पंजाब से लाखों रुपये देकर 'स्वर्ग' में नौकरी करने आये हजारों लोग इटली के खेतों में अफीम खाकर 13-13 घंटे मजदूरी कर रहे हैं. बदले में मिलती है भूख, कर्ज, जिल्लत, नशाखोरी और दासों की जिंदगी.
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करीब तीन साल से अमनदीप के लिए हर कामकाजी दिन अफीम खाने से शुरू होता है और हेरोइन के कश पर खत्म. इन दोनों के बीच में वह 13 घंटे तक तरबूज ढोता है. हजारों भारतीय मजदूर इसी स्थिति में इटली के रोम शहर के दक्षिण में मौजूद पोंटीन मार्शे में काम कर रहे हैं. 30 साल का अमनदीप (बदला हुआ नाम) कहता है कि नशीली दवाएं उसे चलाती रहती हैं. रॉयटर्स से बातचीत में अमनदीप ने कहा, "गर्मियों में यहां बहुत गर्मी होती है, पीठ दुखती है. थोड़ी सी अफीम मिल जाये तो फिर आप थकते नहीं हैं. ज्यादा ले लिया तो फिर नींद आने लगती है. मैंने बहुत थोड़ा सा लिया है सिर्फ काम करने के लिए."
पोंटिन मार्शे में करीब 30 हजार भारतीय रहते हैं. इनमें से ज्यादातर पंजाब से आये सिख हैं. 1930 के दशक में इटली की फासीवादी सरकार ने इन्हें कृषि कामों के लिए अलग कर दिया था. ज्यादातर लोग मजदूरी करते हैं और हाड़तोड़ मेहनत के बदले जो पैसा मिलता है वह इतना कम होता है कि उन एजेंटों का कर्ज चुकाने में ही खर्च हो जाता है जो शानदार नौकरी का लालच दे कर उन्हें यहां अवैध तरीके से लाते हैं. यह एक तरह से कर्ज में फंसे बंधुआ मजदूर हैं जो संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक आधुनिक दौर की सबसे प्रचलित गुलामी प्रथा है. एक अनुमान है कि इस तरह से पूरी दुनिया में साढ़े चार करोड़ से ज्यादा लोग दासों का जीवन जी रहे हैं.
2017 में कहां कितने गुलाम
दुनिया में दासता आज भी जारी है. ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स के मुताबिक आज भी तीन करोड़ 58 लाख आधुनिक गुलाम हैं. बीते एक साल में शीर्ष 10 देशों की कतार में कई नए देश शामिल हुए हैं. भारत यहां सबसे ऊपर दिखता है.
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नंबर 10, इंडोनेशिया
इंडोनेशिया में सात लाख से ज्यादा लोग गुलाम हैं. यह शीर्ष के 10 देशों में इसी साल शामिल हुआ है.
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नंबर 9, डीआर कांगो
इस अफ्रीकी देश में एक साल के भीतर दासों की संख्या दोगुनी हो गई है अब यहां 8 लाख से ज्यादा गुलाम हैं.
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नंबर 8, नाइजीरिया
यहां 8 लाख 75 हजार गुलाम हैं.
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नंबर 7, रूस
दुनिया की ताकत बनने को लड़ते रूस में 10 लाख गुलाम हैं.
देश की 1.13 फीसदी आबादी यानी करीब 21 लाख 34 हजार लोग गुलाम हैं.
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नंबर 2, चीन
दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन में 33 लाख गुलाम हैं. आबादी के लिहाज से 0.247 फीसदी.
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नंबर 1, भारत
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में एक करोड़ 83 लाख लोग गुलाम हैं. ये भारत की कुल आबादी का 1.4 फीसदी है.
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नशे के गुलाम
भारतीय मजदूर उन गांवों और सागर किनारे शहरों में बसे हैं जहां रोमन छुट्टियां मनाते हैं लेकिन इन लोगों की जिंदगी अलग है. टूटी फूटी और ना के बराबर इटैलियन बोलने वाले ये लोग साइकल पर हर रोज मीलों का सफर तय करते हैं. यहां की हजारों फार्मों और ग्रीनहाउसों में मूली, तरबूज, किवी और दूसरी चीजें पैदा होती हैं.
