भारत में बाकियों से कम कमाते हैं मुसलमान और महिलाएं: रिपोर्ट
१५ सितम्बर २०२२
भारत में महिलाएं पुरुषों से और मुसलमान गैर-मुस्लिमों से हजारों रुपये कम कमा रहे हैं और इसकी वजह उनकी पहचान है. एक ताजा रिपोर्ट में इस भेदभाव पर विस्तार से बात की गई है.
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भारत में महिलाएं इसलिए श्रम क्षेत्र का हिस्सा नहीं बन पा रही हैं क्योंकि एक तो उन्हें पैसा बहुत कम मिलता है और उन्हें लैंगिक भेदभाव भी झेलना पड़ता है. मानवाधिकार संगठन ऑक्सफैम ने अपनी ताजा रिपोर्ट में यह बात कही है.
ऑक्सफैम की रिपोर्ट कहती है कि भारत अगर महिलाओं को श्रम क्षेत्र में शामिल करना चाहता है तो सरकार को बेहतर वेतन, प्रशिक्षण और नौकरियों में आरक्षण जैसी सुविधाएं उपलब्ध करानी होंगी. ‘इंडिया डिस्क्रिमिनेशन रिपोर्ट 2022' शीर्षक से जारी की गई यह रिपोर्ट सुझाव देती है कि नियोक्ताओं को भी महिलाओं को काम पर रखने के लिए प्रोत्साहित किए जाने की जरूरत है.
भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक 2021 में भारतीय श्रम शक्ति में महिलाओं की हिस्सेदारी सिर्फ 25 प्रतिशत थी. दुनिया की उभरती अर्थव्यवस्थाओं ब्राजील, रूस, चीन और दक्षिण अफ्रीका में यह सबसे कम है. 2020-21 के भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक सिर्फ 25.1 प्रतिशत महिलाएं श्रम शक्ति का हिस्सा हैं. यह 2004-05 से भी कम हो गया है जबकि 42.7 प्रतिशत महिलाएं काम कर रही थीं.
"महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित दिल्ली"
एनसीआरबी ने साल 2021 के आंकड़े जारी कर दिए हैं. इन आंकड़ों से पता चलता है कि महिलाओं के लिए महानगर कितने असुरक्षित हैं. देश की राजधानी दिल्ली को एनसीआरबी ने अपनी रिपोर्ट में महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित बताया.
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औसतन रोज दो बच्चियों से बलात्कार
एनसीआरबी की साल 2021 की रिपोर्ट कहती है कि दिल्ली में औसतन हर रोज दो नाबालिग लड़कियों से बलात्कार किए गए. इस रिपोर्ट में महिलाओं के खिलाफ अपराध को लेकर जो जानकारी सामने आई है वह काफी चौंकाने वाली है.
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"महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित दिल्ली"
साल 2020 की तुलना में 2021 में महिलाओं के खिलाफ अपराध काफी बढ़ा है. एनसीआरबी के डेटा के मुताबिक दिल्ली में जहां 2020 में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के 9,782 मामले दर्ज किए गए वहीं यह 40 फीसदी उछाल के साथ 2021 में 13,892 हो गए.
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सबसे ज्यादा अपहरण भी दिल्ली में
महानगरों में सबसे ज्यादा अपहरण के मामले भी दिल्ली में ही दर्ज हुए हैं. 2021 में राजधानी दिल्ली में 3,948 अपहरण के मामले दर्ज हुए.
तस्वीर: Aamir Ansari/DW
हर तरह की क्रूरता
20 लाख से अधिक आबादी वाले अन्य महानगरों की तुलना में दिल्ली में पति द्वारा क्रूरता के 4,674 मामले दर्ज किए गए. 2021 में लड़कियों के रेप के 833 मामले दर्ज किए गए. एनसीआरबी के डेटा के मुताबिक दिल्ली में 2021 में दहेज हत्या के 136 मामले दर्ज किए गए.
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कम नहीं हो रहे अपराध
एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक देश में 2021 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के कुल 4,28,278 मामले दर्ज किए गए, जो 2020 की तुलना में 15.3 प्रतिशत (3,71,503 मामले) की वृद्धि दर्शाता है.
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बच्चों के खिलाफ भी बढ़े अपराध
2021 के दौरान बच्चों के खिलाफ अपराध के कुल 1,49,404 मामले दर्ज किए गए, जो 2020 (1,28,531 मामले) की तुलना में 16.2 फीसदी की बढ़ोतरी दिखाता है.
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कम नहीं मुंबई-बेंगलुरू
19 महानगरों में महिलाओं के खिलाफ अपराध सबसे अधिक दिल्ली में दर्ज किए गए तो वहीं वित्तीय राजधानी मुंबई इस मामले में दूसरे स्थान पर रही. यहां 5,543 मामले दर्ज किए गए इसके बाद बेंगलुरू में 3,127 केस आए.
