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चीन दुनिया का दोस्त बनना चाहता है या दादा?

मथियास फॉन हाइन
१० जून २०२१

दुनिया के तमाम लोकतांत्रिक देश प्रतिद्वन्द्वी हो गए हैं, खासकर चीन के. लेकिन जलवायु परिवर्तन और हथियारों पर नियंत्रण जैसे मामलों में मुकाबला नहीं सहयोग से काम बनेगा. इस साल की म्युनिख सिक्यॉरिटी रिपोर्ट पर एक रिपोर्ट...

Hongkong Gerichtsverfahren gegen Aktivisten
तस्वीर: Kin Cheung/AP/picture alliance

ताजा म्यूनिख सिक्योरिटी रिपोर्ट बड़े सही मौके पर आई है. सही क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन अपने पहले विदेश दौरे पर यूरोप आए हैं. वह इंग्लैंड में जी-7 की बैठक में हिस्सा लेने के बाद ब्रसेल्स में नाटो शिखर वार्ता के दौरान दुनिया के सबसे ताकतवर देशों के नेताओं से मुलाकात करेंगे. और उसके बाद जेनेवा में उनकी मुलाकात रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन से होगी. 

इस पृष्ठभूमि में म्यूनिख सुरक्षा रिपोर्ट अहम हो जाती है, जिसे शीर्षक दिया गया है – बिटविन स्टेट्स ऑफ मैटर - कॉम्पटिशन एंड कोऑपरेशन.

‘संघर्ष और सहयोग', यह शीर्षक 160 पेज की इस रिपोर्ट के मुख्य असमंजस को बयान करता है कि पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों को खासकर चीन से चुनौती मिल रही है. लेकिन उसी वक्त दोनों पक्षों को एक दूसरे की जरूरत भी है, न सिर्फ व्यापार में बल्कि दुनिया के सामने इस वक्त मौजूद सबसे बड़ी चुनौतियों से निपटने में भी. कोविड-19 महामारी ऐसी ही एक मिसाल है, जहां पूरी दुनिया के सहयोग की जरूरत है. फिर, जलवायु परिवर्तन और परमाणु हथियारों की होड़ जैसे मसले भी हैं. लेकिन चीन के इस वक्त बाकी बड़े देशों के साथ दो तरह के रिश्ते हैं. एक तरफ वह तगड़ा प्रतिद्वन्द्वी है तो दूसरी तरफ रणनीतिक साझीदार भी है.

चीन, एक चुनौती

राष्ट्रीय पूंजीवाद के सिद्धांत पर चलने वाली चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी ने वो हासिल कर लिया है, जो सोवियत संघ नहीं कर पाया था. एकाधिकारवादी शासन को आर्थिक प्रगति के साथ मिलाकर संपन्न होती जाती जनता. शायद इसीलिए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन को बार-बार कहना पड़ता है, "हमें मिलकर यह दिखाना होगा कि इस बदली दुनिया में लोकतंत्र अब भी लोगों की उम्मीदों पर खरा उतर सकता है.”

चीन ने साबित कर दिया है कि लगभग डेढ़ अरब की आबादी वाला देश जब चार दशक तक दो अंकों में आर्थिक प्रगति करता है तो फिर वह आर्थिक ताकत एक समय के बाद राजनीतिक और सैन्य ताकत में तब्दील होती ही है.

और चीन ने अपने लिए छोटे लक्ष्य तय नहीं किए हैं. 2049 में जब देश की सौवीं वर्षगांठ मनाई जाएगी तो चीन अपने आपको पूरी तरह से विकसित, आधुनिक और समाजवादी ताकत के रूप में देखना चाहता है. एक ऐसी ताकत जो फैसले ले सके, और तकनीकी, आर्थिक व सांस्कृतिक रूप से सर्वोच्च स्तरों पर हो. दूसरे शब्दों में, चीन सबसे बड़ी ताकत बनना चाहता है.

पश्चिमी एकता की जरूरत

म्यूनिख सिक्योरिटी रिपोर्ट के मुताबिक उदार लोकतंत्र अपने अनुदार प्रतिद्वन्द्वियों के खिलाफ एक निर्णायक रुख अपनाने को तैयार हैं. म्यूनिख सिक्यॉरिटी कॉन्फ्रेंस में नीति और विश्लेषण विभाग के अध्यक्ष टोबाएस बुंडे इस रिपोर्ट के लेखकों में से एक हैं. उन्होंने इस रिपोर्ट के छपने से पहले जो बाइडेन की कही एक बात का उल्लेख किया थाः "ट्रांसअलटांटिक नेता एक सहमति पर पहुंचते दिखते हैं कि साझे लक्ष्य हासिल करने के लिए दुनिया की मुख्य लोकतांत्रिक ताकतों के बीच सहयोग का मजबूत होना जरूरी है. जैसे कि राष्ट्रपति बाइडेन कहते हैं, हम एक मोड़ पर पहुंच चुके हैं और यहां से दुनिया के लोकतंत्रों को एक साथ आना ही होगा.”

हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर केंद्र

इस साल की रिपोर्ट में हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर खास ध्यान दिया गया है. और ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं है कि यह इलाका वैश्विक अर्थव्यवस्था का 60 प्रतिशत है और आर्थिक उन्नति के दो तिहाई के लिए जिम्मेदार है. म्यूनिख सिक्योरिटी रिपोर्ट कहती कि इस इलाके पर ध्यान इसलिए जरूरी है क्योंकि, रिपोर्ट की सह-लेखक सोफी आइजनट्राउट के शब्दों में, "अब तक बहुत से लोग इस बात से सहम हैं कि यह ऐसा क्षेत्र है जहां स्थिरता खतरे में है और आने वाले दशकों में अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का नीति-निर्धारण इसी क्षेत्र से होगा.”

यह बात व्यावहारिक राजनीति में नजर भी आ रही है. जून की शुरुआत में यूरोपीय संघ के विदेश मामलों के प्रतिनिधि योसेप बोरेल इंडोनेशिया के दौरे से लौटे हैं, जहां वह देश के रक्षा मंत्री प्राबोवो सुबिआंतो से मिले थे. जकार्ता की यात्रा के दौरान बोरेल ने आसियान-केंद्रित सुरक्षा ढांचे के साथ यूरोप के सहयोग की इच्छा जाहिर, खासकर समुद्री सुरक्षा को लेकर. उन्होंने कहा कि यूरोपीय संघ का हित इस क्षेत्र में नियम-आधारित व्यवस्था बनाए रखने में है और इसके लिए वह सहयोग भी कर सकते हैं.

हालांकि म्यूनिख सिक्यॉरिटी रिपोर्ट यूरोप से इससे ज्यादा की उम्मीद करती है. और बर्लिन ने तो इस दिशा में सधे हुए कदमों से चलना भी शुरू कर दिया है. मई के आखिर में जर्मनी की रक्षा मंत्री आनेग्रेट क्रैंप-कैरेनबावर दक्षिण कोरिया की यात्रा पर गई थीं. इस दौरे का मकसद प्रशांत महासागर में जर्मन युद्धपोत बायर्न की तैनाती की तैयारी था. इस दौरान वह गुआम स्थित अमेरिकी सैन्य बेस भी गईं. इस यात्रा से पहले मीडिया से बातचीत में उन्होंने कहा था कि जर्मनी समुद्री रास्तों पर चीन के खतरों के बारे में सिर्फ बात नहीं करना चाहता, बल्कि इस बारे में कुछ करने को भी तैयार है.

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