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विज्ञानस्विट्जरलैंड

वैज्ञानिकों ने मोड़ा, गिरती आसमानी बिजली का रास्ता

१७ जनवरी २०२३

स्विट्जरलैंड में एक प्रयोग करके वैज्ञानिकों ने गिरती बिजली का रास्ता मोड़ दिया. यह तकनीक इमारतों को बिजली गिरने से होने वाले नुकसान से बचाने में मददगार हो सकती है.

बिजली गिरने से सुरक्षा की कोशिशें
बिजली गिरने से सुरक्षा की कोशिशेंतस्वीर: Martin Stollberg/TRUMPF

1750 में बेंजामिन फ्रैंकलिन ने जब पतंग वाला अपना मशहूर प्रयोग किया था तो पहली लाइटनिंग रॉड यानी बिजली गिरने से बचाने वाली छड़ बनाई थी. तब उन्होंने एक पंतग को चाबी बांधकर तूफान में उड़ाया था. उस वक्त शायद ही उन्होंने सोचा होगा कि आने वाली कई सदियों तक यही सबसे अच्छा तरीका बना रहेगा.

वैज्ञानिकों ने उस खोज को बेहतर बनाने की दिशा में अब जाकर कुछ ठोस कदम बढ़ाए हैं. लेजर की मदद से वैज्ञानिकों ने गिरती बिजली का रास्ता मोड़ने में कामयाबी हासिल की है. 16 जनवरी को उन्होंने इसका ऐलान किया. उन्होंने बताया कि उत्तर-पूर्वी स्विट्जरलैंड में माउंट सांतिस की चोटी से उन्होंने आसमान की ओर लेजर फेंकी और गिरती बिजली को मोड़ दिया.

वैज्ञानिकों ने कहा है कि इस तकनीक में और ज्यादा सुधार के बाद इसे अहम इमारतों की सुरक्षा में लगाया जा सकता है और बिजली गिरने से स्टेशनों, हवाई अड्डों, विंड फार्मों और ऐसी ही जरूरी इमारतों को नुकसान से बचाया जा सकता है. इसका फायदा ना सिर्फ भवनों को होगा बल्कि संचार साधनों और बिजली की लाइनों जैसी अहम सुविधाओं की सुरक्षा के साथ-साथ हर साल हजारों लोगों की जान भी बचाई जा सकेगी.

कैसे हुआ प्रयोग?

यह प्रयोग माउंट सांतिस पर एक टेलिकॉम टावर पर किया गया, जो यूरोप में बिजली गिरने से सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं. 124 मीटर ऊंचा यह टावर स्विसकॉम कंपनी ने उपलब्ध कराया था. 2,500 मीटर ऊंची चोटी पर कुछ मशीनों को गोंदोला के जरिए पहुंचाया गया तो कुछ के लिए हेलीकॉप्टर की मदद ली गई.

2021 में दो महीने तक चले इस प्रयोग के दौरान बेहद तीक्ष्ण लेजर किरणों को 1,000 बार प्रति सेंकड की दर से आसमान की ओर फेंका गया. इस लेजर का निशाना कड़कती हुई बिजली थी. जब सिस्टम चालू था तब चार बार बिजली कड़की और उस पर सटीक निशाना लगाया गया.

पहली बार में तो शोधकर्ताओं ने दो तेज रफ्तार कैमरों की मदद से बिजली के रास्ते का मुड़ना रिकॉर्ड भी कर लिया. बिजली अपने रास्ते से 160 फुट यानी करीब 50 मीटर तक भटक गई थी. हालांकि हर बार भटकाव का रास्ता अलग रहा.

यह लेजर डिवाइस एक जर्मन कंपनी ट्रंफ ने तैयार की है.तस्वीर: Martin Stollberg/TRUMPF

कैसे काम करती है तकनीक?

फ्रांस के ईकोल पॉलिटेक्नीक की लैबोरेट्री ऑफ अप्लाइड ऑप्टिक्स ने इस प्रयोग को को-ऑर्डिनेट किया था. लेजर लाइटनिंग रॉड प्रोजेक्ट नाम से इस शोध की रिपोर्ट 'नेचर फोटोनिक्स' पत्रिका में छपी है. इस शोध के मुख्य लेखक भौतिकविज्ञानी ऑरेलिएं ऊआर कहते हैं, "हमने पहली बार यह दिखाया है कि कुदरती बिजली का रास्ता बदलने के लिए लेजर का प्रयोग किया जा सकता है.”

कुदरती बिजली एक बहुत अधिक वोल्टेज वाला इलेक्ट्रिक करंट होता है जो बादल और धरती के बीच बहता है. ऊआर कहते हैं, "बेहद तीक्ष्ण लेजर इसके रास्ते में प्लाज्मा के लंबे कॉलम बना सकती है जो इलेक्ट्रॉन, आयन और गर्म हवा के अणुओं से बनते हैं.” 

आसमानी बिजली से बचने के तरीके खोजते वैज्ञानिक

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ऊआर बताते हैं कि ये प्लाज्मा कॉलम बिजली को दूसरी दिशाओं में निर्देशित कर सकते हैं. वह कहते हैं, "यह अहम है क्योंकि गिरती बिजली से सुरक्षा की दिशा में एक लेजर आधारित प्रक्रिया का यह पहला कदम है. (यह ऐसी प्रक्रिया है) जो समुचित लेजर ऊर्जा उपलब्ध हो तो असलियत में करीब एक किलोमीटर ऊंचाई तक जा सकती है.”

कब बनेगी मशीन?

लेजर फेंकने के लिए जिस मशीन का इस्तेमाल किया गया वह एक बड़ी कार जितनी बड़ी है और उसका वजन लगभग तीन टन है. इस मशीन को जर्मन कंपनी ट्रंफ ने बनाया है. इस प्रयोग में जेनेवा विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों की भी अहम भूमिका रही. इस पूरे प्रयोग में एयरोस्पेस कंपनी आरियाने ग्रूप ने भी सहयोग किया.

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इस प्रयोग की अवधारणा 1970 के दशक में तैयार हो गई थी लेकिन अब तक इसे प्रयोगशालाओं में ही दोहराया जाता रहा. पहली बार इसे जमीन पर आजमाया गया. ऊआर का मानना है कि अभी इस पूरी तकनीक को मशीन के रूप में तैयार होकर बाजार में आने में 10-15 साल का वक्त लग सकता है.

गिरती बिजली से बचने के लिए अब तक जिस लाइटनिंग रॉड का इस्तेमाल होता रहा है, उसकी खोज फ्रैंकलिन ने 18वीं सदी में की थी. यह युक्ति असल में धातु की एक रॉड होती है जिसे एक तार के जरिए जमीन से जोड़ा जाता है. बिजली जब गिरती है तो इमारत से ऊपर होने के कारण सबसे पहले रॉड के संपर्क में आती है और तार के जरिए पूरा करंट जमीन में चला जाता है. इस मशीन की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह एक छोटे से इलाके की ही सुरक्षा कर सकती है.

वीके/आरएस (रॉयटर्स)

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