तख्तापलट के एक साल बाद अनिश्चित है म्यांमार का भविष्य
३१ जनवरी २०२२
एक साल पहले म्यांमार के सैनिक जनरलों ने शासन पर कब्जा कर लिया. म्यांमार में सेना और सैनिक तख्तापलट के विरोधी आमने सामने हैं. राष्ट्रव्यापी प्रदर्शनों ने देश पर उनका नियंत्रण नहीं होने दिया है. इरावदी की त्रासदी जारी है.
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म्यांमार में 1 फरवरी 2021 को तख्तापलट के बाद से हजारों लोग मारे गए हैं. उनमें प्रदर्शनकारियों के अलावा प्रतिरोध संघर्षकर्ता, सरकारी अधिकारी, सैनिक और नागरिक शामिल हैं. हालांकि, विश्वसनीय आंकड़े बामुश्किल उपलब्ध हैं.
सैन्य शासन का विरोध करने वाले मानवाधिकार संगठन "असिस्टेंस एसोसिएशन फॉर पॉलिटिकल प्रिजनर्स (बर्मा)" के अनुसार, तख्तापलट के सिलसिले में 1463 "नायकों" की जान गई (13.01.2022 तक). गैर सरकारी संगठन "द आर्म्ड कॉन्फ्लिक्ट लोकेशन एंड इवेंट डेटा प्रोजेक्ट" (एसीएलईडी) ने पिछले साल समाचार पत्रों के लेखों, गैर-सरकारी संगठनों और सोशल मीडिया की रिपोर्टों के आधार पर 11,000 से अधिक मौतें दर्ज कीं.
म्यांमार की हिंसा से भागे नागरिक बने भारत की परेशानी
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विश्व बैंक के अनुसार, देश के आर्थिक उत्पादन में 2021 में 18 प्रतिशत की गिरावट आई है. संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार, लगभग साढ़े तीन लाख लोग देश के अंदर ही विस्थापित हो गए. अधिक से अधिक पत्रकारों को मारा जा रहा है, कैद किया जा रहा है या वे देश छोड़ कर जा रहे हैं.
म्यांमार के विशेषज्ञ डेविड स्कॉट माथिसन ने बर्मी और अंग्रेजी मासिक समाचार पत्र "द इरावदी" के ऑनलाइन संस्करण के साथ एक साक्षात्कार में म्यांमार में हो रहे विकास के बारे में कहा, "मेरी राय में, मौजूदा स्थिति द्वितीय विश्व युद्ध के बाद म्यांमार को मिली आजादी के बाद से सबसे खराब है. असल में, सेना ने अपने ही लोगों के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी है."
प्रतिरोध के विविध रूप
पिछले दशकों के विपरीत, जब संघर्ष मुख्य रूप से बामार जाति बहुल सेना के जवानों और जातीय अल्पसंख्यकों के बीच हो रहा था, आज बर्मा के हार्टलैंड में भी भयंकर लड़ाई हो रही है, जैसे कि केंद्रीय बर्मी राज्य सागिंग में. लाखों लोगों के राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शनों के काफी हद तक विफल हो जाने के बाद सशस्त्र प्रतिरोध उत्पन्न हुआ.
सेना बड़े पैमाने पर बल के उपयोग के साथ लोगों को सड़कों से दूर करने में कामयाब रही, लेकिन इससे सैन्य जुंटा की अस्वीकृति को और बल मिला. हालांकि कोई गंभीर शोध नहीं हुआ है, फिर भी पर्यवेक्षक इस बात से सहमत हैं कि आबादी का एक बड़ा बहुमत सैनिक सरकार को अस्वीकार करता है. ये बात इससे भी पता चलती है कि सैन्य विशेषज्ञ एंथनी डेविस के अनुसार, देश भर में करीब लगभग 50 जनरक्षा टुकड़ियां बन गई हैं, जो हथियारबंद जातीय समूहों के समर्थन से, सैन्य कर्मियों, पुलिस अधिकारियों, कथित या वास्तविक मुखबिरों और सुरक्षा संस्थानों पर हमले करते हैं, और यहां तक कि सेना के साथ झड़पों में उलझाते हैं.
