मुंबई का असल्फा स्लम इन दिनों सुर्खियों में है. इसे इतने रंगों से संवारा गया है कि कुछ लोग इसकी तुलना इटली के गांव पोजितानो से कर रहे हैं.
विज्ञापन
स्लम का नाम सुनते ही लोगों के जहन में बदबूदार संकरी गलियाँ और छोटे अँधेरे घरों की तस्वीर उभरती है. खासतौर पर मुंबई के स्लम में हालात कुछ ऐसे ही हैं. स्लम के प्रति लोगों की इस धारणा को बदलने के लिए मुंबई के कुछ उत्साही युवाओं ने कमर कसी है. इसकी शुरुआत उन्होंने घाटकोपर की पहाड़ी पर बसे असल्फा स्लम से की है.
रंग भरने की कोशिश
असल्फा स्लम को रंगों से संवारने का जिम्मा उठाने वाली संस्था "रंग दे” के टेरेंस फरेरा इस प्रोजेक्ट के बारे में बताते हुए कहते हैं, "स्लम के प्रति लोगों की धारणा बदलने की मुहिम के साथ ही स्लम निवासियों के जीवन में सकारात्मकता का रंग भरने की कोशिश है.” असल्फा के रूप को बदलने के लिए बस्ती में बने घरों की दीवारों को खूबसूरत रंगों से रंगा गया है. बस्ती की बाहरी दीवारों पर अलग-अलग तरह के डिजाइन बनाए गए हैं. कुछ काफी आकर्षक बन गए हैं. दीवारों को रंगने में लगभग 400 लीटर पेंट का इस्तेमाल किया गया.
पर्यटकों की पसंद ब्राजील की झुग्गियां
रियो डि जिनेरियो की ये झुग्गी बस्तियां दुनिया भर के लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच रही है. कलाकारों द्वारा दिए गए नए रंग रोगन ने बस्ती का हुलिया बदल दिया है.
तस्वीर: DW/Greta Hamann
यह है बस्ती का एक्टिंग स्कूल. दीवारों पर रंगों की छटा. एक समय में जहां आना जाना नापसंद किया जाता था आज वही इलाका 'विडिगाल' पर्यटकों के लिए कला का ठिकाना साबित हो रहा है.
तस्वीर: DW/Greta Hamann
विडिगाल रियो के दक्षिण में पहाड़ी इलाके में है. ईपानेमा समुद्र तट से ठीक ऊपर. रात के समय घरों की खिड़कियों से झांकती रोशनी आसमान के बीच चमकते सितारों सी लगती है.
तस्वीर: DW/Greta Hamann
1960 के दशक में बहुत से गरीब ब्राजीलियाई यहां आए क्योंकि उनके रोजगार यहां आस पास थे. पास के रईस लेबलन शहर में नौकरी की कई संभावनाएं हैं. लेकिन इलाके में मकानों के बढ़ रहे दाम से अब इन लोगों का रहना मुश्किल हो गया है.
तस्वीर: DW/Greta Hamann
आज भी विगिडाल के लोगों को 1970 में मिली जीत पर गर्व है. जब इस पहाड़ी पर अपार्टमेंट्स बनाए जाने के प्रोजेक्ट का उन्होंने विरोध किया और कामयाबी पाई. उस समय कई कलाकारों और संगीतकारों ने उन्हें अपना समर्थन दिया.
तस्वीर: DW/Greta Hamann
आज विगिडाल कुछ ऐसे इलाकों में शुमार है जहां हिंसा बहुत कम और कला के शौकीनों के लिए बहुत कुछ है. दिन के समय ऊपर से पूरा कोपाकबाना का इलाका देखा जा सकता है जहां रात में मेहमान पार्टी करते हैं.
तस्वीर: DW/Greta Hamann
अक्सर यहां आने वाले मेहमान आने के बाद ज्यादा दिन तक रहने का मूड बना लेते हैं. यहां ऐसे होटल भी सस्ते दामों में मिल जाते हैं जिनसे शानदार नजारा देखना आसान है.
तस्वीर: DW/Greta Hamann
विडिगाल में कई नई इमारतें बन रही हैं. यहां तक कि सैलानियों की बढ़ रही भीड़ के चलते पांच सितारा होटल भी बनाए जाने की योजना है.
