भारत के अधिकांश इलाके जो लॉकडाउन या कन्टेन्मेट एरिया की जद से बाहर हो चुके हैं, वहां रोजमर्रा का जीवन महामारी पूर्व ढर्रे पर चल पड़ा है. कोरोना से बचाव में जुटे चिकित्सकों और विशेषज्ञों के मुताबिक ये चिंताजनक रवैया है.
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भारत में कोरोना महामारी के बीच लॉकडाउन के पांच महीने बीतते बीतते रिकवरी रेट भले ही बेहतर है और मरने वालों की संख्या की दर भी अपेक्षाकृत रूप से बहुत कम है, इसके बावजूद आबादी के विशाल आकार को देखते हुए यह अंदाजा लगाना कठिन नहीं है कि देश में खतरा कायम है और नए नए इलाके संक्रमण की जद में आ रहे हैं. खतरों के बीच यह भी देखा जा रहा है कि लोग महामारी से बचाव को लेकर बेफिक्र से भी हो चले हैं. मास्क पहनने से लोग कतरा रहे हैं, कहीं मास्क को मजबूरी की तरह, तो कहीं लापरवाही से पहने हुए देखा जा सकता है. फिजिकल डिस्टेंसिग के प्रति भी कई लोग अब सचेत नजर नहीं आते हैं. सड़कों पर थूकना, पेशाब करना, कूड़ा फेंकना जारी है और लगता नहीं है कि यह वही आशंकित, भयभीत और थाली पीटते लोग हैं जो कोरोना वायरस को भगाने के लिए कुछ भी करने को तत्पर नजर आते थे. एक आम नैरेटिव यह चल पड़ा है कि अब इसके साथ ही रहना है. महामारी के खिलाफ अभियान में यह रवैया घातक और दूरगामी नुकसान पहुंचाने वाला माना जा रहा है.
इन दिनों ऐसे शहरों में जो लॉकडाउन और अन्य पाबंदियों से उबर चुके हैं, वहां सुबह शाम वॉक के लिए सड़कों पर निकले या सब्जी या किराने की दुकानों पर सामान खरीदने के लिए आतेजाते अधिकांश लोगों को मास्क न पहने हुए और भौतिक दूरी रखने की सावधानी को नजरअंदाज करते हुए देखा जा सकता है. मास्क से जुड़ी प्रशासनिक और चिकित्सकीय हिदायतों को न सिर्फ भुला रहे हैं, बल्कि कई लोगों ने तो इन हिदायतों का यह कहकर पालन करने से मना कर दिया है कि इनसे कुछ होने वाला नहीं. कई बार लोगों को निवेदन करना होता है कि वे मास्क पहन लें या थोड़ा दूरी बरतें. लेकिन कोई भड़क न उठे, इसका भी डर है. अगर संक्रमण होना है तो होकर रहेगा- नहीं होगा तो नहीं होगा - एक नैरेटिव यह है. दूसरा तर्क यह चल पड़ा है कि हमें नहीं होगा क्योंकि हमारा तो खानपान ठीक है, हमारा शरीर मजबूत है आदि आदि. लोग एक तरह से खुश हैं कि वे उससे बचे हैं लेकिन इस बात से शायद अंजान है कि उसका दायरा उन तक बढ़ता ही जा रहा है. और जरूरी सावधानियां ही उन्हें बचाए रख सकती हैं.
कोरोना वायरस के बारे में अब तक क्या क्या पता है?
कोरोना महामारी की शुरुआत हुए आधा साल बीत चुका है. पिछले छह महीनों से वैज्ञानिक इस नए वायरस को समझने में लगे हुए हैं. जानिए कहां तक पहुंची है रिसर्च.
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कहां से हुई शुरुआत?
सोशल मीडिया पर वायरस के फैलाव को ले कर कई किस्से कहानी फैले लेकिन आज तक ठीक तरह से इस बात का पता नहीं चल सका है कि शुरुआत कहां से हुई. चीन के एक मीट बाजार की बात हुई. लेकिन जानवर से इंसान में संक्रमण का पहला मामला कौन सा था, यह आज भी रहस्य ही बना हुआ है.