डेल्टा के असर से लेकर एक अनपेक्षित चुम्बन तक
म्यांमार में प्रदर्शनों और इंडोनेशिया में ऑक्सीजन के लिए संघर्ष से लेकर सिडनी की खाली सड़कों और एक विशेष किस तक, एक नजर इस हफ्ते की सबसे नाटकीय तस्वीरों पर.
तस्वीर: Zoonar/Max/picture alliance
म्यांमार में विरोध प्रदर्शन
म्यांमार में अशांति बरकरार है और राजधानी रंगून में फरवरी में हुए तख्तापलट के खिलाफ प्रदर्शन अभी भी जारी हैं. मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि सुरक्षाबलों ने 700 से भी ज्यादा लोगों को मार गिराया है. बीते शुक्रवार भी 25 लोगों को मार दिया गया.
तस्वीर: AP/picture alliance
इंडोनेशिया में ऑक्सीजन के लिए हताशा
इंडोनेशिया में कोविड-19 संक्रमण के मामले फिर बढ़ रहे हैं. अधिकांश मामलों के लिए वायरस का डेल्टा वेरिएंट जिम्मेदार है. मरीजों की बढ़ती हुई संख्या की वजह से अस्पतालों पर बहुत दबाव है. सरकार उत्पादकों को मेडिकल ऑक्सीजन बनाने को प्राथमिकता देने के लिए कह रही है.
तस्वीर: Dita Alangkara/AP Photo/picture alliance
सिडनी में सूनी पड़ी सड़कें
सिडनी इस समय कोविड-19 की रोकथाम करने के लिए लगाए गए लॉकडाउन के बीच में है. अभी तक औद्योगीकृत देशों में से ऑस्ट्रेलिया में ही संक्रमण के सबसे कम मामले सामने आए थे. लेकिन इस समय सिडनी में सरकारी एजेंसियां डेल्टा वेरिएंट से संबंधित कई नए मामलों के सामने आने से उत्पन्न हुई स्थिति से लड़ रही हैं.
तस्वीर: LOREN ELLIOTT/REUTERS
कान फिल्मोत्सव को मिला पहला अश्वेत निर्देशक
2020 में महामारी की वजह से स्थगित कर दिए जाने के बाद, कान फिल्मोत्सव इस साल आयोजित किया जा रहा है. फिल्मकार स्पाइक ली को इस साल जूरी का अध्यक्ष बनाया गया है. इस तस्वीर में ली एटलांटा में आयोजित किए गए एक मानवाधिकार फिल्मोत्सव में अपनी ही तस्वीर को निहार रहे हैं.
तस्वीर: Sean McNeil/Atlanta Journal-Constitution/picture alliance
एक विशेष चुम्बन
इस साल अंतरराष्ट्रीय किसिंग दिवस एलजीबीटीक्यू समुदायों के लोगों के अधिकारों के प्रति समर्पित रहा. महामारी भी इस दिवस को मनाने से लोगों को रोक नहीं पाई. (सोन्या एंजेलिका डाइयेन, क्लॉडिया डेन)
तस्वीर: Zoonar/Max/picture alliance
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मिलिशिया और नागरिक विरोध आंदोलन के अलावा, जातीय समूह और उनकी सेनाएं देश में सेना के विरोध में तीसरी ताकत बन कर उभरी है. ये लंबे समय से या तो स्वतंत्र या केंद्र सरकार के साथ संघर्ष में रहे हैं. अंतर्राष्ट्रीय संकट समूह की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, उनमें से कुछ सेना के विरोधियों को आश्रय और प्रशिक्षण प्रदान करते हैं, लेकिन अपने इलाकों में कमान अपने हाथों में रखने पर जोर देते हैं. रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि हालांकि कई हथियारबंद जातीय समूह सेना के दुश्मन हैं, लेकिन वे खुले तौर पर विपक्ष का समर्थन नहीं करते हैं क्योंकि संघर्ष का नतीजा निश्चित नहीं है.
