केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के आंकड़े दिखा रहे हैं कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों और उपकुलपति के पदों पर वंचित वर्गों के बहुत कम लोग आसीन हैं. उच्च शिक्षा में वंचित वर्गों का प्रतिनिधित्व चिंता का विषय बना हुआ है.
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लोक सभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने बताया है कि देश के 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से सिर्फ एक-एक उपकुलपति हैं. मंत्रालय ने इन कुलपतियों या इन विश्वविद्यालयों का नाम नहीं बताया लेकिन हैदराबाद स्थित अंग्रेजी और विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के उपकुलपति ई सुरेश कुमार को इस समय देश के इकलौते दलित उपकुलपति के रूप में जाना जाता है.
झारखंड के दुमका स्थित सिदो कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय की उपकुलपति सोनझरिया मिंज आदिवासी समुदाय से हैं. मंत्रालय द्वारा दी गई जानकारी के मुताबिक 45 उपकुलपतियों में से सात ओबीसी समाज से हैं. इसी तरह रजिस्ट्रार, प्रोफेसर आदि जैसे पदों और टीचिंग और नॉन टीचिंग स्टाफ में भी वंचित वर्गों का प्रतिनिधित्व बहुत कम है.
45 रजिस्ट्रारों में से सिर्फ दो अनुसूचित जाती से, पांच अनुसूचित जनजाति से और तीन ओबीसी से हैं. कुल 1005 प्रोफेसरों में से 864 सामान्य श्रेणी से हैं जबकि सिर्फ 69 अनुसूचित जाति से, 15 अनुसूचित जनजाति से और 41 ओबीसी से हैं.
विश्वविद्यालयों में पदों पर आरक्षण के लिए 2019 में केंद्रीय शैक्षिक संस्थान (शिक्षक संवर्ग में आरक्षण) अधिनियम लाया गया थातस्वीर: Mana Vatsyayana/Getty Images/AFP
कुल 2700 एसोसिएट प्रोफेसरों में से 2275 सामान्य श्रेणी से हैं जबकि 195 अनुसूचित जाति से, 63 अनुसूचित जनजाति से और 132 ओबीसी से हैं.
2019 में आया नया कानून
इसी तरह असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर भी कुल 8,668 लोगों में से 5,247 सामान्य श्रेणी से हैं जबकि 1,042 अनुसूचित जाती से, 490 अनुसूचित जनजाति से और 1,567 ओबीसी से हैं.
विश्वविद्यालयों में पदों पर आरक्षण के नियमों के लिए 2019 में केंद्रीय शैक्षिक संस्थान (शिक्षक संवर्ग में आरक्षण) अधिनियम लाया गया था. इसके तहत आरक्षण व्यवस्था में दो बड़े बदलाव लाए गए थे. इसके पहले तक केंद्रीय शैक्षिक संस्थानों में शिक्षकों के पदों में सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण था, लेकिन इस अधिनियम के तहत ओबीसी और आर्थिक रूप से कमजोर (ईडब्ल्यूएस) श्रेणी के लिए भी आरक्षण लागू कर दिया गया.
दुनिया की टॉप 10 यूनिवर्सिटी
शिक्षा के क्षेत्र में शोध और विश्लेषण करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था टाइम्स हायर एजुकेशन (THE) ने 2022 के लिए यूनिवर्सिटी रैंकिग जारी की है. इस रैंकिग में टॉप 10 में शामिल किए गए विश्वविद्यालय हैं...
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ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी, ब्रिटेन
जिन विश्वविद्यालयों ने कोविड से संबंधित रिसर्च की है, उनकी रैंकिग में काफी सुधार देखा गया है. ऑक्सफर्ड ने तो वैक्सीन ही बना डाली. वह दुनिया की सर्वश्रेष्ठ यूनिवर्सटी बताई गई है.
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कैलिफॉर्निया इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, अमेरिका
यह अमरिका की सबसे अच्छी और दुनिया की दूसरी सबसे अच्छी यूनिवर्सिटी है. टॉप 200 में अमेरिका के सबसे ज्यादा 57 विश्वविद्यालय हैं.
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हार्वर्ड यूनिवर्सिटी, अमेरिका
रैंकिंग में तो हार्वर्ड को औपचारिक तौर पर दो नंबर पर ही रखा गया है. अमेरिका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी पिछले साल तीसरे नंबर पर थी.
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स्टैन्फर्ड यूनिवर्सिटी, अमेरिका
अमेरिका की मशहूर स्टैन्फर्ड यूनिवर्सिटी की पिछले साल दूसरी रैंकिंग थी, जो इस बार खिसककर 4 पर आ गई है.
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कैंब्रिज यूनिवर्सिटी, ब्रिटेन
युनाइटेड किंग्डम के 28 विश्वविद्यालय टॉप 200 में हैं. कैंब्रिज देश की दूसरी सबसे अच्छी यूनिवर्सिटी है जिसकी दुनिया में रैंकिंग है 5.
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मसैचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, अमेरिका
तकनीकी शिक्षा के लिए प्रतिष्ठित एमआईटी की औपचारिक रैंकिंग 5 ही रखी गई है, पर नंबर के हिसाब से छह पर आ गया है.
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प्रिंसटन यूनिवर्सिटी, अमेरिका
अमेरिका की प्रिंसटन यूनिवर्सिटी की रैंकिंग है 7. पिछले साल यह 9 नंबर पर थी. टॉप 10 में जर्मनी का कोई विश्वविद्यालय नहीं है लेकिन टॉप 200 में उसके 22 विश्वविद्यालय हैं.
