जलवायु सम्मेलन से पहले देशों ने पेश किए नए जलवायु लक्ष्य
२६ सितम्बर २०२५
न्यूयॉर्क में होने वाले संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन से पहले एक वरिष्ठ यूएन अधिकारी ने पत्रकारों से कहा, "पहले से कहीं ज्यादा अब दांव पर लगा है.” बीती गर्मियों में भारी बाढ़, सूखे और लगातार चले हीटवेव जैसी चरम मौसम घटनाओं ने देशों को झकझोर कर रख दिया.
यूएन अधिकारी ने आगे कहा कि जलवायु आपदा सब जगहों पर "तबाही मचा रही हैं.”
वैज्ञानिकों का मानना है कि इंसानों के कारण बढ़ता वैश्विक तापमान (ग्लोबल वार्मिंग) पृथ्वी की जलवायु में बदलाव ला रहा है, भविष्य में जिसके और भी बुरे असर देखने को मिल सकते हैं.
विश्व नेताओं ने जलवायु संकट से निपटने के लिए आपसी सहमति बनाई है कि औसत वैश्विक तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना होगा. जिसके लिए कोशिश करनी होगी कि यह 1.5 डिग्री सेल्सियस तक ही सीमित किया जा सके.
2015 के पेरिस समझौते के तहत यह समझौता किया गया था. जिसमें देशों ने हर पांच साल में अपनी प्रतिबद्धताओं को नवीनीकृत कर साझा करने का वादा किया था. जिसे एनडीसी (यानी राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान) कहा जाता है.
2035 के एनडीसी की समय सीमा इस साल के फरवरी तक ही थी लेकिन 195 देशों में से बहुत कम देशों ने ही उस तारीख तक अपनी रिपोर्ट जमा की थी. जिस कारण अब देशों पर दबाव बनाया जा रहा है कि वे इस हफ्ते तक अपनी प्रतिबद्धता सामने रखे.
पीछे रह गए ज्यादा प्रदूषण करने वाले देश
ब्राजील के बेलेम में होने वाले अंतरराष्ट्रीय सीओपी30 जलवायु शिखर सम्मेलन के शुरू होने में अब दो महीने से भी कम समय बचा है. लेकिन इस समय तक सिर्फ 50 देशों ने ही अपने जलवायु लक्ष्य जमा किए थे, जो कुल वैश्विक उत्सर्जन का केवल 24 फीसदी हिस्सा ही दर्शाते हैं.
एक तरफ चीन, यूरोपीय संघ और भारत जैसे बड़े प्रदूषण उत्सर्जक देशों ने अब तक अपने राष्ट्रीय लक्ष्य पेश नहीं किए हैं. वहीं दूसरी तरफ ऑस्ट्रेलिया और जापान जैसे कुछ देशों ने तो अपने घरेलू लक्ष्य भी तय कर लिए हैं. हालांकि, उन पर आरोप लगाए जा रहे है कि वे न ही तो ज्यादा महत्वाकांक्षी हैं और न ही अपना उचित योगदान दे रहे हैं.
ऐसे में उम्मीद की जा रही है कि चीन समेत कुछ अन्य देश जल्द ही अपने प्रस्ताव सामने लेकर आएंगे. इस हफ्ते न्यूयॉर्क में हुई संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक के दौरान यूएन जलवायु शिखर सम्मेलन में 100 से भी अधिक देशों ने बोलने के लिए पंजीकरण किया है.
इसमें अब सवाल यह उठता है कि देश कौन से वादे कर रहे हैं? और इनका वैश्विक तापमान वृद्धि पर क्या असर पड़ेगा?
यूरोपीय संघ बनेगा जलवायु नेतृत्वकर्ता?
सीमाओं पर संघर्ष, कुछ सदस्य देशों की आर्थिक दिक्कतें और राजनीति में दक्षिणपंथ की ओर बढ़ते झुकाव जैसी परिस्थितियों ने यूरोपीय संघ के 27 सदस्यीय देशों के लिए जलवायु संकट पर एकजुट होकर प्रतिक्रिया देना मुश्किल बना दिया है.
जलवायु शिखर सम्मेलन से कुछ ही दिन पहले ईयू ने संकेत दिया कि वह सीओपी30 की ब्राजीलियाई अध्यक्षता द्वारा तय सितंबर अंत की समय सीमा तक अपना एनडीसी (राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान) तो पेश नहीं कर पाएगा. लेकिन इसके बजाय उसने अपने इरादे का एक दस्तावेज जारी किया.
जिसमें ईयू की प्रतिबद्धता को दर्शाया गया कि वह नवंबर में होने वाले सम्मेलन से पहले अपना जलवायु लक्ष्य पेश करेगा, जिसमें 1990 के स्तर की तुलना में 2035 तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को 66.25 से 72.5 फीसदी तक घटाने का संकल्प होगा.
वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट में यूरोप क्षेत्र की निदेशक, स्टिएंटे फान फेल्डहोवन ने कहा कि यह बयान "प्रगति की गुंजाइश” तो दर्शाता है, लेकिन इससे "गलत संदेश जाने, निवेशकों के भरोसे को नुकसान पहुंचने और नौकरियों, ऊर्जा सुरक्षा और प्रतिस्पर्धा पर गलत असर पड़ने” का खतरा भी बढ़ता है.
2040 तक यूरोपीय संघ के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को 90 फीसदी तक घटाने का प्रस्ताव काफी समय से चर्चा में रहा है लेकिन अभी भी इस पर सभी सदस्य देशों की सहमति नहीं बन पाई है. विशेषज्ञों का मानना है कि 2035 का लक्ष्य इस पर सीधा असर डाल सकता है.
फान फेल्डहोवन ने आगे कहा, "रास्ता बहुत मायने रखता है. अगर ईयू निचली सीमा यानी 66.3 फीसदी पर ही रुक जाता है, तो पांच साल बाद 90 फीसदी तक पहुंच पाना बेहद कठिन होगा. यह निवेशकों और कंपनियों को आवश्यक नीतिगत भरोसा नहीं दे पायेगा.”
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हरित ऊर्जा का दिग्गज चीन
दुनिया का सबसे बड़ा उत्सर्जक चीन, जो कि कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का लगभग एक तिहाई हिस्सा पैदा करता है. उस पर दबाव है कि वह घरेलू उत्सर्जन को घटाने का लक्ष्य पेश करे.
लेकिन यूरोपीय संघ की तरफ से उचित लक्ष्य का अभाव और अमेरिका का पेरिस समझौते से पीछे हट जाने के कारण विशेषज्ञों का मानना है कि चीन के लिए एक उच्च महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय कर पाना मुश्किल हो सकता है.
एशिया सोसाइटी पॉलिसी इंस्टीट्यूट के चीन क्लाइमेट हब के निदेशक ली शुओ ने कहा, "मुझे इसमें कोई शक नहीं कि चीन की निर्णय प्रक्रिया में अमेरिका और यूरोप की स्थिति का असर भी शामिल होगा. जो कि उच्च महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय करने में चुनौती पेश कर सकता है.”
हालांकि, इन सबके बीच अच्छी खबर यह है कि चीन अपने उत्सर्जन की चरम बिंदु तक या तो पहुंच चुका है या तो जल्द ही पहुंच जाएगा. जिसका अर्थ यह हुआ कि अब केवल घटाव की दिशा ही बची है.
विशेषज्ञों की नजर इस पर है कि सबसे बड़ा उत्सर्जक क्या वादा करता है. ऐसे में यदि लक्ष्य निचली सीमा पर भी रहता है, तो भी उसे पूरे किया जाने की संभावना बढ़ जाती है.
क्लाइमेट एनालिटिक्स की वरिष्ठ जलवायु नीति विश्लेषक सोफिया गोंजालेज-जुनिगा ने कहा, "चीन जब भी कोई लक्ष्य पेश करेगा, तो वह वास्तव में उसे पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध होगा. जिस कारण संभावना है कि उसका लक्ष्य अधिक महत्वाकांक्षी न हो, लेकिन हम यह मान कर चल रहे हैं कि वह जो भी वादा करेंगे, उसे जरूर पूरा करेंगे.”
ग्लोबल एनर्जी थिंक टैंक एम्बर के अनुसार चीन दुनिया का सबसे बड़ा हरित ऊर्जा निवेशक है. केवल 2024 में ही उसका निवेश लगभग 625 अरब डॉलर तक पहुंच गया था. ली शुओ का मानना है कि यह स्थिति हाल-फिलहाल में तो बदलने वाली नहीं है.
प्रकाशन के समय तक चीन ने अपना एनडीसी (राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान) पेश नहीं किया था. हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि वे जलवायु शिखर सम्मेलन के दौरान देश के लक्ष्यों के बारे में सुनने की उम्मीद कर रहे हैं.
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ब्राजील: मेजबान की चुनौती
सीओपी30 जलवायु सम्मेलन का मेजबान, ब्राजील अपने घरेलू लक्ष्यों को लेकर निगरानी के दायरे में आ गया है.
देश की योजना 2035 तक 2005 के स्तर की तुलना में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को 59–67 फीसदी तक घटाने की है, जिसे विशेषज्ञों ने आलोचना का विषय बताया है. उनका कहना है कि यह रेंज अस्थिरता पैदा करती है और जवाबदेही को कमजोर करती है.
ब्राजील पर विशेष रूप से अमेजन नदी के मुहाने के आसपास तेल की खोज बढ़ाने की योजनाओं को लेकर भी आलोचना हो रही है.
हालांकि, क्लाइमेट एनालिटिक्स की सोफिया गोंजालेज-जुनिगा के अनुसार, हाल ही में प्रकाशित ब्राजील की राष्ट्रीय उत्सर्जन घटाने की रणनीति ने काफी हद तक स्पष्टता दी है क्योंकि इसमें कृषि और वनों की कटाई जैसे विशिष्ट क्षेत्रों में कटौती को स्पष्ट रूप से बताया गया है, जो कि देश के कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का लगभग तीन-चौथाई हिस्सा भी हैं.
