कराची: घट रही है पीढ़ियों पहले गोवा से गए ईसाइयों की संख्या
८ मार्च २०२४पुर्तगाल ने भारत के पश्चिमी तट पर स्थित गोवा पर 1510 में कब्जा किया था. उसके बाद उसकी एक बड़ी आबादी ने ईसाई धर्म अपना लिया. उनमें से ज्यादातर गोवा के कैथोलिक बने.
19वीं सदी के पूर्वार्ध में, गोवा के ईसाइयों की एक छोटी सी आबादी बंदरगाह वाले शहर कराची में जा बसी. वहां उन्हें व्यापारिक प्रतिष्ठान खड़े किए और धीरे-धीरे अपनी संख्या में इजाफा किया.
1886 में गोवा-पुर्तगाली एसोसिएशन का गठन हुआ. उसके बाद इस समुदाय ने कराची शहर के निर्माण और सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में बेशकीमती योगदान किए जिनमें शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और बेमिसाल इमारतों का निर्माण भी शामिल था.
ऐसी ही एक अद्भुत इमारत, गोवा-पॉर्टुगीज हॉल या गोवन जिमखाना है जिसे मशहूर यहूदी वास्तुकार मोसेस सोमाके ने डिजाइन किया था. उसका निर्माण 20वीं सदी की शुरुआत में हुआ. 1947 में भारत-पाक विभाजन के बाद भी कराची के गोवा वालों के लिए हालात पहले जैसे ही रहे. लेकिन 1980 के दशक में उनकी संख्या गिरने लगी.
बेहतर स्थितियों का वादा
एडवर्टाइजिंग में पूर्व क्रिएटिव डायरेक्टर फ्रेडी नजारेथ ने डीडब्लू को बताया, "गोवा पर पुर्तगालियों के हमले के बाद बहुत से स्थानीय लोग ईसाईयत की ओर मुड़ गए, ज्यादातर धर्मांतरण जबरन हुआ था." वो बताते हैं, "मेरे नाना कराची में पैदा हुए थे. मेरी मां एक सच्ची गोवावाली थी. मेरे पिता भारत में मंगलुरू से थे. उनका परिवार गोवा से मंगलुरू चला गया था."
नजारेथ बताते हैं कि कराची में गोवा वालों की अधिकांश आबादी आर्थिक कारणों से चली गई. वो कहते हैं, "पहली लहर में एंग्लोइंडियन लोग थे जो बहुत से गोवा वालों के साथ कराची छोड़कर यूके चले गए. वहां से वे कनाडा के मांट्रियल जा बसे."
आर्किटेक्ट और सिटी प्लानर आरिफ हसन, गोवा वालों के शहर से प्रस्थान को लेकर थोड़ा अलग रुख रखते हैं. वो कहते हैं, "अंग्रेजों ने 1850 के दशक में जब कराची में अपने व्यापारिक प्रतिष्ठान स्थापित कर कारोबार शुरू किया तो उस समय गोवा वाले पहले-पहल कैथोलिक संस्थानों के साथ अध्यापकों के रूप में कराची आए थे." हसन कहते हैं कि 1870 के दशक में और भी लोग गोवा से आते गए.
हसन बताते हैं, "उनके स्कूल और चर्च (सेंट पैट्रिक कैथेड्रल, गोवलन यूनियन हॉल और सेंट जोसेफ स्कूल आदि) 1850 के दशक से लेकर सदी के आखिर तक बनते रहे." ये लोग, बंटवारे के बाद भी किसी झंझट के बगैर सदर इलाके के इर्द-गिर्द अपने मोहल्लों में उत्सव मनाते थे. लेकिन 1970 के दशक के आखिरी वर्षों में ईसाई महिलाओं की पोशाकों को लेकर विरोध होने लगा.
