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राजनीतिम्यांमार

म्यामांरः क्या सेना को चुनौती दे पाएगा बिखरा हुआ विपक्ष?

२८ अप्रैल २०२३

फरवरी 2021 में सैन्य बगावत के बाद से, राजनीतिक विपक्ष ने प्रतिरोध का एक व्यापक गठबंधन बनाए रखने की कोशिश की है. लेकिन विपक्षी दलो में मतभेद और विवाद अब खुलकर सामने आने लगे हैं.

पीपुल्स डिफेंस फोर्सेस का सदस्य
पीपुल्स डिफेंस फोर्सेस का सदस्य तस्वीर: REUTERS

1948 में आजादी मिलने के बाद से ही एकता का सवाल म्यामांर की राजनीति के केंद्र में रहा है. बहुत सारी जातियों, अस्मिताओं और हितों की आबादी वाले दक्षिणपूर्वी एशियाई देश पर समावेशी ढंग से शासन कैसे किया जा सकता है?

देश जातीय आधार पर बंटा हुआ है. सबसे बड़ा जातीय समूह- बामर- राजनीति में प्रभुत्व रखता है. लेकिन समूचा देश इस समूह के नियंत्रण में कभी नहीं आ पाया. ज्यादातर सैन्यकर्मी और सेना के अफसर इसी जातीय समूह से आते हैं.

बामर जाति देश के मध्य भाग में निवास करती है. जबकि विभिन्न जातीय अल्पसंख्यक पारंपरिक रूप से बाहरी और किनारे के इलाकों में रहते आए हैं जो मैदानों को घोड़े की नाल के आकार में घेरे हुए हैं.

ये तमाम जातीय अल्पसंख्यक जमीन के विशाल भूभाग पर नियंत्रण रखते हैं.

एक विभाजित देश

पिछले 75 साल में कोई भी सरकार देश को एकीकृत नहीं कर पाई.

हाल के दिनों में, सेना और आंग सान सू ची की अगुवाई वाली नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) पार्टी की गठबंधन सरकार भी इस काम में नाकाम रही.

1 फरवरी 2021 को सेना ने बगावत कर दी और इस तरह सत्ता में भागीदारी की कोशिश विफल हो गई. आंग सान सू ची और उनके साथ बहुत से नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया.

इसकी परिणामस्वरूप जो संघर्ष और प्रतिरोध आंदोलन शुरू हुआ वो राष्ट्र की विफल एकता के रक्तरंजित इतिहास का एक सिलसिला ही है.

सैन्य तख्ता पलट के बाद से हजारों लोग मारे गए, हालांकि मरने वालों की सही संख्या उपलब्ध नहीं है. संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी आयोग (यूएनएचसीआर) के मुताबिक मार्च 2023 में करीब 17 लाख लोग विस्थापित हुए हैं.

एकजुट प्रतिरोध?

म्यांमार की आजादी से, सेना हमेशा प्रबल रही है. एक अहम कारण ये था कि सैन्य बल दशकों से अपनी आंतरिक एकजुटता बनाए रखने में सफल रहे और इस तरह विभाजित विपक्ष को बेअसर भी करते रह सके, हालांकि पूरी तरह से विपक्ष का सफाया सेना नहीं कर पाई.

2021 के तख्ता पलट के बाद, राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन हुए, खासकर बामर जाति समूह के गढ़ में. इससे उम्मीद बढ़ गई थी कि इस बार प्रतिरोध इतना एकजुट हो पाएगा कि सेना को हरा देगा.

सैन्य शासन को खारिज करने वाले बामर जाति समूह और विभिन्न जातीय अल्पसंख्यकों के बीच गठबंधन का लक्ष्य रखा गया था.

लेकिन चुनौती ये है कि विभिन्न विपक्षी धड़े असल में सिर्फ एक ही बिंदु पर सहमत हैं- वे सैन्य हुकूमत और उसके "अनुशासित लोकतंत्र" को खारिज करते हैं.

वरना तो उनके अपने अपने हित हैं और उनमें एक दूसरे के प्रति गहरा अविश्वास है.