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यूनाइटेड किंगडम: असली दोषी
ग्रेट ब्रिटेन ऐसा पहला देश था, जिसने औद्योगिक क्रांति की शुरुआत की थी. ऐसी एक ऐतिहासिक अवधि जो 1700 के मध्य से शुरू हुई थी, जब औद्योगिक प्रक्रियाओं को चलाने के लिए पहली बार जीवाश्म ईंधन जलाने की शुरुआत की गई थी.
कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि कुल उत्सर्जन के हिसाब से अमेरिका, यूरोपीय संघ के देशों और चीन के बाद यूनाइटेड किंगडम पर अपनी उत्सर्जन जल्दी घटाने की विशेष जिम्मेदारी है.
ब्रिटिश सरकार ने अपने एनडीसी को समय पर जमा करने के साथ-साथ 1990 के स्तर की तुलना में अपने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को 81 फीसदी तक घटाने का वादा भी किया है.
सोफिया गोंजालेज-जुनिगा ने कहा, "उन्होंने ऐसा लक्ष्य तय किया है, जो उनके घरेलू उत्सर्जन कटौती के लिहाज से 1.5-डिग्री के अनुरूप है. यह देखना वास्तव में काफी सकारात्मक था.” उन्होंने यह भी कहा कि 2030 के लक्ष्यों की तुलना में यह "साफ तौर पर एक बड़ी वृद्धि” है.
हालांकि, यह इतना सरल भी नहीं है. यूके को अब भी अपने वादों और नीतियों के बीच का अंतर पार करना बाकी है, जिन्हें लागू करना इन वादों की पूर्ति के लिए जरूरी है.
इसके अलावा कार्बन एक्शन ट्रैकर वेबसाइट के अनुसार, यूके की जिम्मेदारी केवल घरेलू कटौती तक ही सीमित नहीं है.
गोंजालेज-जुनिगा ने कहा, "विकासशील देशों को उत्सर्जन घटाने के लिए जलवायु वित्त प्रदान करने की जिम्मेदारी भी उन पर है, ताकि वह दावा कर सकें कि उत्सर्जन घटाने के लिए वह निष्पक्ष तरीके से योगदान दे रहे हैं.”
इंडोनेशिया: जीवाश्म ईंधन से मुक्ति पाने की राह पर
विशेषज्ञों का कहना है कि ग्लोबल साउथ में एक बड़ा उत्सर्जक होने के नाते इंडोनेशिया के जलवायु लक्ष्य पर नजर रखना भी जरूरी है.
उनका उत्सर्जन मुख्य रूप से जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता और व्यापक वनों की कटाई से होता है और यह द्वीपीय राष्ट्र दुनिया के कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के तीन फीसदी से भी अधिक उत्सर्जन उत्पन्न करता है. लेकिन अब यह स्थिति बदल सकती है.
वहां के राष्ट्रपति प्राबोवो सुबियांतो ने अगले 15 साल में जीवाश्म ईंधन और कोयला आधारित पावर प्लांट को समाप्त करने का वादा किया है और 2050 तक शून्य उत्सर्जन (यानी नेट जीरो) तक पहुंचने का लक्ष्य रखा है, जो कि पहले की योजना की तुलना में पूरा एक दशक पहले है.
हालांकि, उन्होंने भी अभी तक अपने नए घरेलू लक्ष्य (एनडीसी) प्रस्तुत नहीं किए हैं.
संयुक्त राज्य अमेरिका: भाग निकलने वाला देश
पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति, जो बाइडेन ने पिछले साल संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए जलवायु लक्ष्य प्रस्तुत किया था, जिसमें 2035 तक 2005 के स्तर की तुलना में कार्बन उत्सर्जन को 61–66 फीसदी तक घटाने का वादा किया गया था.
हालांकि, इसके बाद राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने अमेरिका को पेरिस समझौते से वापस खींच लिया. जिससे यह प्रतिबद्धता रद्द हो गई. हाल ही में जारी एक रिपोर्ट में विशेषज्ञों ने कहा है कि देश में "हाल के समय में ऊर्जा और जलवायु नीति में अचानक बदलाव” देखा गया है.
हालांकि, नीति में अचानक आए इस बदलाव के बावजूद भी अमेरिका 2035 तक अपने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को 26–35 फीसदी तक ही घटाने की राह पर आगे बढ़ा है.
पेरिस समझौते के बारे में बात करते हुए सोफिया ने कहा कि इससे कुछ सफलता जरूर मिली है क्योंकि इस शताब्दी के अंत तक अनुमानित तापमान वृद्धि कुछ कम हुई है.
जिसके साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ा, "हम हमेशा इस बात पर जोर देते रहे हैं कि अभी भी यह 1.5 डिग्री के वास्तविक लक्ष्य के अनुरूप नहीं है. जिस कारण अभी भी इस उत्सर्जन लक्ष्य के अंतर को पाटना बाकी है.”