1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

स्कूलों में घटता नामांकन बना चिंता का सबब

प्रभाकर मणि तिवारी
१४ दिसम्बर २०२१

बीते दस वर्षों के दौरान स्कूलों में नामांकन के आंकड़ों में करीब 33 लाख की गिरावट आई है. बच्चों के मामले में यह आंकड़ा और ज्यादा है. एक ताजा अध्ययन से यह बात सामने आई है.

तस्वीर: Sarla Naik/Privat

देश में वर्ष 2012-13 में शिक्षा के लिए एकीकृत जिला सूचना प्रणाली (यूडीआईएसई) शुरू की गई थी. उस साल स्कूल जाने वाले छात्र-छात्राओं की आबादी 25.48 करोड़ थी. वर्ष 2019-20 के दौरान यह घट कर 25 करोड़ पहुंच गई. फिलहाल उसके बाद के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं.

दिल्ली स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एजुकेशन प्लानिंग ऐंड एडमिनिस्ट्रेशन (एनआईईपीए) के पूर्व प्रोफेसर अरुण मेहता ने इस मुद्दे पर लंबे अध्ययन के बाद "क्या भारत में स्कूल नामांकन में गिरावट चिंता का कारण है? … हाँ, यह है” शीर्षक अपने शोध पत्र में कहा है कि भारत में स्कूल जाने वालों की आबादी में गिरावट चिंता की वजह है.

उनका कहना है कि बीते एक दशक से पहली से बारहवीं कक्षा तक हर स्तर पर स्कूल जाने वालों की तादाद लगातार कम हो रही है. नामांकन में गिरावट बाल आबादी में गिरावट से कहीं ज्यादा है. लेकिन केंद्र सरकार इस गिरावट की वजह का पता लगा कर उनको दूर करने के बजाय वर्ष 2018-19 के आंकड़ों का हवाला देते हुए स्थिति में सुधार के दावे कर रही है. उसी साल नामांकन में सबसे कम गिरावट दर्ज की गई थी.

पीछे छूटे बच्चों को पढ़ाई का एक और मौका

05:20

This browser does not support the video element.

रिपोर्ट में कहा गया है कि बीते एक दशक के दौरान वर्ष 2015-16 में सबसे अधिक नामांकन देखा गया. उस साल यह 26.06 करोड़ तक पहुंच गया. वर्ष 2018-19 में यह सबसे कम 24.83 करोड़ हो गया. सरकार फिलहाल इस बात का पता लगा रही है कि वर्ष 2018-19 की तुलना में 2019-20 में कुल नामांकन में 2.6 लाख की वृद्धि कैसे हुई. उस वर्ष यूडीआईएसई द्वारा कवर किए गए स्कूलों की संख्या में 43,292 की कमी के बावजूद वर्ष 2019-20 में नामांकन में 2018-19 की तुलना में वृद्धि दर्ज की गई.

मेहता का कहना है कि बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश जैसे कुछ राज्यों में एक साल भारी नामांकन में भारी गिरावट के बाद अगले शिक्षण सत्र में तेजी से वृद्धि से नामांकन के आंकड़ों की विश्वसनीयता और गुणवत्ता पर भी सवाल खड़े होते हैं. उन्होंने नामांकन के आंकड़ों की गुणवत्ता सुधारने पर जोर दिया है ताकि सही तस्वीर सामने आ सके.

सरकारी रिपोर्ट

कुछ समय पहले एक सरकारी रिपोर्ट में भी स्वीकार किया गया था कि प्राथमिक कक्षाओं के बाद बच्चों का नामांकन धीरे धीरे कम होता जाता है. छठी से आठवीं कक्षा में सकल नामांकन अनुपात जहां 91 फीसदी है, वहीं नौवीं व दसवीं में यह महज 79.3 फीसदी. 11वीं और 12वीं कक्षा के मामले में यह आंकड़ा 56.5 फीसदी है. इससे साफ है कि पांचवीं और खासकर आठवीं कक्षा के बाद काफी तादाद में बच्चे पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं. पढ़ाई बीच में छोड़ देने वाले बच्चों की तादाद देश में दो करोड़ से ज्यादा है.

