कोरोना वैक्सीन को लेकर पाकिस्तान में कॉन्सपिरेसी थ्योरी
९ दिसम्बर २०२०
पाकिस्तान में बड़े पैमाने पर कोरोना वैक्सीन देने की योजना है लेकिन वहां टीका अभियानों को लेकर पहले से ही कॉन्सपिरेसी थ्योरी मौजूद है. देश में चीनी वैक्सीन देने की योजना है लेकिन साजिश के सिद्धांत कई बार जानलेवा होते हैं.
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डॉ. मोहसिन अली ने भावी वॉलंटियरों से सभी तरह के सवाल सुने हैं, जिनमें कुछ सवाल ऐसे हैं-"क्या यह मेरी प्रजनन क्षमता को खत्म कर देगा? क्या इससे मेरी मौत हो जाएगी और क्या इसमें कोई 5जी चिप है और क्या यह लोगों को एकसाथ नियंत्रित करने की साजिश है?" इस्लामाबाद के शिफा अस्पताल में काम करने वाले डॉ. मोहसिन अली ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स को बताया कि वे इस तरह के कई सवालों का सामना कर चुके हैं.
डॉ. अली कहते हैं, "मैं उन्हें तर्क के साथ जवाब देने की कोशिश करता हूं, कुछ उसके बाद भी इनकार कर देते हैं." पाकिस्तान में कुछ और अस्पताल के अलावा चीनी कंपनी कैनसिनो द्वारा बनाई गई वैक्सीन का तीसरे चरण का ट्रायल इस अस्पताल में भी चल रहा है. सरकार ने पिछले हफ्ते घोषणा की थी कि वह वैक्सीन प्राप्त करने की प्रक्रिया शुरू कर चुकी है लेकिन उसने यह साफ नहीं किया है कि वह कैनसिनो से ही वैक्सीन खरीदेगी या किसी अन्य कंपनी से.
पिछले महीने हुए गैलप सर्वे के मुताबिक देश में एक बार टीका उपलब्ध हो जाता है तो 37 फीसदी आबादी को वह मिल पाएगा. गैलप के एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर बिलाल गिलानी के मुताबिक, "टीका के प्रतिरोध के इतिहास को देखते हुए यह ना केवल पाकिस्तान बल्कि दुनिया के लिए चिंताजनक है क्योंकि वायरस को रोकने के लिए पूरी दुनिया में टीकाकरण निर्भर करता है."
पूरी दुनिया में टीका विरोधी भावनाओं का मुकाबला एक बड़ी समस्या है लेकिन पाकिस्तान किसी और देश के मुकाबले कहीं ज्यादा खतरनाक है. पोलिया अभियान के दौरान दर्जनों लोग हमलों में मारे जा चुके हैं. पोलियो अभियान में शामिल टीमों पर हमले होना आम बात है, ऐसा ही कुछ हाल पड़ोसी देश अफगानिस्तान का है.
भरोसे की कमी
पोलियो के खतरे को लेकर दशकों से सभी लोग अच्छे तरीके से परिचित हैं लेकिन कोविड-19 एक नई बीमारी है और अधिकारी इसके बारे में तत्काल संदेश देने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. पाकिस्तान में टीके के प्रभावशीलता का अध्ययन करने वाले सऊदी अरब की अल-जाफ यूनिवर्सिटी में सहायक प्रोफेसर तौकीर हुसैन मलही कहते हैं, "कई लोग अब भी मानते हैं कि यह असली बीमारी नहीं है."
मौलवी किबला अयाज जो कि देश के सर्वोच्च धार्मिक परिषद के अध्यक्ष हैं और सरकार को सामाजिक और न्यायिक मुद्दों पर राय देते हैं, कहते हैं कि कोविड-19 से जुड़ी कई तरह की अफवाह पश्चिम से फैल रही है और इसका प्रसार सोशल मीडिया से हो रहा है. अयाज कहते हैं, "अभी तक कई विद्वानों ने टीका और इलाज को महत्वपूर्ण बताया है लेकिन हमेशा कट्टर लोग होते हैं, जैसा कि पोलियो अभियान के दौरान देखा गया है."
जब 1982 में यूगांडा के कासेनसेरो में एड्स का पहला मामला सामने आया, तो सबने इसे काला जादू समझा. चार दशक बाद भी यह बीमारी एक बड़ी समस्या बनी हुई है.
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सुर्खियों में आया कासेनसेरो गांव
पश्चिमी यूगांडा के लेक विक्टोरिया इलाके में यह एक छोटा और गरीब गांव है. इसकी सीमा तंजानिया से लगी है. 1982 में गांव अचानक दुनिया भर की सुर्खियों में छा गया, जब कुछ ही दिनों के अंदर यहां सैकड़ों लोगों की जान चली गई. उस वक्त अमेरिका, तंजानिया और कांगो में एचआईवी वायरस के इक्के दुक्के मामले तो थे, लेकिन इस तरह की महामारी नहीं थी.