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कैसा दिखता है वायरस?
चीनी वैज्ञानिकों ने रिकॉर्ड समय में इस नए कोरोना वायरस के जेनेटिक ढांचे का पता लगा लिया था. 21 जनवरी को उन्होंने इसे प्रकाशित किया और तीन दिन बाद विस्तृत जानकारी भी दी. इसी के आधार पर दुनिया भर में वायरस को मारने के लिए टीके बनाने की मुहिम शुरू हुई.
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क्या होगा वैक्सीन में?
सार्स कोव-2 वायरस की सतह पर एस-2 नाम के प्रोटीन होते हैं. यही इंसानी कोशिकाओं से जुड़ जाते हैं और संक्रमित व्यक्ति को बीमार करने के लिए जिम्मेदार होते हैं. वैक्सीन का काम इस प्रोटीन को निष्क्रिय करना या किसी तरह ब्लॉक करना होगा.
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एयर कंडीशनर से संक्रमण
शुरुआत में कहा गया था कि संक्रमित व्यक्ति के सीधे संपर्क में आने से या फिर संक्रमित सतह को छूने से ही यह वायरस फैलता है. लेकिन अब पता चला है कि फ्लू के वायरस की तरह यह भी हवा से फैल सकता है, खास कर वहां, जहां एसी का इस्तेमाल हो रहा हो.
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भीड़ का खतरा
किसी बंद जगह में बड़ी संख्या में लोगों की उपस्तिथि खतरे की घंटी है. इसीलिए दुनिया के लगभग हर देश ने लॉकडाउन का सहारा लिया. अभी भी ज्यादातर देशों में सिनेमा हॉल, ट्रेड फेयर और बड़े इवेंट बंद हैं.
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मास्क का इस्तेमाल
विश्व स्वास्थ्य संगठन शुरू में संक्रमण पर काबू पाने के लिए मास्क के इस्तेमाल से इनकार करता रहा. लेकिन देशों ने उसके खिलाफ जा कर सार्वजनिक जगहों पर मास्क पहनना अनिवार्य किया. हालांकि अधिकतर मामलों में देखा जा रहा है कि लोग मास्क का सही इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं.
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बचने का यही तरीका
दो अहम बातें जो शुरू से कही जा रही हैं और जिन पर अब भी कोई दो राय नहीं हैं, वे हैं - साबुन से अच्छी तरह हाथ धोना और सोशल डिस्टेंसिंग. हालांकि लॉकडाउन खुलने के बाद से सोशल डिस्टेंसिंग को ले कर संजीदगी भी कम हुई है.
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जानवरों से खतरा नहीं
हो सकता है कि आपका पालतू जानवर किसी तरह संक्रमित हो गया हो लेकिन अब तक हुए शोध दिखाते हैं कि इंसानों को उनसे कोई खतरा नहीं है. हालांकि इस दिशा में अभी और शोध चल रहे हैं.
महिलाओं की तुलना में पुरुषों को खतरा ज्यादा है. ए ब्लड ग्रुप के लोगों पर इसका ज्यादा असर होता है. पहले से बीमार लोगों का शरीर वायरस का ठीक से सामना नहीं कर पाता. मधुमेह, कैंसर और हृदय रोगियों को ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है.
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इम्यूनिटी बढ़ाएं
अब तक हुए सभी शोध इसी ओर इशारा करते हैं कि अगर आपका इम्यून सिस्टम मजबूत है, तो आप वायरस के असर से बच सकते हैं. यही वजह है कि बाजार में तरह तरह के इम्यूनिटी बूस्टर बिकने लगे हैं.
संक्रमण के बाद फिट हो जाने वाले व्यक्ति के खून में वायरस से लड़ने वाली एंटीबॉडी बनी रहती हैं. कुछ देशों में डॉक्टर इन एंटीबॉडी का इस्तेमाल मरीजों को ठीक करने के लिए कर रहे हैं. लेकिन कोरोना काल में लोग खून डोनेट करने से भी डर रहे हैं.