मजदूरों, डॉक्टरों, पुलिस और इनके अधिकार के लिए काम करने वाली संस्थाओं से बात करें तो पता चलता है कि इन मजदूरों में ऐसे लोगों की तादाद बहुत बड़ी है जो काम के लंबे घंटों, खराब हालत और पैसों की कमी से लड़ने के लिए नशीली दवाओं का सहारा लेते हैं. ज्यादातर मजदूर सूखे पोस्ता दाना चबाते हैं जिनमें कम मात्रा में मॉर्फीन होती है. हालांकि लंबे समय तक इसे चबाने पर इसकी आदत लग जाती है. अमनदीप जैसे कुछ मजदूर हेरोइन जैसी दूसरी ड्रग्स भी लेते हैं.
लातिना के एक अस्पताल में नशीली दवाओं के आदी लोगों का इलाज करने वाले डॉक्टर एजियो मातचियोनी ने बताया, "ये कोई अलग तरह के नशेड़ी नहीं हैं. ये लोग तनाव के साथ जीने के लिए ड्रग्स लेते हैं...क्योंकि इनके साथ दासों जैसा व्यवहार होता है."
21वीं सदी के "गुलाम"
मानवाधिकार संगठन ह्यूमन राइट्स वॉच ने मानवाधिकारों के हनन के लिए एक बार फिर कतर की आलोचना की है. फुटबॉल विश्व कप की मेजबानी करने जा रहे कतर में विदेशी मजदूरों की दयनीय हालत है.
अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल संघ (फीफा) ने विवादों के बावजूद कतर को 2022 के वर्ल्ड कप की मेजबानी सौंपी. मानवाधिकार संगठनों का आरोप है कि कतर में स्टेडियम और होटल आदि बनाने पहुंचे विदेशी मजदूरों की बुरी हालत है.
एमनेस्टी इंटरनेशनल भी कतर पर विदेशी मजदूरों के शोषण का आरोप लगा चुका है. वे अमानवीय हालत में काम कर रहे हैं.
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एमनेस्टी के मुताबिक वर्ल्ड कप के लिए निर्माण कार्य के दौरान अब तक कतर में सैकड़ों विदेशी मजदूरों की मौत हो चुकी है.
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मानवाधिकार संगठनों के मुताबिक कतर ने विदेशी मजदूरों की हालत में सुधार का वादा किया था, लेकिन इसे पूरा नहीं किया गया है.
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वर्ल्ड कप के लिए व्यापक स्तर पर निर्माण कार्य चल रहा है. उनमें काम करने वाले विदेशी मजदूरों को इस तरह के कमरों में रखा जाता है.
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स्पॉन्सर कानून के तहत मालिक की अनुमति के बाद ही विदेशी मजदूर नौकरी छोड़ या बदल सकते हैं. कई मालिक मजदूरों का पासपोर्ट रख लेते हैं.
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ब्रिटेन के "द गार्डियन" अखबार के मुताबिक कतर की कंपनियां खास तौर नेपाली मजदूरों का शोषण कर रही हैं. अखबार ने इसे "आधुनिक दौर की गुलामी" करार दिया.
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अपना घर और देश छोड़कर पैसा कमाने कतर पहुंचे कई मजदूरों के मुताबिक उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि हालात ऐसे होंगे.
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कई मजदूरों की निर्माण के दौरान हुए हादसों में मौत हो गई. कई असह्य गर्मी और बीमारियों से मारे गए.
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कतर से किसी तरह बाहर निकले कुछ मजदूरों के मुताबिक उनका पासपोर्ट जमा रखा गया. उन्हें कई महीनों की तनख्वाह नहीं दी गई.
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कुछ मजदूरों के मुताबिक काम करने की जगह और रहने के लिए बनाए गए छोटे कमचलाऊ कमरों में पीने के पानी की भी किल्लत होती है.
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मजदूरों की एक बस्ती में कुछ ही टॉयलेट हैं, जिनकी साफ सफाई की कोई व्यवस्था नहीं है.
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कर्ज के बंधक
अमनदीप को दो साल पहले नशे के इलाज के लिए अस्पताल में भी भर्ती होना पड़ा था. वह पंजाब से इटली 2008 में आया था, आंखों में बेहतर नौकरी का सपना लेकर. उसने एजेंटे को 10 लाख रुपये दिये थे जिनसे उसके यात्रा दस्तावेज और हवाई जहाज का टिकट खरीदा गया था. इनमें से आधा पैसा अमनदीप ने पहले ही दे दिया और आधा पैसा एजेंट ने कर्ज के रूप में उससे वसूला. शर्त ये थी कि उसे कर्ज चुकाने के लिए पहले सात महीने तक मुफ्त में काम करना होगा. अमनदीप ने कहा, "मेरे पास किराये और खाने के पैसों के अलावा और कुछ नहीं बचता."