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अनजानी बीमारी से मौत
थॉमस मिगीरू इसके पहले शिकार बने. पहले उनकी भूख खत्म हुई, फिर उनके बाल झड़ने शुरू हुए. उनके भाई एडी का कहना है, "उसे अंदर से कुछ खा रहा था." मिगीरू के पिता ने अंतिम संस्कार में जाने से इनकार कर दिया. सबका मानना था कि यह एक जादू था. अब उनके भाई एडी राकाई में एड्स-इंफॉर्मेशन्स-नेटवर्क्स के प्रमुख हैं और अच्छी जानते हैं कि उनके भाई की मौत एड्स से ही हुई थी.
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भुतहा गांव
कासेनसेरो में जब लगातार लोगों की मौत होने लगी तो लोग गांव छोड़ कर ही भागने लगे. जिसे जहां ठिकाना मिला, वहीं चला गया. खेत-खलिहान, मवेशी सब पीछे छूट गए. आज भी कासेनसेरो भुतहा लगता है. यहां सिर्फ वही रुके जो बहुत गरीब थे.
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वायरस कैसे पहुंचा
कहा जाता है कि कुछ ट्रक ड्राइवरों और सेक्स वर्कर के बीच हुए यौन संबंधों की वजह से यह बीमारी इस गांव तक पहुंची. ट्रक ड्राइवरों ने सुरक्षित सेक्स को नजरअंदाज कर दिया था. तस्वीर में गुलाबी ड्रेस पहनी महिला का कहना है कि बिना कंडोम के यौन संबंधों के लिए आदमी चार गुना ज्यादा पैसे देते हैं.
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चिंपांजी से इंसानों तक
एचआईवी सबसे पहली बार 19वीं सदी की शुरुआत में जानवरों में मिला था. माना जाता है की इंसानों में यह चिंपांजी से आया. 1959 में कांगो के एक बीमार आदमी के खून का नमूना लिया गया. कई साल बाद डॉक्टरों को उसमें एचआईवी वायरस मिला. माना जाता है कि यह पहला एचआईवी संक्रमित व्यक्ति था.
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शुरुआती रिसर्च
1981 में एड्स की पहचान हुई. लॉस एंजेलेस के डॉक्टर माइकल गॉटलीब ने पांच मरीजों में एक अलग किस्म का निमोनिया पाया. इन सभी मरीजों में रोग से लड़ने वाला तंत्र अचानक कमजोर पड़ गया था. ये पांचों मरीज समलैंगिक थे, इसलिए शुरुआत में डॉक्टरों को लगा कि यह बीमारी केवल समलैंगिकों में ही होती है.
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वायरस की तलाश
1983 में फ्रांस के लुक मॉन्टेगनियर और फ्रांसोआ सिनूसी ने एलएवी वायरस की खोज की. इसके एक साल बाद अमेरिका के रॉबर्ट गैलो ने एचटीएलवी 3 वायरस की पहचान की. 1985 में पता चला कि ये दोनों एक ही वायरस हैं. 1985 में मॉन्टेगनियर और सिनूसी को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. जबकि गैलो ने अपने परीक्षण का पेटेंट कराया.
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वर्ल्ड एड्स डे
1986 में पहली बार इस वायरस को एचआईवी यानी ह्यूमन इम्यूनो डेफिशिएंसी वायरस का नाम मिला. इसके बाद से दुनिया भर के लोगों में एड्स को ले कर जागरूकता फैलाने के अभियान शुरू हो गए. कंडोम के इस्तेमाल को केवल परिवार नियोजन के लिए ही नहीं, बल्कि एड्स से बचाव के रूप में देखा जाने लगा. 1988 से हर साल एक दिसंबर को वर्ल्ड एड्स डे के रूप में मनाया जाता है.
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एड्स की दवा
1987 में पहली बार एड्स से लड़ने के लिए दवा तैयार की गई. लेकिन इसके कई साइड इफेक्ट्स थे और मरीजों को दिन में कई खुराक लेनी पड़ती थी. 90 के दशक के अंत तक इसमें सुधार आया. कुछ क्विक टेस्ट भी आए. 2019 से जर्मनी में 16 साल से ऊपर का कोई भी व्यक्ति एचआईवी के संक्रमण से बचाने वाली गोली ले सकता है. गर्भनिरोधक गोलियों की तरह इसे रोज खाना होता है.
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भेदभाव
1991 में पहली बार लाल रिबन को एड्स का निशान बनाया गया. यह एड्स पीड़ित लोगों के खिलाफ दशकों से चले आ रहे भेदभाव को खत्म करने की एक कोशिश थी. संयुक्त राष्ट्र ने मलेरिया और टीबी की तरह एड्स को भी महामारी का नाम दिया है. अधिकतर लोग यह बात नहीं समझ पाते कि अगर वक्त रहते वायरस का इलाज शुरू कर दिया जाए तो एड्स से बचा जा सकता है.