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आईसीयू में क्या होता है?
यूरोप में जब यह वायरस फैला तो डॉक्टर जल्द से जल्द मरीजों पर वेंटिलेटर इस्तेमाल करने लगे. लेकिन अब बताया जा रहा है कि वेंटिलेटर का इस्तेमाल फायदे से ज्यादा नुकसान पहुंचा सकता है. ऐसे में अब आईसीयू केवल ऑक्सीजन लगाने पर जोर दे रहे हैं.
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आईसीयू से निकलने के बाद
जहां पहले सिर्फ फेफड़ों पर ध्यान दिया जा रहा था, वहां अब मरीज के आईसीयू से निकलने के बाद बाकी के अंगों की भी जांच की जा रही है क्योंकि कई मामलों में इस वायरस को अंगों के नाकाम होने के लिए जिम्मेदार पाया गया है.
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डायलिसिस की जरूरत
यदि किडनी पर असर हुआ हो, तो डायलिसिस की जरूरत बन जाती है. कोलकाता में एक डॉक्टर मात्र 50 रुपये में लोगों का डायलिसिस कर रहा है. आम तौर पर इसके लिए बड़ा खर्च आता है.
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कौनसी दवा करती है असर?
अब तक इस वायरस से निपटने का कोई रामबाण इलाज नहीं मिला है. डॉक्टर कुछ दवाओं का इस्तेमाल जरूर कर रहे हैं लेकिन ये सभी दवाएं लक्षणों पर असर करती हैं, बीमारी पर नहीं. रेमदेसिविर इस मामले में काफी चर्चित दवा है.
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कब आएगी वैक्सीन?
कुछ लोगों का कहना है कि इस साल के अंत तक टीका बाजार में आ जाएगा, तो कुछ अगले साल की शुरुआत की बात कर रहे हैं. लेकिन टीके आम तौर पर इतनी जल्दी तैयार नहीं होते. और अगर बन भी जाए, तो पूरी आबादी तक उन्हें पहुंचाने में भी वक्त लग जाएगा.
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कैसी है तैयारी?
फिलहाल अलग अलग देशों में 160 वैक्सीन प्रोजेक्ट पर काम चल रहा है. टीबी की वैक्सीन को बेहतर बना कर इस्तेमाल लायक बनाने की कोशिश भी चल रही है. भारत के सीरम इंस्टीइट्यूट ने प्रोडक्शन की तैयारी कर ली है. इंतजार है तो सही फॉर्मूला मिल जाने का.
तस्वीर: Eijkman Institute
इंसानों पर टेस्ट का मतलब?
जून 2020 के अंत तक पांच टीकों का ह्यूमन ट्रायल हो चुका है. इंसानों पर टेस्ट का मकसद होता है यह पता करना कि इस तरह के टीके का इंसानों पर कोई बुरा असर तो नहीं होगा. हालांकि यह असर दिखने में भी काफी लंबा समय लग सकता है.
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हर्ड इम्यूनिटी कब मिलेगी?
जब आबादी के एक बड़े हिस्से को किसी बीमारी से इम्यूनिटी मिल जाती है, तो उसके फैलने का खतरा बहुत कम हो जाता है. जून के अंत तक दुनिया के एक करोड़ लोग कोरोना से संक्रमित हो चुके थे. लेकिन 7.8 अरब की आबादी में एक करोड़ हर्ड इम्यूनिटी बनाने के लिए काफी नहीं है. रिपोर्ट: फाबियान श्मिट/आईबी
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भागमभाग का यह नया दौर कोरोना को हराने या उससे निर्भयता दिखाने का आत्मविश्वास नहीं है, बल्कि यह सावधानियों को बोझ समझकर उतार फेंकने का दोषपूर्ण और अवैज्ञानिक दुस्साहस है, मनमानी करने की ढिठाई है. संवेदनाविहीन उपभोग की यह मानसिकता अपना काम बन जाने के स्वार्थ से संचालित होती है. और भारत इस समय कई तरह के जिन सामाजिक संकटों से घिरा है, उनमें एक यह भी है. वरना बीमारी से तड़पते लेकिन इलाज के लिए तरसते लोगों को समय पर सहायता मिल पाती, जरूरतमंदो को दुत्कारने या उनकी मदद से इनकार न किया जाता और कोरोना संक्रमण को लेकर छुआछूत, अंधविश्वास और सोशल मीडिया जनित अफवाहों के जरिए अज्ञानता और विवेकहीनता का शिकंजा न पड़ा रहता.
