क्या बौद्ध संत पढ़ाते हैं अहिंसा का पाठ?
१ नवम्बर २०१७म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों पर चरमपंथियों और सेना ने जिस तरह जुल्म किया है उसे सुन कर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं. सबसे ज्यादा सांसत में बच्चे हैं, जॉन ओवेन की इन तस्वीरों में देखिये.
अपहरण, बलात्कार झेलते, लावारिस होते रोहिंग्या बच्चे
म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों पर चरमपंथियों और सेना ने जिस तरह जुल्म किया है उसे सुन कर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं. सबसे ज्यादा सांसत में बच्चे हैं, जॉन ओवेन की इन तस्वीरों में देखिये.
गोली और चाकू मारा
अगस्त से लेकर अब तक 6 लाख से ज्यादा रोहिंग्या म्यांमार से भाग कर बांग्लादेश आए हैं. 10 साल के मोहम्मद बिलाल अपने गांव से भाग कर बांग्लादेश आए. वो कहते हैं, "सेना जिस दिन गांव आई, उसने गांव जला दिये, मेरी मां को गोली मार दी, वह भाग रही थी, मेरे पिता चल नहीं सकते थे, उन्हें चाकू मार दिया. मैंने अपनी आंखों से यह सब देखा."
तकलीफ पीछा नहीं छोड़ती
मोहम्मद की बहन नूर ने भी यह कत्लेआम देखा. वह और उसका भाई अब बांग्लादेश में लावारिस बच्चों के एक केंद्र में रहते हैं. यहां उसे नियमित खाना मिलता है और वह खेलती है. म्यांमार में उसे भूखा रहना पड़ता था. उसकी तुलना में अब हालात कुछ बेहतर हैं लेकिन उसने जो तकलीफ झेली वह उसे अब भी परेशान करती है. उसने कहा, "मुझे मेरे मां बाप, मेरा घर, मेरा देश याद आता है."
संकट की गहरी जड़ें
रोहिंग्या मुसलमानों का संकट पिछले दूसरे विश्व युद्ध के बाद करीब 70 सालों से चला आ रहा है. इस संकट में 2016 से अब तक 2000 लोगों की जान गई जिनमें 12 साल के रहमान की मां भी थी. रहमान कहते हैं, "उन्होंने मेरे घर जला दिये, मेरी मां बीमार थी इसलिए वह वहां से नहीं निकल सकी."
बच्चों को बचाओ
5 साल की दिलु आरा अपनी बहन रोजिना के साथ इस कैंप में आई. उसने अपने मां बाप को सेना के हाथों मरते देखा है. उसने बताया, "मैं रोये जा रही थी और गोलियां हमारे सिर के ऊपर से निकलीं, मैं किसी तरह बच गयी." अंतरराष्ट्रीय संगठन सेव द चिल्ड्रन कुटुपालोंग में उन बच्चों की मदद कर रहा है जो बिन मां बाप के यहां पहुंचते हैं. बांग्लादेश में रह रहे शरणार्थी बच्चों में 60 फीसदी रोहिंग्या हैं.
जानवरों की तरह शिकार
जादेद आलम उन सैकड़ों बच्चों में हैं जो कुटुपालोंग में बिना मां बाप के पहुंचे. उनकी खुशकिस्मती है कि उनकी चाची उनका ख्याल रखती हैं और बहुत अच्छे से. वह मंडी पाड़ा नाम के गांव में पले बढ़े और वह वहां फुटबॉल खेलते थे. सेना के हमले के बाद सब कुछ बदल गया. वो बताते हैं, "उन्होंने हमसे घर छोड़ने को कहा. जब मैं अपने मां बाप के साथ भाग रहा था उन्होंने उन्हें गोली मार दी, वो वहीं मर गये."
बच्चों का अपहरण
सभी परिवार के लोग इस संकट की वजह से ही नहीं बिछड़े. रहमान अली अपने 10 साल के बेटे जिफाद के गायब होने के बाद कई हफ्ते से इन कैंपों की खाक छान रहे हैं. कई सालों से बच्चों के अपहरण की अफवाहें कैम्प में उड़ती रही हैं और रहमान को डर है कि उनका बेटा भी मानव तस्करों के हाथ लग गया है. रहमान ने कहा, "ना मैं खा सकता हूं, ना सो सकता हूं, मैं इतना परेशान हूं कि लगता है पागल हो गया हूं."
"मेरा दिमाग ठीक नहीं है"
जब गोलीबारी शुरू हुई तो सोकिना खातून ने अपने बच्चों को बचाने के लिए जो भी मुमकिन था सब किया लेकिन वह 15 साल की यास्मिन और 20 साल की जमालिता को नहीं बचा सकीं, जो उस वक्त पड़ोस के गांव में थे. वो बताती हैं, "उनके दादा दादी के सामने उनका गला काट दिया गया, मैं तो सन्न रह गयी, मुझे दर्द महसूस नहीं होता. मेरा दिमाग ठीक नहीं है." सोकिना अपने 9 बच्चों को बचाने में कामयाब रही.
हमला, बलात्कार
यास्मिन को लगता है कि वह 15 साल की है लेकिन वह इससे कम उम्र की ही दिखती है. गांव में वह पत्थरों से खेलती थी और खेतों में भागा करती थी लेकिन अब उसे बस यही याद है कि म्यांमार की सेना ने हमला किया, उन्हें मारा, उनके पिता और भाइयों की हत्या की और सैनिकों के समूह ने बलात्कार किया. यास्मिन कहती है, "मैं अपने शरीर में बहुत तकलीफ महसूस करती हूं."