अब नई शिक्षा नीति के तहत सरकार ने उनको दोबारा स्कूल पहुंचाने की बात कही है. केंद्र ने वर्ष 2030 तक प्री-स्कूल से लेकर सेकेंडरी स्तर में सौ फीसदी सकल नामांकन अनुपात हासिल करने का लक्ष्य रखा गया है. शिक्षा नीति में कहा गया है कि प्री-स्कूल से लेकर बारहवीं तक के सभी बच्चों को समग्र शिक्षा मुहैया कराने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एकीकृत प्रयास किए जाएंगे.

अपनी शादी रुकवाई और सपने सच किए

04:15

This browser does not support the video element.

इसमें ड्रॉप आउट बच्चों को वापस स्कूल पहुंचाने और बच्चों को पढ़ाई बीच में छोड़ने से रोकने के मकसद से दो महत्वपूर्ण कदम उठाने की बात कही गई है. पहला है स्कूलों में पर्याप्त बुनियादी ढांचा उपलब्ध कराना और दूसरा सरकारी स्कूलों की विश्वसनीयता फिर से बहाल करना.

वैसे, हाल में खासकर कोरोना महामारी के दौरान सरकारी स्कूलों में नामांकन कुछ बढ़ा है. लेकिन शिक्षाशास्त्री कोरोना की वजह से अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाली मार और बेरोजगारी को इसकी प्रमुख वजह बताते हैं.

घटते नामांकन की वजह

आखिर नामांकन में गिरावट की वजह क्या है? शिक्षाशास्त्रियों का कहना है कि निजी स्कूलों की फीस लगातार बढ़ रही है. यह निम्न मध्यवर्ग की क्षमता से बाहर हो गई है. दूसरी ओर सरकारी स्कूलों में आधारभूत ढांचे और संबंधित विषयों के शिक्षकों की कमी से छात्रों में पढ़ाई के प्रति दिलचस्पी खत्म हो रही है.

शिक्षाविद प्रोफेसर अजित कुमार सरकार कहते हैं, "कई छात्र तो मिड डे मील और दूसरी सरकारी योजनाओं के लालच में स्कूल पहुंचते हैं. लेकिन अब कई स्कूलों में ऐसी योजनाएं भी बंद हो गई हैं.”

एक स्कूल के पूर्व प्रिंसिपल देवाशीष दत्त कहते हैं, "सरकार भी इन स्कूलों में न तो खाली पदों को भरने में दिलचस्पी लेती है और न ही आधारभूत ढांचा मुहैया कराने में. उधर, निजी स्कूलों की महंगी फीस और दूसरे खर्च उठाना सबके बस की बात नहीं है. कोरोना महामारी के दौरान के आंकड़े तो और भी गंभीर होंगे. इस दौरान नौकरियां छिनने के कारण स्कूलों की फीस नहीं भर पाने की वजह से भारी तादाद में स्कूलों से बच्चों के नाम कट गए हैं और नए छात्रों का दाखिला नहीं हो सका है.”

शिक्षाशास्त्रियों का कहना है कि सरकारी स्कूलों में फीस कम होने की वजह से नामांकन की दर जरूर बढ़ी है. लेकिन इन स्कूलों में ज्यादातर शिक्षक पठन-पाठन की बजाय निजी कामकाज, निजी ट्यूशन और राजनीति में रुचि लेते हैं. नतीजतन कुछ समय बाद ही पढ़ाई-लिखाई से छात्रों का मोहभंग होने लगता है.

देवाशीष दत्त कहते हैं, "खासकर ग्रामीण इलाकों में तो अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति की वजह से लोग बच्चों को थोड़ा-बहुत पढ़ाने के बाद रोजगार में लगा देते हैं. यही वजह है कि देश में बाल मजदूरी अब तक खत्म नहीं हो सकी है.” उनका कहना है कि नामांकन दर में गिरावट में अंकुश लगाने के लिए सरकार को ठोस योजना के साथ आगे बढ़ना होगा. इसके लिए सामाजिक संगठनों के साथ जागरूकता अभियान चलाना भी जरूरी है ताकि शिक्षा की अहमियत बताई जा सके. लेकिन उससे पहले सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर और आधारभूत ढांचा दुरुस्त करना सबसे जरूरी है.

डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी को स्किप करें

डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी

डीडब्ल्यू की और रिपोर्टें को स्किप करें

डीडब्ल्यू की और रिपोर्टें