तस्वीर: DW/Greta Hamann
कई लोगों का मानना है कि यहां रहना कोपाकबाना के होटलों से ज्यादा सुरक्षित है. बीते कुछ सालों में लूटपाट में कमी आई ही है. 2012 में जब से यहां संयुक्त राष्ट्र की शांति सेना के जवान आए हैं, नशे का कारोबार भी कम हुआ है.
तस्वीर: DW/Greta Hamann
विडिगाल की बढ़ रही रौनक के साथ पुराने लोगों की कुछ दिक्कतें फिर सिर उठा रही हैं. नए होटल बनाने के चक्कर में कंपनियां उन पर घर छोड़ने का दबाव डाल रही हैं.
तस्वीर: DW/Greta Hamann
9 तस्वीरें1 | 9
टेरेंस फरेरा का कहना है कि इस काम में लोगों ने दिल खोल कर साथ दिया. पेंट बनाने वाली कंपनी स्नोसेम ने रंग दिए तो मुंबई मेट्रो ने वॉलंटियरों के लिए खाने और टीशर्ट का इंतजाम किया.
बस्ती वालों का साथ
संस्था "रंग दे” के अभियान में असल्फा बस्ती के लोगों ने भी उत्साहपूर्वक भाग लिया. हालाँकि शुरुआत में जब यहां की गलियों और झुग्गियों की बाहरी दीवार को खूबसूरत रंगों से सजाया जा रहा था तब बस्तीवालों ने कोई उत्साह नहीं दिखाया था. टेरेंस फरेरा के अनुसार इस प्रोजेक्ट के शुरुआत में बस्ती वाले झिझकते रहे लेकिन जल्द ही उनकी झिझक खत्म हो गई. घरों की बाहरी दीवारों को खूबसूरत बनाने में बस्ती वालों ने बढ़चढ़ कर भाग लिया. वॉलंटियरों के लिए खाना-नाश्ता बनाने से लेकर रंग करने के लिए ब्रश भी थामा.
बस्ती निवासी किरण कहती हैं, "बस्ती में साफ सफाई पहले से ही थी. अब दीवारों को रंगरोगन होने से बस्ती में आने वालों को अच्छा लगता है.” बस्ती की लगभग पौने दो सौ दीवारों में रंग भरने के लिए करीब 600 वॉलनटिअर्स का सहयोग मिला जिसमें युवाओं का साथ बुजुर्गों ने भी हिस्सा लिया. उत्साही वॉलंटियरों ने रंग भरने का काम मात्र 6 दिन मे पूरा कर दिया.
दर्द का रंग पर हावी हौसला का रंग
मुंबई के स्लम अपनी तमाम मुश्किलों के बावजूद अपनी जिजीविषा के लिए भी जाने जाते हैं. धारावी हो या असल्फा, इन बस्तियों में रहने वाले लोगों को रोज कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. इसके बावजूद यहाँ कई ऐसे लोगों का बसेरा हैं जिन्होंने अपने परिश्रम और हौसले से अपने छोटे से घर को ही कारोबार का केंद्र बना दिया है. ऐसी ही एक महिला अर्चना बताती हैं कि वह बर्तन साफ करने के लिए स्क्रबर बनाने का कारखाना चलाती हैं. बस्ती की ही कई महिलाएं इस कारोबार से जुड़ कर आर्थिक लाभ अर्जित कर रही हैं. अर्चना कहती हैं, "बाहरी दीवारों को रंगने भर से कुछ नहीं होगा. महिलाओं में उत्साह का रंग और स्वालंबन का रंग भर दिया जाए, तो अधिकांश घरों से दुःख दर्द की छुट्टी हो जाएगी.”
असल्फा बस्ती में रहने वाले राजू फेरीवाला सौन्दर्यीकरण से ज्यादा खुश नहीं हैं. उनका कहना है, "मेट्रो से आने जाने वालों को खुबसूरत नज़ारा दिखाने के लिए यह सब किया गया है.” वह बताते हैं कि गलियों के अन्दर घुसने के बाद, सब पहले जैसा ही है. बस्ती के ही येवले मामा का मानना है, "रंग रोगन से बस्ती को कोई लाभ नहीं हुआ है, बस लोगों की जिज्ञासा बढ़ गयी है." लेकिन टेरेंस फरेरा कहते हैं कि इस प्रोजेक्ट का उद्देश्य भी बस्ती को पहचान दिलाना और फिर इसके बाद इसकी समस्याओं को सामने लाना है.