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यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफॉर्निया, बर्कली, अमेरिका
इस सूची के मुताबिक दुनिया की आठवीं सबसे अच्छी यूनिवर्सिटी है कैलिफॉर्निया, जिसका कैंपस बर्कली में है.
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येल यूनिवर्सिटी, अमेरिका
अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी की रैंकिंग है 9, जो कनेक्टिकट में है. यह एक निजी विश्वविद्यालय है.
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शिकागो यूनिवर्सिटी, अमेरिका
नंबर 10 पर है शिकागो यूनिवर्सिटी, जहां से माइक्रोसॉफ्ट के मौजूदा सीईओ सत्य नाडेला पढ़े हैं.
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दूसरा, पहले आरक्षण विभाग के स्तर पर होता था, लेकिन इस अधिनियम के तहत विश्वविद्यालय को आरक्षण लागू करने की इकाई बना दिया गया. अनुसूचित जनजाति के लिए 7.5 प्रतिशत, अनुसूचित जाति के लिए 15 प्रतिशत, ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत और ईडब्ल्यूएस के लिए 10 प्रतिशत सीटें आरक्षित की जाती हैं.
इस फॉर्मूले के हिसाब से 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुल 1005 प्रोफेसरों में कम से कम 75 अनुसूचित जनजाति से होने चाहिए, लेकिन हैं सिर्फ 15. अनुसूचित जाती से कम से कम 151 प्रोफेसर होने चाहिए, लेकिन हैं सिर्फ 69. बाकी पदों पर भी ऐसी ही स्थिति है.
उपकुलपति का पद इकलौता होता है इसलिए उस पर तो आरक्षण लागू नहीं किया जा सकता, लेकिन उस पद के आंकड़े भी इसी बात का सबूत हैं की वंचित वर्गों के लोगों को उस पद तक पहुंचने का मौका नहीं मिल पा रहा है.
नौकरियों में स्थानीय लोगों के लिए आरक्षण का क्या हो सकता है असर
हरियाणा में अब कंपनियों को 75 प्रतिशत नौकरियां स्थानीय लोगों को ही देनी पड़ेंगी. भविष्य में इसके होने वाले असर को समझने के लिए आईटी कंपनियों के संगठन नैस्कॉम ने एक सर्वेक्षण कराया, जिसके नतीजे चौंकाने वाले हैं.
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स्थानीय कोटा
नए कानून के तहत हरियाणा में हर कंपनी को 50,000 रुपए तक के मासिक वेतन वाले पदों पर 75 प्रतिशत नौकरियां हरियाणा में रहने वाले लोगों को देनी होंगी. कानून का पालन ना करने पर 10,000 से लेकर पांच लाख रुपयों तक के जुर्माने का प्रावधान है.
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कंपनियां परेशान
निजी कंपनियों के बीच इस कानून को लेकर शुरू से अच्छी राय नहीं थी, लेकिन नैस्कॉम के सर्वेक्षण में यह खुल कर सामने आ गया. संगठन ने यह सर्वेक्षण आईटी क्षेत्र की 73 कंपनियों में किया जिनके हरियाणा स्थित दफ्तरों में 1.4 लाख लोग काम करते हैं.
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गंभीर असर
नैस्कॉम के सर्वेक्षण में सामने आया है कि इन में से अधिकतर कंपनियों को लगता है कि इस कानून का आईटी क्षेत्र पर गंभीर असर होगा. कुल 80 प्रतिशत कंपनियों ने कहा कि इस कानून का भविष्य में उनके व्यापार पर और निवेश की योजनाओं पर नकारात्मक असर पड़ेगा.
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चली जाएंगी कंपनियां
अधिकतर कंपनियों ने कहा कि इसकी वजह से उन्हें मजबूरन अपनी परियोजनाओं और अपने दफ्तरों को किसी दूसरे राज्य में ले जाना पड़ेगा. इतने वेतन तक के पदों पर जो लोग काम कर रहे हैं वो कर्मचारियों की कुल संख्या का 44 प्रतिशत हैं और उनमें से 81 प्रतिशत हरियाणा से बाहर के हैं.
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दूसरी जरूरतों में कमी
कंपनियों ने यह भी कहा कि इस की वजह से उन्हें भर्ती में विविधता और समावेश जैसी दूसरी नीतियों का पालन करने में दिक्कत आएगी.
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गुरुग्राम में सबसे ज्यादा असर
इस कानून का सबसे बड़ा असर गुरुग्राम पर पड़ेगा जहां हरियाणा में सक्रिय आईटी क्षेत्र की 500 से भी ज्यादा कंपनियों में से अधिकतर के दफ्तर हैं. इनमें चार लाख से भी ज्यादा लोग काम करते हैं. नए कानून का इनमें से करीब 1.5 लाख नौकरियों पर असर पड़ेगा.
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अनुपालन बोझ बढ़ेगा
अधिकांश कंपनियों ने कहा कि नए कानून से उनका अनुपालन का बोझ बढ़ जाएगा और वो अपनी जरूरतों के हिसाब से भर्तियां नहीं कर सकेंगी.
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हुनर में कमी
कंपनियों ने यह भी कहा कि इस कानून का पालन इसलिए भी मुश्किल होगा क्योंकि इस वेतन तक के स्तरों पर काम करने वाले स्थानीय उम्मीदवारों में कम्युनिकेशन और तकनीक दोनों तरह के हुनर की कमी है.