शरणार्थियों के अधिकार के लिए काम करने वाले संगठन मिग्राजियोनी के मार्को ओमिजीलो बताते हैं कि कई भारतीय मजदूर जो यहां पिछले 10 सालों में आये, उनकी भी यही कहानी है. उन्होंने कहा, "तस्कर इन लोगों से काम, घर और कागजाज के अलावा यात्रा और जरूरी चीजें मुहैया कराने का वादा करते हैं. इन्हें यहां की भाषा भी नहीं आती." नये नये आये मजदूरों से कई बार उनके कागजात भी जब्त कर लिये जाते हैं ताकि कर्ज पूरा होने तक उन्हें अपनी मुट्ठी में रखा जा सके. इसके बाद ये लोग यहीं रह जाते हैं, यहां का सिख समुदाय इनकी मदद करता है हालांकि फिर भी शोषण तो होता ही है.
कई फार्मों में 220-350 रूपये प्रति घंटे की मजदूरी मिलती है जबकि यहां न्यूनतम मजदूरी की दर करीब 600 रूपये प्रति घंटा है. इसके अलावा इन्हें बिना रुके लगातार कई कई घंटे काम करना होता है. कई लोगों को जिन्हें नियमित कांट्रैक्ट मिला है उनकी सेलरी स्लिप पर काम के दिन घटा कर लिखे होते हैं. एक मजदूर ने कहा, "मैं मेरा कांट्रैक्ट नहीं पढ़ सकता. यहां आने से पहले मैं इटली को स्वर्ग समझता था लेकिन मुझे अब तक नहीं पता कि वो स्वर्ग है कहां?"
आधुनिक गुलामी के खिलाफ मोर्चा
आधुनिक गुलामी का आशय उस स्थिति से है जब कोई इंसान किसी डर, खतरे, जोर या जबरदस्ती के कारण कहीं से निकल ना सके. करीब 15 साल से एक वैश्विक समझौते के तहत दुनिया भर में जारी मानव तस्करी को रोकने के प्रयासों पर एक नजर.
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2000
सन 2000 में संयुक्त राष्ट्र ने एक 'प्रोटोकॉल टू प्रिवेंट' पास किया. मकसद था मानव तस्करी को रोकना और अंतरराष्ट्रीय संगठित अपराध से जुड़े तस्करों को सजा दिलवाना. कानूनी बाध्यता तय करने वाला यह पहला वैश्विक समझौता था.
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2001
सन 2001 में पश्चिम अफ्रीकी देशों के आर्थिक समुदाय ने गुलामी और मानव तस्करी से निपटने के लिए एक एक्शन प्लान पर सहमति बनाई.
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2002
सन 2002 में अंतरराष्ट्रीय कोकोआ अभियान शुरु हुआ. यह चॉकलेट इंडस्ट्री की बड़ी कंपनियों में लगे बाल मजदूरों को बचाने वाला और गुलामी के खिलाफ काम करने वाला गुट था. ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी क्षेत्र के सभी लोग मिल कर अपनी सप्लाई श्रृंखला से गुलामी को मिटाने के लिए एकजुट हो गए.
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2004
सन 2004 में ब्राजील में गुलाम श्रमिकों की प्रथा के खात्मे के लिए नेशनल पैक्ट लॉन्च किया. नागरिक संगठन, व्यवसायिओं और सरकार ने मिलकर कंपनियों की सप्लाई चेन में गुलाम श्रमिकों को हटाने का काम किया. इसके अलावा एक "डर्टी लिस्ट" बनाई जाने लगी, जिसमें उन कंपनियों का नाम होता जो गुलामों से बनवाए उत्पाद बेचें. 2004 में ही संयुक्त राष्ट्र ने मानव तस्करी पर अपना एक विशेष दूत नियुक्त किया.
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2005
सन 2005 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन, आईएलओ ने बंधुआ मजदूरी पर अपनी पहली ग्लोबल रिपोर्ट जारी की. इस रिपोर्ट में दुनिया भर में गुलामों की संख्या 1.23 करोड़ बताई गई. 2012 में यही संख्या बढ़ कर 2.09 करोड़ तक पहुंच गई.
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2008
सन 2008 में मानव तस्करी के खिलाफ एक यूरोपीय परिषद का गठन हुआ. इन्होंने ही तस्करी को मानवाधिकारों का उल्लंघन मानते हुए इसके खिलाफ पहला अंतरराष्ट्रीय कानून बनाया. तस्करी के शिकार हुए पीड़ितों को एक न्यूनतम सुरक्षा मुहैया कराए जाने की भी गारंटी हुई.