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तीन परिदृश्य
देश में हालात कैसे विकसित होंगे, यह किसी को नहीं पता. तीन परिदृश्यों की कल्पना की जा सकती है: सेना हालात पर काबू पाने में कामयाब होगी, विपक्ष बढ़त हासिल कर लेगा, या गतिरोध जारी रहेगा. इन तीन में से किसी परिदृश्य का मतलब म्यांमार के लिए शांति और विकास का आना नहीं है.
यदि सेना ताकतवर हो, और कुछ जातीय अल्पसंख्यक क्षेत्रों के अपवाद के साथ देश के बड़े हिस्सों पर नियंत्रण हासिल कर ले और तख्तापलट के बाद किए गए वादे के अनुसार चुनाव करवा दे, फिर भी आबादी के एक बड़े हिस्से द्वारा सैनिक शासन की गहरी अस्वीकृति बनी रहेगी. सेना को स्थायी रूप से दमन और निगरानी के कदमों पर भरोसा करना होगा. उसकी स्थिति निकट भविष्य में मजबूत नहीं होगी. ऐसी परिस्थितियों में, आर्थिक और राजनीतिक विकास मुश्किल होगा.
यहां होती है अजगरों की पूजा
म्यांमार के एक मंदिर में दर्जनों की तादाद में अजगर घूमते नजर आते हैं. मंदिर में सांपों की मौजूदगी को पगोडा की "शक्ति का संकेत" माना जाता है. स्थानीय लोग इसे सांप वाला मंदिर कहते हैं.
तस्वीर: Getty Images/AFP/Y. Aung Thu
सांप वाला मंदिर
म्यांमार के यंगून शहर की एक झील के बीच बने इस मंदिर को अजगरों ने मशहूर कर दिया है. मंदिर के फर्श से लेकर खिड़कियों पर अजगर टंगे दिखते हैं. स्थानीय लोग इसे "सांप वाला मंदिर" कहने लगे हैं.
तस्वीर: Getty Images/AFP/Y. Aung Thu
एक ही मन्नत
मंदिर का नाम है बुंगदोग्योक पगोडा. मंदिर में रहने वाली सानदार थीरी कहती हैं, "लोगों का मानना है कि उनकी मन्नतें यहां पूरी हो जाती हैं." थीरी के मुताबकि, "नियम भी ऐसा है कि श्रद्धालु कोई एक मन्नत ही मांग सकते हैं, एक से ज्यादा इच्छा जाहिर करना अच्छा नहीं होता."
तस्वीर: Getty Images/AFP/Y. Aung Thu
प्रचलित मान्यता
यहां प्रचलित कहानियों के मुताबिक, एक बार गौतम बुद्ध एक पेड़ के नीचे ध्यान में बैठे थे. तभी बारिश होने लगी और उस वक्त एक अजगर ने अपने फन फैलाकर बुद्ध के सिर पर छत दी थी. स्थानीय लोग मानते हैं कि अगर वे मंदिर को सांप लाकर देंगे तो उन्हें पुण्य मिलेगा.
तस्वीर: Getty Images/AFP/Y. Aung Thu
शक्ति का सूचक
इस मंदिर के मुख्य कक्ष में बुद्ध की मूर्ति के पास पेड़ लगे हुए हैं. ये अजगर इन पेड़ों की शाखाओं पर झूलते रहते हैं, श्रद्धालु इन्हें देखकर इनकी पूजा करते हैं और सिर झुकाते हैं. यहां आने वाले लोगों को इन अजगरों से कोई डर नहीं लगता बल्कि कुछ लोग इनकी मौजूदगी को पगोडा की "शक्ति का संकेत" मानते हैं.