इस अविश्वास को खत्म करने और एकता कायम करने के लिए अब एक नया नारा इन दिनों चल पड़ा है और वो हैः संघवाद.

तख्तापलट के बाद रद्द कर दिए गए 2020 के चुनावी नतीजों के आधार पर कमेटी रिप्रेसेन्टिंग पाइदांग्सु ह्लुत्ताऊ (सीआरपीएच) खुद को राष्ट्र की असली संसद के रूप में देखती है. सीआरपीएच ने बगावत के दो महीने बाद ही एक संघीय लोकतंत्र चार्टर का रोडमैप पेश कर दिया था.

अस्पष्ट ढांचे

इस रोडमैप के आधार पर, प्रतिरोध आंदोलन की अगुवाई के लिए छाया प्रशासन के रूप में एक राष्ट्रीय एकता सरकार (एनयूजी) का गठन किया जाना था.

सेना के खिलाफ हथियारबंद मुहिम छेड़ने के लिए पीपुल्स डिफेंस फोर्सेस (पीडीएफ) के नाम से जुंटा विरोधी मिलिशिया भी खड़ा किया गया था. हालांकि इनमें से कई पीडीएफ इकाइयां, एनयूजी के नियंत्रण में नहीं हैं.

इसके अलावा, ज्यादा ठोस ढंग से संघीय ढांचे की बारीकियों पर काम करने के लिए राष्ट्रीय परामर्शदात्री परिषद् (एनयूसीसी) की बैठक भी बुलाई गई थी. एनयूसीसी में सीआरपीएच और एनयूजी के अलावा, रसूखदार जातीय समूह, नागरिक बिरादरी के प्रतिनिधि और ट्रेड यूनियन के लोग शामिल हैं. लेकिन इस संस्था का सही और सटीक कम्पोजिशन सार्वजनिक तौर पर ज्ञात नहीं है.

नया संविधान ड्राफ्ट करने के दौरान, संविधान निर्माता समिति के प्रतिनिधित्व और जनादेश से जुड़े कई सवाल बने हुए हैं.

जनवरी 2022 में तथाकथित रूप से पहली जन सभा (पीपुल्स असेम्बली) के बाद एक प्रेस रिलीज जारी की गई थी जिसके मुताबिक "पांच श्रेणियों से 33 सदस्य संगठनों के साथ एनयूसीसी का गठन किया गया." लेकिन इसमें सदस्यों या श्रेणियों के बारे में विस्तार से कोई उल्लेख नहीं किया गया था.

प्रेस रिलीज के मुताबिक सदस्यों ने उस दौरान उपलब्ध चार्टर के संस्करण की पुष्टि कर दी थी.

संघवाद पर कोई समझौता नहीं

ये शुरू से स्पष्ट था कि सभी विपक्षी समूह प्रक्रिया से सहमत नहीं होंगे.

अक्टूबर 2021 में, कुछ जातीय समूहों ने एनयूसीसी से खुद को अलग कर लिया. एक जातीय समूह के प्रतिनिधि ने डीडब्लू को मार्च 2023 में बताया कि उन्हें क्रांति नजर नहीं आतीः "क्रांति का मतलब होगा कि आप वाकई कुछ नया बनाना चाहते हैं. लेकिन मैं तो बस यही देख रहा हूं कि ये लोग (एनयूजी और सीआरपीएच) बगावत से पहले के वक्त में ही लौट जाना चाहते हैं. ये क्रांति नहीं. सिर्फ प्रतिरोध है."

इस व्यक्ति की नजर में, बगावत से पहले के समय में लौटने का मतलब था, बामर जाति के वर्चस्व वाले राजनैतिक सिस्टम को बहाल करना जिसने दूसरे जातीय समूहों को हाशिए पर धकेल दिया था.

सिंगापुर में युसोफ इसहाक इन्स्टीट्यूट के लिए अपने एक विश्लेषण में सू मोन थाजिन औंग ने पाया कि कुछ भी हो, संघीय राजनीतिक प्रणाली का गठन एक दूरगामी प्रोजेक्ट है और इसका अंजाम भी अनिश्चित है. ये प्रक्रिया अभी रुकी हुई है.

