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दो साल, तेल के मोर्चे पर मोदी सरकार

रोहित जोशी१ जून २०१६

यूपीए सरकार को तेल की बढ़ती कीमतों पर कोसने वाले मोदी खुद सत्ता में आकर तेल की कीमतों पर लगाम लगाने में नाकाम रहे हैं. जबकि उनके सत्ता में आने के बाद अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें 60 प्रतिशत तक ​गिरी हैं.

Indien Wahlen 2014 BJP Narendra Modi
तस्वीर: Reuters

पिछले केवल एक महीने में तेल की कीमतों में दो बार उछाल देखा गया है. यह संयोग से मई का वही म​हीना है जब दो साल पहले महंगाई को मुद्दा बनाकर भाजपा नेतृत्व का एनडीए गठबंधन भारी बहुमत के साथ जीतकर सत्ता में आया था और नरेंद्र मोदी ने बतौर प्रधानमंत्री शपथ ली थी.

मंगलवार की मध्यरात्रि से फिर से पेट्रोल के दाम में 2.58 रुपये और डीजल के दामों में 2.26 रुपये का इजाफा किया गया है. अब राजधानी दिल्ली में प्रति लीटर पेट्रोल की कीमत 65.60 और डीजल की कीमत बढ़कर 53.93 रूपये जा पहुंची हैं. राजधानी से बाहर और दूर दराज के इलाकों में ये कीमतें और भी ज्यादा होंगी. पिछली बार 16 मई को प्रति लीटर पेट्रोल के दामों में 83 पैसे और डीजल की कीमतों में 1.26 रुपये का इजाफा किया गया था.

तस्वीर: picture alliance/empics/N. Ansell

सरकारी कंपनी इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन ने जानकारी दी है कि 31 मई की मध्यरात्रि यानि 1 जून से कीमतों की यह बढ़ोत्तरी लागू हो गई. कंपनी का कहना है, ''डीजल और पेट्रोल की अंतरराष्ट्रीय उत्पाद कीमतों की वर्तमान स्थिति और डॉलर के मुकाबले रुपये के और भी कमजोर हो जाने के चलते'' यह कदम उठाया गया है.

मई 2014 में सत्ता में आने से पहले भाजपा अंतरराष्ट्रीय कीमतों के अनुपात में तेल की कीमतों में हो रही बढ़ोत्तरी को लेकर यूपीए सरकार के खिलाफ सख्त मोर्चा खोले हुए थी. प्रधानमंत्री मोदी अपनी चुनावी रैली में तेल की बढ़ती कीमतों को लेकर यूपीए की कड़ी आलोचना करते रहे हैं. लेकिन सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार पिछले दो सालों में तेल कीमतों को नियंत्रित करने में नाकाम रही है. ज​बकि इस दौर में अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की ​कीमतें 60 प्रतिशत से भी अधिक नीचे आ गई हैं.

तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/Sunday Alamba file

26 मई 2014 को जब मोदी सरकार ने शपथ ली उस वक्त भारतीय बास्केट में कच्चे तेल की कीमत 108.05 डॉलर प्रति बैरल थी. इसके बाद 14 जनवरी 2015 को तकरीबन 60 प्रतिशत घटकर यह कीमत 43.36 प्रति बैरल आ पहुंची. इसी तरह केंद्रीय पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय के पेट्रोलियम नियोजन एवं विश्लेषण प्रकोष्ठ (पीपीएसी) ने बीते सोमवार को भारतीय बास्केट में कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों के जो आंकड़े जारी किए हैं उनके अनुसार 30 मई 2016 को कच्चे तेल की कीमत 26 मई के 47.53 डॉलर प्रति बैरल के मुकाबले और गिरकर 46.53 डॉलर आ पहुंची ​थी.

यूपीए टू के कार्यकाल में 2009 से लेकर मई 2014 तक यह कीमत 70 से लेकर 110 डॉलर प्रति बैरल तक थी. जबकि इस बीच पेट्रोल की कीमत 55 से 70 रुपये के बीच झूलती रही. मई 2014 में ये 71.41 रूपये प्रति लीटर तक जा पहुंची जब अंतरराष्ट्रीय कच्चे तेल की कीमत 107.9 डॉलर प्रति बैरल पहुंच गई थी.

इन आंकड़ों के आधार पर अगर दोनों सरकारों की तुलना करें तो अंतरराष्ट्रीय कीमतों में तकरीबन 60 प्रतिशत तक की गिरावट के बावजूद मोदी शासन में तेल की कीमतें तकरीबन यूपीए सरकार के समय की तरह ही हैं.

इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन ने अपने बयान में कहा है कि तेल की कीमतों में इस उछाल की वजह डॉलर के मुकाबले रुपये का और अधिक कमजोर हो जाना बना है. पेट्रोलियम नियोजन एवं विश्लेषण प्रकोष्ठ की ओर से जारी आंकड़ों के मुताबिक 30 मई को रुपये की कीमत प्रति डॉलर के मुकाबले और कमजोर होकर 67.34 हो गई. यह 27 मई को 67.06 थी.

तस्वीर: picture-alliance/dpa/EPA/Wu Hong

अपनी चुनावी रैली के दौरान मोदी डॉलर के मुकाबले कमजोर होते रुपये के लिए भी पिछली कांग्रेस सरकारों को कोसते रहे थे. एक रैली में उन्होंने डॉलर के मुकाबले रूपये की कीमत का ग्राफ बताते हुए कहा, ''कांग्रेस ने जब पहली बार सरकार बनाई तो तब तक मामला 42 रूपये तक पहुंच गया था. लेकिन अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कालखंड में ये साठ रूपये में पहुंच गया.''

करारी हार के बाद यूपीए सरकार ने मई 2014 में जब सत्ता छोड़ी उस समय रूपये की कीमत डॉलर के मुकाबले 58.58 थी. लेकिन पिछले दो सालों में यह कीमत और उछाल खाते हुए 67.34 हो गई.

तस्वीर: Getty Images/AFP/P. Utomi Ekpei

बेशक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तेल और रुपये की कीमतों के इस बीजगणित पर सीधे तौर पर भारत सरकार का नियंत्रण नहीं है. लेकिन मोदी अपने चुनावी अभियानों में इन्हीं आंकड़ो का सरलीकरण करते दिखाई दिए हैं. ऐसे में जिस तरह की उम्मीद जगा कर ऐतिहासिक बहुमत के साथ वे सत्तारूढ़ हुए हैं उनकी जवाबदेही उसी अनुपात में बढ़ी है. लेकिन मोदी सरकार पिछले दो सालों में न सिर्फ तेल की कीमतों के मोर्चे पर बल्कि अपने चुनावी वादों के अनुसार इस तरह के कई मोर्चों, मसलन कालाधन, रोजगार और महंगाई के मोर्चों पर नाकाम हुई है. इस असफलता से सबसे महत्वपूर्ण यह सवाल उभरकर सामने आया है कि चुनाव के दौरान और सत्तारुढ़ हो जाने के बाद मोदी ने प्रचार माध्यमों के जरिए आर्थिक नीतियों के चमत्कारिक विकल्प का जो विजन पेश किया है, क्या वह कांग्रेस की आर्थिक नीतियों से रत्ती भर भी अलग है?

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