तस्वीर: Getty Images/AFP/Y. Aung Thu
पशुओं का महत्व
सांप के लिए नाग शब्द का भी प्रयोग किया जाता है. दक्षिणपूर्वी एशियाई देशों के मंदिरों में सांप को एक खास अहमियत दी जाती है. हिंदू और बौद्ध मंदिरों में सांप ही नहीं बल्कि कई अन्य पशुओं की भी पूजा होती है. इस मंदिर में लगे पत्थरों में सांप की आकृतियों को भी उकेरा गया है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/Y. Aung Thu
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यदि राष्ट्रीय एकता सरकार, निर्वाचित संसद और इसकी सशस्त्र शाखा (पीपल्स डिफेंस फोर्सेज, पीडीएफ) कामयाब रहती है, तो पहला खुला सवाल यह होगा कि विजेता सैन्य बलों के सदस्यों के साथ कैसे निपटते हैं. सैनिकों और उनके परिवारों, जो कुल मिलाकर लाखों की तादाद में हैं, को किस तरह मुख्यधारा में शामिल किया जाएगा. अन्यथा, नए मिलिशिया और सशस्त्र समूह उभर सकते हैं जो लगातार देश को अस्थिर करते रहेंगे.
देश के विघटन का भी खतरा है. आजादी के बाद से किसी भी समय केंद्र सरकार का पूरे राष्ट्रीय क्षेत्र पर नियंत्रण नहीं रहा है. तख्तापलट के बाद से, प्रांत और जातीय अल्पसंख्यक अपनी स्वायत्तता का और विस्तार करने या स्वतंत्र होने की तैयारी करने में लगे हैं. सेना के पतन और एक नई प्रणाली की स्थापना के बाद संक्रमण की अवधि को कुछ जातीय अल्पसंख्यक अवसर के रूप में देख रहे हैं.
कोई बहुत ताकतवर नहीं
हालांकि, विशेषज्ञों के अनुसार, म्यांमार में निकट भविष्य में किसी भी सैन्य समाधान की उम्मीद नहीं की जा सकती है. मिलिशिया के पास सैन्य उपकरणों, रणनीति और समन्वय की ही कमी नहीं है, कमांड की भी शुरुआती संरचना है. भूमिगत तौर पर काम करने वाली राष्ट्रीय एकता की सरकार को अभी तक दुनिया की किसी भी सरकार ने मान्यता नहीं दी है, और उसके पास वित्तीय संसाधनों की भी भारी कमी है. इसके अलावा, उसके ठिकाने बर्मी-थाई सीमा क्षेत्र और थाईलैंड में हैं और इसलिए वह जातीय अल्पसंख्यकों और थाईलैंड की सरकार की सद्भावना पर निर्भर है, जो खुद एक सैन्य विद्रोह से सत्ता में आई है।
21वीं सदी के तख्तापलट
म्यांमार फिर एक बार सैन्य तख्तापलट की वजह से सुर्खियों में है. 20वीं सदी का इतिहास तो सत्ता की खींचतान और तख्तापलट की घटनाओं से भरा हुआ है, लेकिन 21वीं सदी में भी कई देशों ने ताकत के दम पर रातों रात सत्ता बदलते देखी है.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/F. Vergara
म्यांमार
म्यांमार की सेना ने आंग सान सू ची को हिरासत में लेकर फिर एक बार देश की सत्ता की बाडगोर संभाली है. 2020 में हुए आम चुनावों में सू ची की एनएलडी पार्टी ने 83 प्रतिशत मतों के साथ भारी जीत हासिल की. लेकिन सेना ने चुनावों में धांधली का आरोप लगाया. देश में लोकतंत्र की उम्मीदें फिर दम तोड़ती दिख रही हैं.