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2011
सन 2011 में आईएलओ ने घरेलू नौकर के रूप से काम करने वालों के मूलभूत अधिकारों को तय करने का काम किया. 2011 में ही अमेरिकी प्रांत कैलिफोर्निया में सप्लाई चेन एक्ट में कैलिफोर्निया ट्रांसपेरेंसी लागू हुई. इसके अनुसार सभी बड़े निर्माताओं और रीटेल कंपनियों को बताना जरूरी था कि वे बंधुआ मजदूरी के खिलाफ क्या प्रयास कर रहे हैं.
2012 में अमेरिका की बाजार विनिमय परिषद, एसईसी ने कॉन्फ्लिक्ट मिनरल्स रूल लागू किया. इससे शेयर बाजार में दर्ज बड़ी बड़ी कंपनियों को यह भी बताना जरूरी होता है कि उनके उत्पाद में किसी ऐसे खनिज का इस्तेमाल तो नहीं हुआ है जिन्हें पूर्वी कांगो या उसके जैसे युद्ध या संघर्षरत देशों से निकाला गया हो.
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2013
सन 2013 में वॉक फ्री फाउंडेशन का पहला ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स सामने आया. इसमें गुलामों की संख्या 2.98 करोड़ पाई गई थी, जबकि 2016 की रिपोर्ट में यह 4.56 करोड़ दर्ज हुई है. 2014 में आईएलओ ने जबरन मजदूरी पर प्रोटोकॉल बनाया, जिससे 1930 के उनके कन्वेंशन में मानव तस्करी जैसी आधुनिक युग की समस्याओं को भी शामिल किया गया.
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2015
सन 2015 में ब्रिटेन में मॉडर्न स्लेवरी एक्ट लागू हुआ. इसके अनुसार उद्योगों को बताना पड़ता है कि उन्होंने अपनी सप्लाई चेन में गुलामी को बढ़ावा ना देने के लिए क्या कदम उठाए हैं. ब्रिटेन में इसका दोषी पाए जाने पर जेल की सजा को पहले के 14 साल से बढ़ाकर आजीवन कारावास में बदल दिया गया है. तस्कर के पीड़ित को मुआवजो भी देना पड़ेगा.
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2015
सैाल 2015 में संयुक्त राष्ट्र ने 17 स्थायी विकास लक्ष्य तय किए, जिनमें गुलामी का नामोनिशान मिटाना और जबरन श्रम एवं मानव तस्करी को खत्म करना शामिल है.
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कौन है जिम्मेदार
काम की देखभाल के लिए फार्म मालिकों ने सिख समदाय के लोगों को ही काम पर रखा है जिन्हें कापोराली कहा जाता है. कई बार ये लोग भी बीच में कुछ पैसा हजम कर जाते हैं. भारतीय मजदूरों के एक संगठन से जुड़े गुरुमुख सिंह बताते हैं, "मालिक अगर चार यूरो दे तो ये लोग 3.80 यूरो बताते हैं और बाकी पैसा अपने पास रख लेते हैं."
यहां के मुख्य अभियोजक आंद्रिया जे गैसपेरिस ने कहा कि इन मामलों की जांच करना मुश्किल है क्योंकि बहुत कम लोग ही बोलने को तैयार होते हैं. उनका कहना है, "अगर वो शिकायत नहीं करते तो हम उनके लिए कुछ नहीं कर सकते." शिकायत करने वाले इसलिए भी डरते हैं कि उन्हें फिर काम नहीं मिलेगा. 2016 में गुरुमुख सिंह ने इसकी काट निकाली और संगठन बना कर बेहतर मजदूरी के लिए हड़ताल की. इन प्रदर्शनों ने दूसरे मजदूरों को भी सामने आने के लिए प्रेरित किया.
इसके बाद गुरुमुख सिंह को धमकियां मिलीं और उनके साथ दुर्व्यवहार भी हुआ. पुलिस ने उसके बाद दर्जनों बार छापा मारा है. दो लोगों की गिरफ्तारी भी हुई है. इटली के किसानों की संस्था के प्रमुख पीएर्टो ग्रेको कहते हैं कि इटली की कुख्यात लालफीताशाही भी इसके लिए कुछ हद तक जिम्मेदार है. क्योंकि अगर लालफीताशाही कम हो तो किसान आसानी से और ज्यादा लोगों को नौकरी पर रख सकेंगे.