नेतृत्व का अभाव

देश को एकजुट करने के लिए, संघीय सिस्टम का विकल्प हो सकता था- एक करिश्माई नेता. जैसा एक समय आंग सान सू ची रह चुकी थीं.

लेकिन अब ऐसी शख्सियत दूर दूर तक नहीं दिखती.

म्यामार और विदेश में रहने वाले दो दर्जन से ज्यादा जिन विशेषज्ञों, पत्रकारों और प्रेक्षकों से डीडब्लू ने बात की, वे सभी एक ही नतीजे पर पहुंचे थे- म्यांमार में प्रतिरोध को एकजुट रख सकने वाला कोई सर्वमान्य सर्वस्वीकृत नेता नहीं है.

नेतृत्व की कमी का मतलब ये है कि विभिन्न विपक्षी धड़े हमेशा एक साथ नहीं रह पाते और उनके अपने अंदरखाने भी विभाजन हैं.

उदाहरण के लिए, जब सैन्य सरकार ने अगस्त 2023 में चुनाव कराने का ऐलान किया तो म्यांमार में एनएलडी से कुछ आवाज़ें ऐसी थी जो उसमें भागीदारी करना चाहती थी लेकिन विदेश में मौजूद कुछ धड़ों ने विरोध किया. उनका कहना था कि ये सैन्य तख्ता पलट को वैधानिकता देने की तरह होगा.

आखिरकार, बहिष्कार का आह्वान करने वाले धड़े की ही चली.

विपक्षियों के बीच बिखराव का नतीजा आगामी रास्ते को लेकर अनिर्णय के रूप में दिखता है. डीडब्लू के म्यांमार में मौजूद कई वार्ताकारों का भी यही नजरिया था.

पिछले दो साल में, सैन्य शासन ने देश के प्रमुख शहरों और परिवहन संपर्कों पर अपना नियंत्रण कड़ा कर लिया है. लेकिन प्रतिरोधी गुट कई जगहों पर कड़ा मुकाबला करने में समर्थ रहे हैं, आबादी के बड़े हिस्सों का समर्थन उन्हें हासिल है. पहले ऐसा नहीं था. ताजा संघर्ष से सेना के नियंत्रण वाले भूभाग में कटौती हुई है, शाककर सागाइंग और मैगवे जैसे कड़े मुकाबले वाले राज्यों में.

मानवीय मदद और नयी सोच

इस पृष्ठभूमि में, लगता यही है कि ये संघर्ष एक लंबी अवधि वाले गृहयुद्ध में तब्दील हो जाएगा.

जानकारों ने डीडब्लू को बताया कि देश में मानवीय सहायता बनाए रखना और बढ़ाना बेहद जरूरी है, साथ ही साथ, शांति कायम करने के लिए नयी अवधारणाओं पर भी काम करते रहना होगा.

देशमें जारी लड़ाई और आर्थिक बदहाली की वजह से हिंसा, विस्थापन और गरीबी में तीव्र उछाल आया है. अप्रैल 2023 में विश्व बैंक के डाटा के मुताबिक करीब 40 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे बसर कर रही है. इसीलिए लोगों को आर्थिक सहायता पहुंचाना और भी ज्यादा जरूरी हो चला है.

डीडब्लू को इस दौरान एक और बात पता चली. एक नजरिया ये उभर कर आया कि म्यांमार की एकता या संघ कायम करने की बात को नहीं बढ़ाना चाहिए क्योंकि वो कभी वैसा था ही नहीं.

कुछ लोग कहते हैं कि अगर ब्रिटिश उपनिवेशकों का छोड़ा राष्ट्रीय भूभाग, आजादी के 70 साल से भी ज्यादा बीत जाने के बाद भी, आज तक एकीकृत नहीं हो पाया तो बेहतर यही होगा कि म्यांमार को, एकल राजनीतिक इकाई की तरह न देखते रहें बल्कि उसे अलग अलग जातीय समूहों की एक मुख्तलिफ इकाई के रूप में जानें. जब देश पर एकल प्रभुत्व कायम करने का सवाल ही नहीं रहेगा, तब शायद जातीय समूह शांति से रह पाएं.

रिपोर्टः मिषाएल केम्प

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