तस्वीर: Sakchai Lalit/AP/picture alliance
माली
पश्चिमी अफ्रीकी देश माली में 18 अगस्त 2020 को सेना के कुछ गुटों ने बगावत कर दी. राष्ट्रपति इब्राहिम बोउबाखर कीटा समेत कई सरकारी अधिकारी हिरासत में ले लिए गए और सरकार को भंग कर दिया गया. 2020 के तख्तापलट के आठ साल पहले 2012 में माली ने एक और तख्तापलट झेला था.
तस्वीर: Reuters/M. Keita
मिस्र
2011 की क्रांति के बाद देश में हुए पहले स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के बाद राष्ट्रपति के तौर पर मोहम्मद मुर्सी ने सत्ता संभाली थी. लेकिन 2013 में सरकार विरोधी प्रदर्शनों का फायदा उठाकर देश के सेना प्रमुख जनरल अब्देल फतह अल सिसी ने सरकार का तख्तापलट कर सत्ता हथिया ली. तब से वही मिस्र के राष्ट्रपति हैं.
तस्वीर: Reuters
मॉरिटानिया
पश्चिमी अफ्रीकी देश मॉरिटानिया में 6 अगस्त 2008 को सेना ने राष्ट्रपति सिदी उल्द चेख अब्दल्लाही (तस्वीर में) को सत्ता से बेदखल कर देश की कमान अपने हाथ में ले ली. इससे ठीक तीन साल पहले भी देश ने एक तख्तापलट देखा था जब लंबे समय से सत्ता में रहे तानाशाह मोओया उल्द सिदअहमद ताया को सेना ने हटा दिया.
तस्वीर: Issouf Sanogo/AFP
गिनी
पश्चिमी अफ्रीकी देश गिनी में लंबे समय तक राष्ट्रपति रहे लांसाना कोंते की 2008 में मौत के बाद सेना ने सत्ता अपने हाथ में ले ली. कैप्टन मूसा दादिस कामरा (फोटो में) ने कहा कि वह नए राष्ट्रपति चुनाव होने तक दो साल के लिए सत्ता संभाल रहे हैं. वह अपनी बात कायम भी रहे और 2010 के चुनाव में अल्फा कोंडे के जीतने के बाद सत्ता से हट गए.
तस्वीर: AP
थाईलैंड
थाईलैंड में सेना ने 19 सितंबर 2006 को थकसिन शिनावात्रा की सरकार का तख्तापलट किया. 23 दिसंबर 2007 को देश में आम चुनाव हुए लेकिन शिनावात्रा की पार्टी को चुनावों में हिस्सा नहीं लेने दिया गया. लेकिन जनता में उनके लिए समर्थन था. 2001 में उनकी बहन इंगलक शिनावात्रा थाईलैंड की प्रधानमंत्री बनी. 2014 में फिर थाईलैंड में सेना ने तख्तापलट किया.
तस्वीर: AP
फिजी
दक्षिणी प्रशांत महासागर में बसे छोटे से देश फिजी ने बीते दो दशकों में कई बार तख्तापलट झेला है. आखिरी बार 2006 में ऐसा हुआ था. फिजी में रहने वाले मूल निवासियों और वहां जाकर बसे भारतीय मूल के लोगों के बीच सत्ता की खींचतान रहती है. धर्म भी एक अहम भूमिका अदा करता है.
तस्वीर: Getty Images/P. Walter
हैती
कैरेबियन देश हैती में फरवरी 2004 को हुए तख्तापलट ने देश को ऐसे राजनीतिक संकट में धकेल दिया जो कई हफ्तों तक चला. इसका नतीजा यह निकला कि राष्ट्रपति जाँ बेत्रां एरिस्टीड अपना दूसरा कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए और फिर राष्ट्रपति के तौर पर बोनीफेस अलेक्सांद्रे ने सत्ता संभाली.
