कार्बन डाई ऑक्साइड से भी खतरनाक है नाइट्रस ऑक्साइड
१२ जून २०२४
बेहद खतरनाक ग्रीनहाउस गैस नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन इतनी तेजी से बढ़ रहा है कि जलवायु परिवर्तन को लेकर तय किए गए लक्ष्यों को खतरे में डाल सकता है.
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एक अध्ययन में वैज्ञानिकों ने पाया है कि दुनियाभर में नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन तेजी से बढ़ रहा है. बुधवार को प्रकाशित हुए इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने कहा है कि जिस स्तर पर नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन बढ़ा है, उससे ग्लोबल वॉर्मिंग कम करने के लिए तय किए गए लक्ष्य भी खतरे में हैं.
वैज्ञानिकों ने दुनियाभर में पर्यावरण के करोड़ों आंकड़ों के विश्लेषण के बाद यह शोध पत्र लिखा है. इन आंकड़ों में नाइट्रस ऑक्साइड के उत्सर्जन में स्पष्ट और भारी वृद्धि दर्ज की गई. विशेषज्ञ कहते हैं कि मुख्य तौर पर खेती-किसानी की गतिविधियों से पैदा होने वाली इस गैस का उत्सर्जन रोकने के लिए बहुत कम कोशिशें की जा रही हैं.
नेपाल: जलवायु परिवर्तन से शहद खोजने वालों की परंपरा को खतरा
जलवायु परिवर्तन के कारण मधुमक्खियों की संख्या घट रही है, इसलिए शहद कम इकट्ठा हो रहा है. नेपाल में दूरदराज के गांवों में शहद खोजने वालों की आय भी घट रही है.
तस्वीर: Navesh Chitrakar/Reuters
खतरे में शहद खोजने की परंपरा
नेपाल के लामजंग जिले के ताप गांव में शहद इकट्ठा करने वाले ये लोग बहुत ही सावधानी के साथ मधुमक्खी के छत्ते को काटकर शहद निकाल रहे हैं. पहाड़ी पर टंगा यह छत्ता काफी ऊंचाई पर है. शहद निकालने वाले लकड़ी पर एक ब्लेड लगाकर छत्ते को काटते हैं. यहां से निकले शहद को "मैड हनी" के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि इसमें नशीला गुण होता है. लेकिन शहद खोजने वालों की यह परंपरा अब खतरे में है.
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जलवायु परिवर्तन का असर
शोध से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन दुनिया भर में मधुमक्खियों और फूलों की आबादी को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रहा है. नेपाल में इसका असर साफ नजर आता है. यहां पीढ़ियों से तिब्बती मूल के गुरुंग समुदाय के लोग शहद के लिए हिमालय की खड़ी चट्टानों को छान रहे हैं. उनका कहना है कि हर साल शहद की मात्रा कम होती जा रही है.
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मधुमक्खियों से बचकर
पहाड़ियों पर रहने वाली मधुमक्खियों से खुद को बचाने के लिए समूह के पुरुष बाखू पहनते हैं. यह एक तरह का स्कार्फ या पोंचो होता है, जिसे गांव की महिलाएं भेड़ के ऊन से बनाती हैं. शहद की तलाश करने वाले एक व्यक्ति ने कहा, "पिछले साल करीब 35 छत्ते थे.अब हमारे पास मुश्किल से 15 बचे हैं." उसने बताया कि दस साल पहले लोगों ने करीब 600 किलोग्राम शहद इकट्ठा किया था, आज वे केवल 100 किलोग्राम ही इकट्ठा कर पाते हैं.
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खतरनाक काम
यह काम पूरी तरह से खतरे से खाली नहीं है. बांस को लंबी, पतली पट्टियों में काटा जाता है और सीढ़ी बनाई जाती है जिस पर शहद के शिकारी खतरनाक ऊंचाइयों से लटकते हैं. 40 साल के आइता प्रसाद गुरुंग ने कहा, "इसमें गिरने का खतरा रहता है."
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बलि और माफी
हर शिकार यात्रा से पहले, शिकारी सुरक्षा के लिए प्रार्थना करने के लिए लगभग एक घंटे तक चलने वाला अनुष्ठान करते हैं. वे ईश्वर का आशीर्वाद मांगते हैं और मधुमक्खियों से कुछ लेने के लिए माफी मांगते हैं. उदाहरण के लिए वे प्रायश्चित करने के लिए मुर्गे की बलि देते हैं और उपहार के रूप में अंडे या चावल भी चढ़ाते हैं.