बेशक कोरोना संक्रमण को लेकर अनावश्यक भय या अतिरंजित कोशिशों से बचे जाने की जरूरत है. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि अब इसके साथ जीना पड़ेगा वाली धारणा के आगे नतमस्तक होकर बचाव के तरीकों को अनदेखा कर दिया जाए और जैसा चलता है चलने दिया जाए. यह यथास्थितिवाद ही सामाजिक गतिशीलता के सामने सबसे बड़ा अवरोधक है. जनता सिर के ऐन ऊपर तने हुए कानूनों और आदेशों पर तो अमल कर लेती है लेकिन इन कायदों कानूनों में जरा भी छूट मिलते ही अपनी मनमर्जी में लौट जाती है. छोटे छोटे इलाकों में प्रशासन जिम्मेदार लोगों को चिंहित कर सकता है जो जागरूकता अभियान चलाए रखें और जरूरी हिदायतों पर अमल न करने वालों पर कार्रवाई करें. हालांकि लॉकडाउन में छूट की अवधियों के दौरान यह निगरानी अभियान चला था लेकिन लॉकडाउन हट जाने के बाद अधिकारियों और लोगों ने भी इन हिदायतों से पल्ला झाड़ लिया.
कोरोना समय के ये मनोवैज्ञानिक और सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषण अभी किए जाने हैं कि आखिर जनता में यह रवैया क्यों आता है और क्या यह खुद उसकी स्वाभाविक और स्वतःस्फूर्त फितरत होती है या इसके पीछे सत्ता-राजनीति के परिचालकों की प्रछन्न कार्रवाइयां भी जिम्मेदार होती हैं. किसी डोर से नियंत्रित होने या तनी हुई रस्सी पर चलने से अच्छा है एक सामान्य जीवन बिता पाना - यह समझना जरूरी है. अगर लोग अपने व्यवहार को संतुलित नहीं करते हैं और सरोकारविहीन रवैये में कमी नहीं लाते हैं, तो और कड़े नियम और बंदिशें आ सकती है. हो सकता है कि तब प्रशासनिक उपाय कन्टेन्मेंट या लॉकडाउन तक सीमित न हो. और लोगों को न चाहते हुए भी संपूर्ण सर्विलांस से व्याप्त सिस्टम में रहना पड़े. सत्ता व्यवस्था चलाने वाली ब्यूरोक्रेसी के लिए तो यह एक मुफीद रास्ता होगा.
जाहिर है अपने अपने जीवन में सिमटी हुई या अपने अपने दायरों और जरूरतों में बिखरी हुई जनता को इस बारे में एकजुट करना कठिन है लेकिन एक सामूहिक चेतना का निर्माण जटिल हालात से निकाल सकता है. युद्ध और धर्म से लेकर क्रिकेट और पड़ोसी देशों के साथ बिजनेस के मामलों तक सामूहिक विवेक जागृत हो उठता है तो कोरोना जैसी भयावह महामारी से निजात पाने और सावधानियां बरतने के मामले में एकजुटता क्यों नहीं बना सकता? फेक न्यूज की अदृश्य मशीन अगर व्हाट्सऐप के जरिए निर्बाध रूप से धड़धड़ाती रह सकती है तो उस प्लेटफॉर्म का उपयोग क्यों नहीं नाजुक मौकों के बंधुत्व, नागरिक जिम्मेदारी और सामाजिक समरसता के निर्माण के लिए किया जाता? मास्क न पहनने और अन्य सावधानियों की धज्जियां उड़ाने वाले लोग अपनी ‘आजादी' का बेहिचक प्रदर्शन तो कर रहे हैं लेकिन दूसरों की जीने की आजादी छीनने वाले कैरियर भी बन रहे हैं.