तस्वीर: Erika SatelicesAFP/Getty Images
गिनी बिसाऊ
पश्चिमी अफ्रीकी देश गिनी बिसाऊ में 14 सितंबर 2003 को रक्तहीन तख्तापलट हुआ, जब जनरल वासीमो कोरेया सीब्रा ने राष्ट्रपति कुंबा लाले को सत्ता से बेदखल कर दिया. सीब्रा ने कहा कि लाले की सरकार देश के सामने मौजूद आर्थिक संकट, राजनीतिक अस्थिरता और बकाया वेतन को लेकर सेना में मौजूद असंतोष से नहीं निपट सकती है, इसलिए वे सत्ता संभाल रहे हैं.
तस्वीर: AFP/Getty Images
सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक
मार्च 2003 की बात है. मध्य अफ्रीकी देश सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक के राष्ट्रपति एंगे फेलिक्स पाटासे नाइजर के दौरे पर थे. लेकिन जनरल फ्रांसुआ बोजिजे ने संविधान को निलंबित कर सत्ता की बाडगोर अपने हाथ में ले ली. वापस लौटते हुए जब बागियों ने राष्ट्रपति पाटासे के विमान पर गोलियां दागने की कोशिश की तो उन्होंने पड़ोसी देश कैमरून का रुख किया.
तस्वीर: Camille Laffont/AFP/Getty Images
इक्वाडोर
लैटिन अमेरिकी देश इक्वोडोर में 21 जनवरी 2000 को राष्ट्रपति जमील माहौद का तख्लापलट हुआ और उपराष्ट्रपति गुस्तावो नोबोआ ने उनका स्थान लिया. सेना और राजनेताओं के गठजोड़ ने इस कार्रवाई को अंजाम दिया. लेकिन आखिरकर यह गठबंधन नाकाम रहा. वरिष्ठ सैन्य नेताओं ने उपराष्ट्रपति को राष्ट्रपति बनाने का विरोध किया और तख्तापलट करने के वाले कई नेता जेल भेजे गए.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/F. Vergara
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दूसरी ओर सेना इस बात से जूझ रही है कि लगभग पूरा देश उथल-पुथल में है और इसलिए अपनी ताकत को एकजुट नहीं कर सकती. सैन्य विशेषज्ञ डेविस के अनुसार, सेना का मनोबल पस्त है. आने वाले दिनों में, सेना को न केवल सामान्य जवानों की बल्कि अधिकारियों की भर्ती में भी समस्याएं हो सकती हैं. सैनिक प्रतिष्ठान से अब इतनी नफरत है कि बहुत कम लोग सेना में भर्ती होने के लिए तैयार हैं. दूसरी ओर, विपक्ष द्वारा कब्जावर समझी जाने वाली सेना, ब्रिटेन या जापान की तरह वापस कहीं नहीं जा सकती. इसलिए सैनिक प्रतिष्ठान अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है.
मानवीय मदद की जरूरत
इसलिए सबसे अधिक संभावित परिदृश्य एक स्थायी गतिरोध लगता है. इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप का भी निष्कर्ष यही है कि "निकट भविष्य में न तो सेना और न ही विपक्ष का पलड़ा भारी होगा, और इस संघर्ष के गहराने के गंभीर मानवीय नतीजे होंगे. दूसरे शब्दों में, कोई भी पक्ष नहीं जीतेगा, लेकिन पूरा देश और उसके लोग हारेंगे.
डीडब्ल्यू से बात करने वाले यांगून के एक निवासी के अनुसार, जो सुरक्षा कारणों से अपना नाम नहीं बताना चाहते, भयानक युद्ध के बाद अंततः कभी न कभी बातचीत होगी, भले ही इस समय इसकी कल्पना मुमकिन न हो. यदि दोनों पक्ष समझ जाएं कि वे जीत नहीं सकते हैं, जब देश को खूनखराबे और विनाशकारी आर्थिक क्षति का सामना करना पड़े, फिर बातचीत अनिवार्य हो जाएगी. और जबतक ये नहीं होता है, तब तक, देश को मानवीय सहायता की जरूरत होगी. और इसके साथ संयुक्त राष्ट्र, यूरोप और अमेरिका म्यांमार पर सबसे अधिक प्रभाव डाल सकेंगे.