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मधुमक्खियों को भगाने का तरीका
ये लोग मधुमक्खियों को उनके छत्ते से भगाने के लिए पत्तियां और टहनियां जलाते हैं. हालांकि शहद के शिकारी अनुभवी होते हैं, फिर भी वे मधुमक्खियों के डंक के प्रति संवेदनशील होते हैं.
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खतरे से भरा पेशा
18 साल के बसंत गुरुंग को मधुमक्खियों ने काट लिया था. मधुमक्खी के डंक के कारण वे बेहोश हो गए और उनको सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया गया. हालांकि शहद जमा करने वाले खुद को मधुमक्खी के हमले से बचाने के लिए जालीदार टोपियों या मोटे जालीदार प्लास्टिक बैग का सहारा लेते हैं. लेकिन उनके पास बचाव के पूरे इंतजाम नहीं है.
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नाजुक जीवन
जलवायु परिवर्तन मधुमक्खियों के लिए समस्याएं पैदा कर रहा है. पिछले 10 सालों में अनियमित मौसम की स्थिति ने पूरे नेपाल में फूलों के मौसम को बाधित किया है. नेपाल के कृषि विश्वविद्यालय में कीट विज्ञान के प्रोफेसर सुंदर तिवारी कहते हैं, "उच्च और निम्न तापमान दोनों ही मधुमक्खियों के लिए समस्या हैं. वे बहुत आसानी से मर जाती हैं."
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नाइट्रस ऑक्साइड पृथ्वी के वातावरण को कार्बन डाई ऑक्साइड से 300 गुना ज्यादा गर्म करती है और एक बार वातावरण में पहुंचने पर यह एक सदी से भी ज्यादा समय तक मौजूद रह सकती है.
चार दशक में बढ़ा 40 फीसदी उत्सर्जन
58 अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों के अध्ययन पर आधारित रिपोर्ट ‘ग्लोबल नाइट्रस ऑक्साइड बजट' में कहा गया है कि 2020 तक के चार दशकों में इस गैस का उत्सर्जन 40 फीसदी बढ़ चुका था. नतीजतन 2022 तक वातावरण में नाइट्रस ऑक्साइड की मात्रा 336 अंश प्रति अरब पहुंच गई थी, जो ओद्यौगिक क्रांति के पहले के स्तर से 25 फीसदी ज्यादा है.
मुख्य शोधकर्ता, बोस्टन कॉलेज के हानकिन तियान कहते हैं कि संयुक्त राष्ट्र के जलवायु वैज्ञानिकों की समिति, आईपीसीसी के बताए स्तर से यह मात्रा कहीं ज्यादा है. तियान कहते हैं कि अगर पेरिस समझौते के लक्ष्यों के तहत ग्लोबल वॉर्मिंग रोकने के 2 डिग्री सेल्सियस को हासिल करना है तो नाइट्रस ऑक्साइड के उत्सर्जन को रोकना होगा.
तितलियां मिटेंगी तो इंसान भी नहीं बचेगा
लैटिन अमेरिकी देश इक्वाडोर में स्थित अमेजन के जंगलों में रिसर्चरों की एक टीम तितलियों के व्यवहार का अध्ययन कर रही है. वे कीड़ों की आबादी पर जलवायु परिवर्तन का जैसा असर देख रहे हैं, बहुत चिंताजनक है.
तस्वीर: RODRIGO BUENDIA/AFP
बायोइंडिकेटर तितली
इक्वाडोर के अमेजन जंगल में कुयाबेनो वाइल्डलाइफ रिजर्व अपनी समृद्ध वनस्पतियों और जीवों के लिए प्रसिद्ध है. अगस्त 2023 से जीव वैज्ञानिकों और रेन्जर्स की एक टीम पार्क में तितली की आबादी की निगरानी कर रही है. ऐसा इसलिए है क्योंकि तितलियां तथाकथित बायोइंडिकेटर होती हैं. यह शब्द उन जीवों के लिए इस्तेमाल किया जाता है जिनकी सलामती उनके आसपास के ईकोसिस्टम की सेहत के बारे में संकेत देती है.