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कुल घटनाओं में 15 फीसदी की वृद्धि
एनसीआरबी के मुताबिक भारतीय दंड संहिता के तहत दर्ज होने वाले मामलों में भी 2021 में बढ़ोतरी दर्ज की गई. 2019 में ऐसे मामले 2,94,653 थे, जो 2020 में घटकर 2,45,844 हुए थे, लेकिन 2021 में इनकी संख्या दोबारा बढ़कर 2,89,045 हो गई.
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रिपोर्ट कहती है कि इन वर्षों में महिलाओं का काम छोड़ जाना एक चिंता का विषय है जबकि इस दौरान भारत में तेज आर्थिक वृद्धि हुई है. बीते दो साल में कोरोना वायरस महामारी ने भी महिलाओं को बड़े पैमाने पर श्रम बाजार से बाहर कर दिया है क्योंकि नौकरियां कम हो गईं और जिन लोगों की नौकरियां इस दौरान गईं, उनमें महिलाएं ज्यादा थीं.
महिलाओं के साथ भेदभाव जारी
ऑक्सफैम इंडिया के प्रमुख अमिताभ बेहर कहते हैं कि महिलाओं का भेदभाव एक बड़ी समस्या है. एक बयान में बेहर ने कहा, "यह रिपोर्ट दिखाती है कि अगर पुरुष और महिलाएं समान स्तर पर शुरुआत करते हैं तो महिलाओं को आर्थिक क्षेत्र में भेदभाव झेलना होगा. वह वेतन में पीछे छूट जाएंगी और अस्थायी काम या फिर स्वरोजगार में भी आर्थिक रूप से पीछे छूट जाएंगी.”
रिपोर्ट के मुताबिक 98 प्रतिशत गैरबराबरी की वजह लैंगिक भेदभाव होता है. बाकी दो प्रतिशत शिक्षा और अनुभव आदि के कारण हो सकता है. रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि समाज के अन्य तबकों को भी भेदभाव झेलना पड़ता है.
पिछले महीने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी महिलाओं को काम करने के लिए बढ़ावा देने की जरूरत का जिक्र किया था. एक भाषण में उन्होंने राज्यों से आग्रह किया था कि काम के घंटों को लचीला रखा जाए ताकि महिलाओं को श्रम शक्ति का हिस्सा बनाया जा सके. उन्होंने कहा था कि अपनी नारी शक्ति का इस्तेमाल किया जाए तो "भारत अपने आर्थिक लक्ष्यों तक” जल्दी पहुंच सकता है.
भारत का अनोखा बाजार, जिसे केवल महिलाएं चलाती हैं
इस बाजार को 'मदर्स मार्केट' भी कहते हैं. मणिपुर की राजधानी इंफाल में लगने वाला यह बाजार करीब 500 साल पुराना है. यहां करीब चार हजार महिलाएं दुकान लगाती हैं. पुरुषों केवल खरीदारी के लिए ही यहां आ सकते हैं.
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यहां सारी दुकानदार महिलाएं ही हैं
राजधानी इंफाल के बीचोबीच बने इस बाजार का नाम है, ईमा कैथल. स्थानीय मैतेई भाषा में ईमा का मतलब मां होता है. इसीलिए इस बाजार को मदर्स मार्केट भी कहा जाता है. यह बाजार महिलाएं ही चलाती हैं. यहां पुरुषों की भूमिका बस इतनी ही है कि वे खरीदारी करने आ सकते हैं. यह एशिया में महिलाओं की ओर से संचालित सबसे बड़ा बाजार है.
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500 साल पुराना है यह बाजार
सरकारी रेकॉर्ड्स के मुताबिक, इस बाजार की शुरुआत 1533 में हुई थी. इसका पहला जिक्र 1786 में मणिपुर के गजेटियर में मिलता है. इसमें भी इसका जिक्र महिला बाजार के तौर पर ही मिलता है. यहां करीब चार हजार महिलाएं दुकान लगाती हैं. कई तो ऐसी हैं, जिनके परिवार की महिलाएं पीढ़ियों से यहां दुकान लगा रही हैं.
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परिवार चलाने की जिम्मेदारी महिलाओं पर
पुराने दिनों में मणिपुर के मैतेई जनजाति के पुरुष या तो जंग में लगे रहते थे या मजदूरी करने दूरदराज के इलाकों में चले जाते थे. ऐसे में महिलाओं के ऊपर परिवार की देखरेख की जिम्मेदारी आ गई. इसी जिम्मेदारी से फिर धीरे-धीरे यह बाजार अस्तित्व में आया. यहां कुछ ऐसी महिलाओं को भी दुकान के लिए जगह दी गई है, जिनके पति उग्रवादी हिंसा का शिकार हो गए हैं.
