सबसे तेजी से बढ़ रहा है भारतीय मूल के लोगों का देश
२६ अगस्त २०२२48 प्रतिशत सालाना, यानी लगभग डेढ़ गुना. जब अमेरिका और जर्मनी जैसे विकसित देश दो-ढाई फीसदी की विकास दर के लिए संघर्ष कर रहे हैं और भारत व चीन जैसे देश दहाई का आंकड़ा छूने भर से सबसे तेज में शामिल हो रहे हैं, तब एक देश है जिसके लिए वर्ल्ड बैंक ने 48 प्रतिशत की विकास दर का अनुमान जाहिर किया है. यह धरती पर सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था होगी.
2015 में गुयाना की किस्मत बदल गई जब एक्सॉन मोबिल तेल कंपनी को वहां के समुद्र तट के नजदीक तेल मिला. उसके बाद देश के नेताओं ने वादे किए कि तेल सबकी जिंदगी बदल देगा. देश की अर्थव्यवस्था तो बदल रही है लेकिन सबकी जिंदगी बदल रही है या नहीं, इसमें बहुत से जानकारों को संदेह है.
कूटनीतिक और आर्थिक विशेषज्ञ कहते हैं कि जिस तरह इस तेल उत्पादन का प्रबंधन हो रहा है, उसका फायदा दक्षिण अमेरिका के सबसे गरीब मुल्कों से शुमार गुयाना की अत्याधिक उग्र और नस्ल आधारित राजनीति को तो हो रहा है लेकिन आम लोगों की जिंदगी में कोई बदलाव नहीं आ रहा है.
मई में गुयाना की सरकार ने ऐलान किया कि उसने तेल उत्पादकों द्वारा दी जा रही रॉयल्टी को संभालने वाले फंड से धन निकालना शुरू किया है. इस साल के आखिर तक इस फंड से 60 करोड़ डॉलर निकाले जाएंगे और जल्दी ही यह आंकड़ा अरबों में बदल जाएगा.
सबसे बड़ा तेल उत्पादक
2027 तक एक्सॉन और न्यू यॉर्क उसकी साझीदार कंपनी हेस के अलावा चाइना नेशनल ऑफशोर ऑयल कॉर्प मिलकर 12 लाख बैरल तेल रोजाना निकालने का लक्ष्य लेकर चल रहे हैं. इस तरह प्रति व्यक्ति उत्पादन के लिहाज से गुयाना दुनिया का सबसे बड़ा तेल उत्पादक बन जाएगा.
लेकिन इस धन का किया क्या जाएगा? अमेरिकी एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डिवेलपमेंट ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि देश की सरकार के पास धन की इतनी बड़ी आवक को संभालने लायक अनुभव या विशेषज्ञता नहीं है. ऐसी चिंता देश के लोगों के बीच भी है. 30 से ज्यादा राजनेताओं, उद्यमियों, कार्यकर्ताओं और आम नागरिकों से बातचीत में यही बात उभरकर सामने आई.
गयाना की मौजूदा सरकार ईस्ट इंडियन आदिवासियों द्वारा समर्थित है. उसका कहना है कि इस धन का इस्तेमाल मूलभूत ढांचा तैयार करने के लिए किया जाएगा जिसमें आम सुविधाओं से लेकर शिक्षा तक तमाम क्षेत्र शामिल होंगे और इसका फायदा करीब आठ लाख की आबादी वाले गुयाना में सबको होगा. देश के वित्त मंत्री अशनी सिंह कहते हैं, "सरकार के तौर पर हमारी प्रतिबद्धता यह सुनिश्चित करना है कि देश भर में सभी के लिए वास्तविक अवसर पैदा हों, फिर चाहे कोई कहीं भी रहता हो और उसने किसी को भी वोट दिया हो.”
लेकिन अफ्रीकी मूल के समुदायों वाले देश के हिस्सों में इस बात को लेकर चिंता और संदेह है कि लाभ उन तक पहुंचेगा या नहीं. कुछ लोग आरोप लगाते हैं कि पहले ही धन और ठेके सरकार समर्थकों की ओर जाने शुरू हो गए हैं और नेता अपने चहेतों को ऐसी संस्थाओं में बिठा रहे हैं जहां नए संसाधनों का प्रबंधन किया जाना है. विपक्ष के नेता ऑबरे नॉर्टन कहते हैं, "वे तेल का इस्तेमाल राजनीतिक संरक्षण के लिए कर रहे हैं, बिना किसी परिकल्पना के.”
कैसा है गुयाना?