तस्वीर: DANIEL MUNOZ/AFP
बदबूदार जाल
अपनी स्टडी के लिए रिसर्चर एक तितली को पकड़ना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने सड़ी हुई मछली और सड़े हुये केले से बना चारा देकर तितली को आकर्षित किया. ऐसा बदबूदार मिश्रण कीड़ों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन जैसा होता है. इसकी गंझ से वे खिंचे चले आते हैं और फिर शोधकर्ता उन कीड़ों को जाल से पकड़ पाते हैं.
तस्वीर: DANIEL MUNOZ/AFP
सावधानीपूर्वक जांच
अध्ययन का नेतृत्व कर रही एलिसा लेवी (दाएं) की टीम पकड़ी गई तितलियों की जांच करती है. शोधकर्ता चिमटी से कीड़ों को उनके छोटे पेट से सावधानीपूर्वक पकड़ते हैं और उनके पंखों पर लेबल लगाते हैं. डॉक्यूमेंटेशन के बाद, अधिकांश तितलियों को छोड़ दिया जाता है.
तस्वीर: DANIEL MUNOZ/AFP
छोटा देश, बड़ी विविधता
शोधकर्ता विभिन्न प्रकार की तितलियों का अध्ययन कर रहे हैं. कुछ चमकीले लाल और नीले रंग के हैं, जबकि इस नमूने पर जेब्रा की धारियों जैसा पैटर्न है. अन्य तितलियां कांच की तरह पारदर्शी होती हैं. इक्वाडोर भले ही छोटा हो लेकिन यह एक अत्यंत प्रजाति-समृद्ध देश है, जो लगभग 4,000 तितली प्रजातियों का घर है.
तस्वीर: DANIEL MUNOZ/AFP
एक नाजुक संतुलन
लेवी ने समाचार एजेंसी एएफपी को बताया कि उष्णकटिबंधीय पौधे - अलग-अलग मौसम वाले क्षेत्रों के पौधों के उलट - मौसम में अत्यधिक बदलाव के आदी नहीं हैं. यदि वे तेजी से बदलती जलवायु के अनुकूल ढलने में असफल रहते हैं, तो ये पौधे नष्ट हो सकते हैं, और साथ ही इस तरह के तितलियों के लार्वा भी नष्ट हो जाते हैं जो उन्हें खाते हैं.
तस्वीर: DANIEL MUNOZ/AFP
खतरे में विविधता
और यहां बिलकुल वही होता हुआ देखा जा रहा है. शोधकर्ताओं ने पाया है कि केवल कुयाबेनो वाइल्डलाइफ रिजर्व में ही प्रजातियों की संख्या में करीब 10 फीसदी की कमी आई है. वहीं, तितलियों की कुल संख्या में 40 से 50 फीसदी की कमी आ गयी है.
तस्वीर: DANIEL MUNOZ/AFP
चिंताजनक गिरावट
राजधानी क्विटो में कैथोलिक विश्वविद्यालय की जीवविज्ञानी मारिया फर्नांडा चेका इस गिरावट को "बहुत महत्वपूर्ण" बताती हैं. अंडे से लेकर कैटरपिलर और वयस्क होने तक के अपने छोटे से जीवनकाल में तितलियां ईकोसिस्टम में होने वाले छोटे-छोटे बदलावों पर भी बहुत संवेदनशील तरीके से प्रतिक्रिया देती हैं. चेका ने कहा, "यह गिरावट कुछ ऐसी है जो हमें चिंतित करती है."
तस्वीर: RODRIGO BUENDIA/AFP
अपनी तरह का आखिरी
चेका कहती हैं कि "अमेजन क्षेत्र के कुछ हिस्सों में, प्रजातियों की खोज की दर विलुप्त होने की दर से धीमी है." संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी है कि 40 फीसदी अकशेरुकी परागण कर्ता - विशेष रूप से मधुमक्खियां और तितलियां - वैश्विक स्तर पर विलुप्त होने का जोखिम उठाते हैं, तो उससे खुद मानवता के लिए जोखिम पैदा होते हैं. कारण ये कि दुनिया में तीन-चौथाई फल और बीज की फसलें ऐसे ही परागणकर्ताओं पर निर्भर हैं.
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उन्होंने कहा, "नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन कम करना ही एकमात्र समाधान है क्योंकि फिलहाल ऐसी कोई तकनीक उपलब्ध नहीं है जो वातावरण से इस गैस को हटा सके.”