यूरोप के स्लम
तीन करोड़ से ज्यादा लोग यूरोप के शहरी स्लमों में रहते हैं. उनकी पहुंच अक्सर कम या न के बराबर पानी और बिजली तक होती है. इन झुग्गी बस्तियों में रहने वाले ज्यादातर लोग या तो अल्पसंख्यक हैं या फिर वित्तीय संकट से पीड़ित.
तस्वीर: DW
रोमा की हकीकत
अमीर पश्चिमी यूरोप के बीचों बीच हमें रोमा समुदाय की उस युवती से मिलने का मौका मिला जो झुग्गी बस्ती में रहती है. फ्रांस की राजधानी पेरिस के बाहरी क्षेत्र में बसी गंदी बस्ती में एलीना जैसे कई और रोमा समुदाय के लोग रहते हैं. यूरोप के स्लमों में कई रोमा लोग रहते हैं, यह यूरोप के सबसे गरीब समुदायों में से एक है. शिक्षा और रोजगार तक इनकी अक्सर पहुंच कम ही होती है.
तस्वीर: DW
कलंकित
ज्यादातर बस्तियां गैरकानूनी बनाई जाती हैं लेकिन कुछ ऐसे प्रयास का प्रतिनिधित्व करती हैं जिसमें अधिकारी लोगों को समायोजित करने की कोशिश करते हैं. यूरोपीय आयोग के एक शोध के मुताबिक चार में से एक ईयू नागरिक का कहना है कि अगर रोमा उनके पड़ोसी होंगे तो उन्हें रहने में असज महसूस होगा. शहरों के बाहर रहने वाले रोमा समुदाय को कभी भी हटाए जाने का डर होता है.
तस्वीर: Pablo Blazquez Dominguez/Getty Images
अमानवीय हालात
संयुक्त राष्ट्र "झुग्गी गृहस्थी" का वर्णन ऐसे करता है जिसमें लोगों का एक समूह एक ही छत के नीचे रहता है. जिनके पास बुरे मौसम से निपटने के लिए टिकाऊ आवास या रहने की पर्याप्त जगह या पानी की सुविधा या फिर पर्याप्त सफाई और सुरक्षित भूसंपत्ति नहीं है.
तस्वीर: AFP/Getty Images
धन कोई बाधा नहीं
हालांकि यूरोप को अक्सर धन और बेहतर आवास से जोड़ा जाता है लेकिन मलिन बस्तियां पूरे महाद्वीप में मौजूद हैं. फ्रांस से लेकर सर्बिया और तुर्की तक. यूरोप की सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती कनाडा रियल गलियाना मैड्रिड, स्पेन में है. 40 साल पहले स्थापित इस बस्ती में 30,000 लोग 16 किलोमीटर लंबी 75 मीटर चौड़ी पट्टी में रहते हैं.
तस्वीर: Pablo Blazquez Dominguez/Getty Images
स्लम मैपिंग
लेकिन यूरोप की सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती अफ्रीका के सबसे बड़े स्लम किबेरा की तुलना में कहीं छोटी है. केन्या की राजधानी नैरोबी में यह 20 गुना अधिक लोगों का घर है (6 लाख से 12 लाख). अधिकारियों ने किबेरा को "अनौपचारिक" घोषित कर रखा था. लंबे अर्से तक नक्शे पर किबेरा एक रिक्त स्थान था. 2009 के बाद नागरिकों ने इसे बदलने का काम शुरू किया. क्राउडसोर्सिंग की मदद से उन्होंने अपने घरों को नक्शे में लाया.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
कोई रास्ता नहीं
दुनिया के अन्य स्लमों की तुलना में यूरोप के स्लम कम वंचित है. कुछ अंतरों के अलावा सभी झुग्गियों में एक बात आम है, कामचलाऊ जीवन शैली. बेलग्रेड में एक ऐसी ही बस्ती में यह लड़का अपने पिता से अपने बाल बनवाता हुआ. शिक्षा तक पहुंच नहीं होने के कारण गरीबी से छुटकारा पाना उनके लिए बेहद कठिन है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
अप्रिय जिंदगी
यूरोप के स्लम न सिर्फ रोमा लोगों या फिर अन्य अल्पसंख्यकों के सदस्यों के घर हैं बल्कि स्पेन के वित्तीय संकट दौरान जो लोग किराया देने के सक्षम नहीं थे वे भी इन बस्तियों में जा बसे.