वेनेजुएला और सूरीनाम के बीच स्थित गुयाना में राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वता खासी तीखी रही है. इसके दो समुदाय अक्सर आमने सामने रहे हैं. देश की अफ्रीकी मूल की आबादी लगभग 30 प्रतिशत है जबकि 40 प्रतिशत लोग भारतीय मूल के हैं जिन्हें अंग्रेज गुलाम बनाकर 19वीं सदी में वहां ले गए थे. बाकी बचा हिस्सा मिश्रित नस्ल और अमेरीकी इंडियन मूल के लोगों का है.
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देश के राष्ट्रपति इरफान अली भारतीय-गुयानीज मूल के हैं. वह पीपल्स प्रोग्रेसिव पार्टी के नेता हैं और एक विवादित चुनाव में महीनों तक चले गतिरोध के बाद 2020 में पदासीन हुए. संसद में पीपीपी अब बहुमत में है और फैसले करने की स्थिति में है. हालांकि उसके पास विपक्ष से दो सीटें ज्यादा हैं.
विपक्ष में अफ्रीकी मूल के लोगों की पार्टियों का गठबंधन है जिसका नाम अ पार्टनरशिप फॉर नेशनल यूनिटी (एपीएनयू) रखा गया है. हाल के महीनों में पक्ष और विपक्ष के बीच लगभग हर मुद्दे पर तीखी बहसें हुई हैं जिनमें सरकार के बढ़ते खजाने के ऑडिट से लेकर प्रमुख नियुक्तियों तक तमाम तरह के मसले शामिल हैं. इन्हीं विवादों में नेशनल रिसॉर्स फंड का मुद्दा भी था. इसी फंड में गयाना के तेल की रॉयल्टी आती है.
हाल ही लागू हुए एक नए कानून के तहत विपक्ष से फंड में किसी भी सदस्य की तैनाती का अधिकार वापस ले लिया गया. इसे लेकर विपक्ष चिंतित है और भ्रष्टाचार का अंदेशा जताता है. हालांकि सरकार इन आरोपों को बेबुनियाद बताती है. वित्त मंत्री सिंह कहते हैं कि 2015 से 2020 तक एपीएनयू की सरकार थी और तब भी ऐसा ही प्रस्ताव लाया गया था जो सरकारी शक्तियों को और बढ़ाने वाला होता. वह तर्क देते हैं कि सरकार ने जो नियुक्तियां की हैं, उन लोगों के रिकॉर्ड पर किसी तरह के सवाल नहीं उठाए जा सकते.
विपक्षी दलों की तर्क है कि किसे तैनात किया गया है, यह महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि जरूरी है कि उन्हें फंड में सदस्यता मिले. विपक्ष की तरफ से बोर्ड के लिए विंसेंट एडम्स को नामांकित किया गया था लेकिन सरकार ने इसे खारिज कर दिया. एडम्स कहते हैं, "जब हर कोई एक ही पक्ष का होगा तो इससे एक संदेश जाता है कि फंड का राजनीतिकरण हो रहा है.”
इलाकों में चिंताएं
ऐसी ही चिंताएं अलग-अलग इलाकों के लोगों की भी हैं जिन्हें लगता है कि नए-नए मिले धन में से उनके इलाके को कोई लाभ नहीं मिल रहा है.
मसलन देश के पश्चिमी हिस्से में स्थित जॉर्जटाउन में गन्ने के किसानों को खूब धन मिल रहा है. ये किसान अधिकतर भारतीय मूल के हैं. 38 वर्षीय युधिष्ठिर मान कहते हैं कि ऐसा उन्होंने कभी नहीं देखा. वह कहते हैं, "जो चीनी के साथ हो रहा है, ऐसा तो मैंने अपनी जिंदगी में नहीं देखा.” पिछले साल सरकार ने इस इलाके में भारी निवेश किया है और राष्ट्रपति इरफान अली खुद यहां के दौरे पर आए थे.
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इस इलाके से मात्र 80 किलोमीटर दूर अफ्रीकी मूल के लोगों का कस्बा लिंडन है जहां बाक्साइट की खदानें हैं. यहां भी सरकार ने खासा निवेश किया है और इलाके की सड़कों की हालत सुधारने पर विशेषकर काम किया गया है. लेकिन इलाके के लोगों का कहना है कि उन्हें हक से कम मिल रहा है.
रिटायर हो चुके एक खनिक चार्ल्स एंटीगा कहते हैं, "हम दुखी हैं क्योंकि ऐसा लगता है कि लिंडन को वैसा लाभ नहीं मिल रहा है जैसा बाकी देश को.”
वीके/एए (रॉयटर्स)