लाफिंग गैस
नाइट्रस ऑक्साइड जिसे लाफिंग गैस भी कहा जाता है, कार्बन डाई ऑक्साइड और मीथेन के अलावा तीसरी प्रमुख ग्रीनहाउस गैस है, जो इंसानी गतिविधियों से पैदा होती है और जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार है. यह मिट्टी, पानी और हवा को भी प्रदूषित करती है. साथ ही यह ओजोन की परत को भी नुकसान पहुंचाती है.
तियान कहते हैं, "अगर हमें जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करना है तो ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में तेजी से कमी कर उन्हें शून्य तक पहुंचाया जाना चाहिए. ऐसे में नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन बढ़ रहा है.”
इस गैस के उत्सर्जन में सबसे बड़ी भूमिका कृषि क्षेत्र की है. रिपोर्ट कहती है कि 2011 से 2020 के दस साल में मानवीय गतिविधियों से निकली नाइट्रस ऑक्साइड कुल उत्सर्जन का तीन चौथाई थी. इसके बाद जीवाश्म ईंधन, कूड़ा, गंदा पानी और बायोमास जलाने जैसे स्रोत हैं.
1980 से 2020 के बीच नाइट्रस ऑक्साइड के उत्सर्जन में 67 फीसदी की वृद्धि हुई है, जिसका मुख्य स्रोत नाइट्रोजन आधारित खाद और जानवरों से निकलने वाले अपशिष्ट हैं.
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चीन और भारत सबसे बड़े उत्सर्जक
एक अन्य शोधकर्ता ऑस्ट्रेलिया की राष्ट्रीय विज्ञान एजेंसी सीएसआईआरओ की वैज्ञानिक पेप कैनाडेल कहती हैं कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकने के लिए नियम हैं लेकिन नाइट्रस ऑक्साइड पर लगभग किसी तरह की निगरानी नहीं है.
उन्होंने कहा, "नाइट्रस ऑक्साइड के खिलाफ हमें और ज्यादा आक्रामक होना होगा. कहीं भी किसी तरह की नीति नहीं है और कोशिशें बहुत कम हैं.”
जलवायु परिवर्तन, ब्रेक्जिट से डच ट्यूलिप को खतरा
नीदरलैंड्स में ट्यूलिप एक राष्ट्रीय खजाना हैं. लेकिन जलवायु परिवर्तन और ब्रेक्जिट से फूल व्यवसाय पर खतरा मंडरा रहा है.
तस्वीर: Ana Fernandez/SOPA Images/Sipa USA/picture alliance
फूलों का सागर
वसंत एक ऐसा मौसम है जब नीदरलैंड्स रंग-बिरंगा नजर आने लगता है और चारों तरफ फूल ही फूल नजर आते हैं. उत्तरी सागर के तट पर बसा यह छोटा सा देश ट्यूलिप का विश्व में सबसे बड़ा निर्यातक है. यहां से हर साल लगभग 25 लाख ट्यूलिप के फूल दुनिया भर में बेचे जाते हैं.
तस्वीर: Fokke Baarssen/Zoonar/picture alliance
पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र
ट्यूलिप के फूल पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केंद्र हैं. लिस के कुकेनहॉफ में दुनिया भर से लोग यहां आकर इन खिलते हुए फूलों की तस्वीरें निकालने का इंतजार करते हैं. अपने ठंडे और लंबे चलने वाले वसंत के चलते डच ट्यूलिप के बड्स के खिलने के लिए सबसे बेहतर है, लेकिन अब जलवायु परिवर्तन ट्यूलिप उगाने वाले किसानों के लिए एक बड़ी चुनौती बनकर सामने आ रहा है.
अर्जन स्मिट अपने ट्यूलिप के खेतों का देखभाल करते हैं, उन्होंने भी इन प्रभावों को महसूस किया है. स्मिट ने कहा, "जलवायु अब बदल गई है. हमें यह महसूस होती है. अब हमारे पास बारिश वाले दिन अधिक होते हैं." अपने लंबे करियर में 55 वर्षीय स्मिट ने कई बदलाव देखे हैं लेकिन जलवायु परिवर्तन उनके उस फूलों के पारिवारिक व्यवसाय को आगे बढ़ाने में खासी मुश्किल खड़ा कर रहा है, जिसे उनके दादा ने 1940 में शुरू किया था.