हसन कहते हैं, "उस दौरान पाकिस्तान राष्ट्रीय गठबंधन (मजहबी) का आंदोलन जोर पकड़ रहा था. उसी में महिलाओं के स्कर्ट और ब्लाउज पहनने को लेकर आपत्ति उठने लगी, इसीलिए ईसाई समुदाय कराची से निकलने लगा. मेरे ख्याल से 1980 से 1990 के दौरान गोवा के ईसाइयों ने कराची छोड़ना शुरू किया था."
1970 के दशक के आखिरी वर्षों में बहुत से इस्लामिक दलों ने जुल्फिकार अली भुट्टो की सरकार के खिलाफ रैलिया निकाली थीं. आगे चलकर एक फौजी बगावत में जनरल जिया-उल हक ने भुट्टो सरकार को अपदस्थ कर दिया था. हक ने 1980 के दशक के आखिरी वर्षों तक हुकूमत चलाई. उन्हीं के शासनकाल में देश में इस्लामीकरण का अभियान शुरू हुआ.
विदेशों में अवसर
कराची स्थित एक एनजीओ में कम्युनिकेशंस अफसर क्रिस्टोफर वाज कहते हैं, आबादी इसलिए घटी क्योंकि माइनॉरिटी (अल्पसंख्यक) के तौर पर हमारे पास रोजगार के अवसर सीमित रहे हैं. "इसीलिए बहुत से परिवार कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका जा बसे."
इस बात का ठीक ठीक अंदाजा लगाना मुश्किल है कि कराची में अभी गोवा के ईसाई समुदाय के कितने सदस्य रहते हैं. लेकिन अंग्रेजी की टीचर डेलफीन डिमेलो के मुताबिक ये संख्या हजारों में होगी.
उनके दावे का समर्थन किया है स्थानीय व्यापारी मेनिन रोड्रिग्स ने. अपनी किताब "फुटप्रिंट्स ऑन द सैंड्स ऑफ टाइम — हिस्टॉरिकल रिकलेक्शन्स एंड रिफ्लेकशन्स, गोवन्स ऑफ पाकिस्तान (1820-2020)" में उन्होंने लिखा थाः "गोवा के लोग कराची में बदस्तूर रहते हैं, संख्या 10,000 से कम होगी, लेकिन अपेक्षाकृत रूप से शांतिपूर्वक."
जीवनशैली में बदलाव
नजारेथ ने गोवा के ईसाई समुदाय में आ रहे कुछ बदलावों को रेखांकित किया है. वो कहते हैं, "पुराने दिनों में औरतें फ्रॉक पहना करती थी. लेकिन दो या तीन महीने पहले जब मैं वहां गया था, तो मैंने अधिकांश औरतों को शलवार कमीज पहने देखा था." उनके मुताबिक पाकिस्तान में पारंपरिक राष्ट्रीय पोशाक भी वही है.
वो कहते हैं, "हाल में मैं एक शादी में गया था, उसमें भी औरतें शलवार कमीज में थी. उन्होंने फ्रॉक पहनकर नियमित रूप से चर्च जाना छोड़ दिया है क्योंकि खामखां उन्हें अवांछित टिप्पणियां सुनने को मिलती."
अभी भी लोकप्रिय परंपराओं का जिक्र करते हुए वाज कहते हैं, "हमारी बहुत सी यादें भोजन के इर्दगिर्द घूमती हैं. उनमें सबसे आम है, सोरपोटेल की, ये मांस का एक व्यंजन है. बुनियादी तौर पर बीफ की डिश है. फिर शादी की खास रस्में हैं, जैसे कि रोस सेरेमनी जिसमें हम दूल्हे दुल्हन को नारियल तेल और हल्दी का लेप लगाते हैं."
डिमेलो कहती हैं कि उनकी जीवनशैली काफी बदल चुकी है. डिमेलो के मुताबिक, "पहले हम मछली का शोरबा और चावल खाते थे, लेकिन अब नौजवान पीढ़ी फास्ट फूड की शौकीन है और रेस्तरां जाती है. अपने कंजूस बूढ़ों से उलट आज के युवा खुले हाथों से खर्च करना चाहते हैं."