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दिलचस्प हैं इस बाजार के कायदे
यह बाजार तीन भागों में बंटा है- पुराना बाजार, लक्ष्मी बाजार और नया बाजार. किसी में सब्जी, मछली और फल जैसी रोजमर्रा की चीजें मिलती हैं, तो किसी में परंपरागत कपड़े और अन्य घरेलू सामान. इस बाजार के कुछ दिलचस्प नियम हैं. मसलन, जो महिला कपड़े बेचती है वह कपड़े ही बेचेगी. उसकी जगह सब्जी या कोई और सामान नहीं बेचेगी. यह लिखित कानून नहीं है, लेकिन महिलाएं इसे मानती हैं.
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पीढ़ियों तक ट्रांसफर होता रहता है लाइसेंस
बाजार में दुकान लगाने के लिए लाइसेंस जरूरी है, जो इंफाल नगर पालिका जारी करती है. यह लाइसेंस पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसी महिला के परिवार के पास रहता है. इसके एवज में उन्हें नगरपालिका को सालाना मामूली फीस चुकानी पड़ती है. जिन महिलाओं के पास लाइसेंस नहीं होता, वे बाजार के बाहर पटरी पर बैठकर सामान बेचती हैं. इनमें ज्यादातर इंफाल से दूर पहाड़ी जिलों से आती हैं.
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अपने हक के लिए अंग्रेजों से संघर्ष भी किया
1891 में ब्रिटिश काउंसिल प्रशासन ने मणिपुर पर आर्थिक और राजनीतिक सुधार लगाए. अंग्रेज मनमाने तरीके से स्थानीय जरूरतों को पूरा किए बिना यहां पैदा होने वाले अनाज को बाहर बेचने लगे. इससे यहां लोगों के भूखों मरने की नौबत आ गई. तब इस बाजार की महिलाओं की अगुवाई में संघर्ष किया गया. अंग्रेजों ने इस बाजार को विदेशी या बाहरी लोगों को बेचने की कोशिश की. इसका भी महिलाओं ने खूब विरोध किया.
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ऑक्सफैम की रिपोर्ट कहती है कि बड़ी संख्या में महिलाएं रोजगार इसलिए नहीं कर पाती हैं क्योंकि उनके ऊपर ‘पारिवारिक जिम्मेदारियां' होती हैं और उन्हें सामाजिक नियम-कायदों को मानना पड़ता है.
भारत में महिलाओं और अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव को उजागर करती ऐसी रपटें पहले भी आती रही हैं. यह एक जाना-माना तथ्य है कि भारत में महिलाएं पुरुषों के मुकाबले कम काम करती हैं और अधिकतर महिलाओं को कार्यस्थल पर शोषण अथवा भेदभाव से गुजरना पड़ता है. इसके अलावा एक समस्या उनकी घरेलू और सामाजिक जिम्मेदारियां भी हैं जो उन्हें काम करने से हतोत्साहित करती हैं.
रिपोर्ट के मुताबिक, "पितृसत्ता के कारण ही पुरुषों के समान और यहां तक कि उनसे बेहतर क्षमता और कौशल के बावजूद महिलाएं श्रम बाजार से बाहर रहती हैं और समय के साथ इसमें कोई सुधार नहीं हुआ है.”
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हजारों रुपये का फर्क है
ऑक्सफैम के शोधकर्ताओं ने इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिए 2004 से 2020 के बीच के सरकारी आंकड़ों का विश्लेषण किया है. उन्होंने अलग-अलग तबकों को नौकरियां, वेतनमान, स्वास्थ्य, कृषि कर्ज आदि का अध्ययन किया. इस अध्ययन में उन्होंने पाया कि हर महीने पुरुष महिलाओं से 4,000 रुपये ज्यादा कमाते हैं. एक गैर मुस्लिम और मुस्लिम के बीच यह अंतर 7,000 रुपये का है जबकि दलित और आदिवासी बाकी लोगों से महीनावार 5,000 रुपये कम कमाते हैं.
यह रिपोर्ट कहती है, "महिलाओं के अलावा ऐतिहासिक रूप से दमित समुदाय जैसे दलित और आदिवासी और धार्मिक अल्पसंख्यक जैसे कि मुसलमान भी नौकरी खोजने, रोजी-रोटी कमाने और कृषि आदि क्षेत्र में कर्जा पाने के लिए भेदभाव का सामना करते हैं.” रिपोर्ट बताती है कि कोविड-19 महामारी के दौरान बेरोजगारी में सबसे ज्यादा वृद्धि (17 प्रतिशत) मुसलमानों के बीच हुई.
बेहर स्पष्ट करते हैं कि श्रम बाजार में भेदभाव का अर्थ क्या है. वह कहते हैं, "भेदभाव का अर्थ है कि समान क्षमता वाले लोगों के साथ अलग-अलग तरह का व्यवहार किया जाए और इसकी वजह उनकी पहचान या सामाजिक पृष्ठभूमि हो. महिलाओं और अन्य सामाजिक तबकों में गैरबराबरी सिर्फ गरीबी, अनुभव की कमी और शिक्षा तक उनकी कम पहुंच ही नहीं है बल्कि भेदभाव भी है.”