससे चक्रवृद्धि ब्याज वसूला जाता है. इसलिए कर्ज के मूलधन से ज्यादा सूद देना पड़ जाता है. अगर कर्ज ली गई रकम किसी भी वजह से डूब गई तो फिर पूछिए ही मत.

डर इतना कि पुलिस तक बात नहीं पहुंचती

अवकाश प्राप्त पुलिस पदाधिकारी एस.एन. लाल ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा, ‘‘कर्ज में डूबे लोग सूदखोरों से इस हद तक डरे होते हैं कि उनकी प्रताड़ना से तंग आकर भले ही वे अपनी जमीन-जायदाद बेच दें या फिर आत्महत्या जैसा कठोर कदम उठा लें, लेकिन वे इनके खिलाफ पुलिस में शिकायत नहीं करते हैं. महाजनों के अनैतिक दबाव से बचने के लिए लोगों को आगे आकर पुलिस से अपनी बात कहनी होगी, तभी पुलिस कार्रवाई कर सकेगी.''

कर्जे में डूबी दिल्ली के सेक्स वर्कर

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यह सच है कि  कोई घटना हो जाने के बाद ही मामला पुलिस तक पहुंच पाता है. अगर पहले ही महाजनों की प्रताड़ना की शिकायत पुलिस से की जाए तो कोई ना कोई रास्ता निकल सकेगा. स्थिति इसके बिल्कुल उलट है. वरिष्ठ पत्रकार दिग्विजय कुमार कहते हैं, ‘‘राज्य का शायद ही कोई ऐसा कस्बा या गांव हो, जहां यह काम नहीं होता हो, वह भी दिन के उजाले में. कोई इसे स्वीकारता नहीं, किंतु जानता हर कोई है. भ्रष्ट अधिकारी से लेकर बड़े-बड़े ठेकेदार व व्यवसायी इस धंधे में लिप्त हैं.''

सरकारी संस्थाओं से कर्ज पाना टेढ़ी खीर

बिहार में रोजी-रोटी की गंभीर समस्या है. इसलिए यहां से दूसरे राज्यों में पलायन भी काफी अधिक है. उद्योग-धंधे में बहुत सुधार नहीं हुआ है. यही वजह है कि एक बड़ी आबादी आज भी कृषि पर आश्रित है. खेती करना हो या छोटा कारोबार, लोगों के सामने धन का संकट बना रहता है. समाजशास्त्री एके सिंह ने डीडब्ल्यू से कहा, ‘‘भले ही दावे जो भी कर लिए जाएं, लेकिन यह तो सच है कि इन लोगों के लिए बैंक या किसी भी सरकारी संस्था से ऋण प्राप्त करना आज भी टेढ़ी खीर है. पंचायत से लेकर जिला स्तर तक बिचौलियों का बोलबाला है.''

मुजफ्फरपुर के बलिया में मछली का कारोबार करने वाले दिनेश साहनी बताते हैं, ‘‘बैंक बिना गारंटी लोन (ऋण) देने को तैयार नहीं होता और हमारे पास ऐसा कुछ नहीं है. इंदिरा आवास योजना के तहत मिले मकान में रहते हैं. अगर कुछ करना है या कोई विपत्ति आ जाए तो महाजन के पास जाने के सिवा हमारे पास विकल्प क्या है.''

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