तस्वीर: NICK GAMMON/AFP
अच्छे दिन हुए संकटग्रस्त
पुरानी पवन चक्कियां और खिलते हुए ट्यूलिप के खेत: कई लोगों के लिए यह हॉलैंड की सबसे सुखमय तस्वीर है. लेकिन अच्छे दिन अब संकट में हैं, क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग के चलते वातावरण में पानी की बूंदें अधिक वाष्पित हो रही हैं. इसका मतलब यह है कि सर्दियों में अधिक नमी है और वसंत और गर्मी में अधिक हीट वेव. इन दोनों का संयोजन ट्यूलिप के खेतों के लिए खतरे की घंटी है.
तस्वीर: NICK GAMMON/AFP
फूलों की जगह कीचड़
स्मिट ने कहा, "पिछले साल यहां बारिश और सिर्फ बारिश हुई और इसका परिणाम आप देख रहे हैं. आठ से नौ प्रतिशत के बीच ट्यूलिप के पौधे मर गए और इससे ज्यादा पर अभी भी खतरा है क्योंकि सर्दियों में नमी अधिक थी. इसलिए ट्यूलिप की जड़ें पानी की खोज में ज्यादा गहराई में नहीं जा पाईं. मुझे अब इस बात का डर लग रहा है कि गर्मी के दिनों में जड़ों को जरूरत के अनुसार पानी नहीं मिल पाएगा और पौधे एक बार फिर मर जाएंगे."
तस्वीर: NICK GAMMON/AFP
खराब मौसम, बढ़ती लागत
स्मिट सामान्य तौर पर अलग-अलग किस्म के 1.1 करोड़ ट्यूलिप का उत्पादन कर लेते थे, लेकिन इस साल उन्हें डर है कि मौसम के कारण उत्पादन कम होगा. इसके अलावा वह बढ़ती लागत का भी सामना कर रहे हैं. इससे पहले उन्हें एक मौसम में दो से चार बार ही अपने खेतों में पानी लगाना होता था, लेकिन कुछ वर्षों से यह हर हफ्ते का काम हो गया है, जिससे ट्यूलिप का उत्पादन करना खास महंगा हो गया है.
तस्वीर: NICK GAMMON/AFP
ब्रेक्जिट: एक नई चुनौती
डच ट्यूलिप उत्पादकों के सामने एक नई चुनौती भी है और वह है सीमा पर ब्रेक्जिट के कड़े नियंत्रण. 30 अप्रैल 2024 से यूनाइटेड किंग्डम में प्रवेश करने वाले कई पौधे फिजिकल जांच के दायरे में आ रहे हैं. स्मिट का अंदाजा है कि उनका लगभग 80 प्रतिशत उत्पादन विदेशों में जाता है.
तस्वीर: NICK GAMMON/AFP
भविष्य का सामना
स्मिट कहते हैं, "सीमा नियंत्रण में देरी फूलों के लिए विनाशकारी हो सकते हैं." लेकिन उन्हें उम्मीद है कि डच राष्ट्रीय खेती इन चुनौतियों का सामना कर सकती है. वह कहते हैं, "यह मुश्किल जरूर है, लेकिन अगर यह अच्छाई के लिए नियंत्रित किया जा रहा हो तो फूलों की इंडस्ट्री में इससे आपको अच्छा मुनाफा भी मिल सकता है."
तस्वीर: Ana Fernandez/SOPA Images/Sipa USA/picture alliance
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संयुक्त राष्ट्र की समिति आईपीसीसी का अनुमान है कि कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का 6.4 फीसदी नाइट्रस ऑक्साइड है और आने वाले सालों में यह आंकड़ा और बढ़ सकता है. लेकिन सदी के आखिर तक अगर पृथ्वी के तापमान को औसतन 2 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा बढ़ने से रोकना है तो 2050 तक इस गैस के उत्सर्जन में 20 फीसदी की गिरावट जरूरी है.
रिपोर्ट के मुताबिक चीन, भारत, अमेरिका, ब्राजील, रूस, पाकिस्तान, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा इस गैस के सबसे बड़े उत्सर्जक हैं. इसकी वजह इन देशों की तेजी से बढ़ती आबादी और खाद्य क्षेत्र पर बढ़ता दबाव है.
यूरोप कभी नाइट्रस ऑक्साइड का सबसे बड़ा उत्सर्जक हुआ करता था लेकिन जीवाश्म ईंधनों पर लगाम लगाकर उसने उत्सर्जन कम किया है. कृषि आधारित गतिविधियों से उसके उत्सर्जन में भी कमी आई है. जापान और दक्षिण कोरिया में भी नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन कम हुआ है.