कोरोना वायरस से आम इंसान ही नहीं बल्कि कई देशों के बड़े-बड़े नेता और मंत्री भी चपेट में आ गए हैं. दुनिया के किन-किन राजनेताओं को कोरोना हुआ, डालते हैं एक नजर ऐसे नेताओं पर.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/E. Peres
फ्रांस
फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों कोरोना संक्रमण के खिलाफ अभियानों में अगुवा रहे हैं, लेकिन सचेत रहने के बावजूद खुद को संक्रमित होने से नहीं बचा पाए.
तस्वीर: Yoan Valat/dpa/picture-alliance
अमेरिका
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप भी कोरोना संक्रमण की चपेट में आ गए. समय चुनाव अभियान का था और उनके लिए ये चुनाव प्रतिष्ठा का था. इसलिए वे ज्यादा समय तक क्वारंटीन में नहीं रहे.
तस्वीर: Kevin Deutsch/UPI Photo/Newscom/picture-alliance
ब्राजील
राष्ट्रपति जायर बोल्सनारो ने कोरोना वायरस के प्रभाव को हमेशा कमतर आंका, लेकिन उन्हें कोरोना वायरस लग गया. बोल्सनारो ने कोरोना वायरस होने की पुष्टि की और वे मास्क लगाकर पत्रकारों के सामने भी आए.
अंतरिम राष्ट्रपति जीनिन एंज को भी कोरोना हो गया है. जीनिन ने कहा है कि वे अगले कुछ दिनों तक आइसोलेशन में रहेंगी. उन्होंने कोरोना होने की खुद पुष्टि की है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/ABI/D. Valero
ब्रिटेन
ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन भी कोरोना की चपेट में आए थे. उनका घर पर ही इलाज चल रहा था लेकिन जब हालत बिगड़ गई तो उन्हें अस्पताल में दाखिल कराया गया. बाद में वे स्वस्थ होकर घर लौट आए.
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ब्रिटेन
प्रिंस चार्ल्स कोरोना संक्रमित हो गए थे. उनमें कोरोना के हल्के लक्षण मिले थे. उन्होंने आइसोलेशन में रहकर कोरोना को मात दे दी थी.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/J. King
रूस
रूस के प्रधानमंत्री मिखाएल मिशुस्तिन अप्रैल के महीने में कोविड-19 पॉजिटिव पाए गए थे. बीमार रहने के दौरान डिप्टी पीएम ने उनका कार्य अस्थायी तौर पर संभाला.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/A. Nikolsky
ब्रिटेन
स्वास्थ्य मंत्री मैट हैनकॉक ने कोरोना वायरस होने की पुष्टि ट्वीट करके की थी. उन्होंने बताया कि वे कोरोना से संक्रमित हो गए हैं और वे कुछ दिन घर से ही काम करेंगे. बाद में वे पूरी तरह से ठीक हो गए.
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फ्रांस
संस्कृति मंत्री फ्राँक रीस्टर भी कोरोना हो गया और उन्हें भी आइसोलेशन में जाना पड़ा था. 46 साल के इस नेता की तबियत अब बिलकुल ठीक है.
तस्वीर: AFP/B. Guay
ऑस्ट्रेलिया
गृह मंत्री पीटर डुट्टोन को भी कोरोना वायरस होने के बाद अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था. उनका क्वींसलैंड के अस्पताल में इलाज हुआ और वे बाद में स्वस्थ हो गए.
तस्वीर: AFP/M. Ngan
इस्राएल
स्वास्थ्य मंत्री याकोव लित्जमान को कोरोना वायरस होने के बाद उनकी पत्नी भी इसकी चपेट में आ गई. जिसके बाद दोनों को ही अलग-थलग रखना पड़ा था.