पाकिस्तान में बीते हफ्तों में बाढ़ के चलते करीब 300 लोगों की मौत हो चुकी है और 1,600 घर तबाह हुए हैं. एक नई स्टडी के मुताबिक, बाढ़ की स्थिति मानव-जनित जलवायु परिवर्तन की वजह से और गंभीर हुई है.
बाढ़ के कारण 2022 में पाकिस्तान में 1,700 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थीतस्वीर: Abdul Majeed/AFP/Getty Images
विज्ञापन
‘वर्ल्ड वैदर एट्रिब्यूशन' अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों का एक समूह है, जो चरम मौसमी घटनाओं में ग्लोबल वॉर्मिंग की भूमिका का अध्ययन करता है. इनके द्वारा किए गए एक अध्ययन में पता चला कि पाकिस्तान में इस साल 24 जून से लेकर 23 जुलाई के बीच हुई बारिश में जलवायु परिवर्तन की वजह से 10 से 15 फीसदी की बढ़ोतरी हुई थी. इसके चलते वहां के कई इलाकों में बाढ़ आई और घर तबाह हुए.
तापमान बढ़ने के साथ बढ़ती है बारिश
डब्ल्यूडब्ल्यूए का यह अध्ययन गुरुवार को जारी किया गया. इसके अध्ययनकर्ताओं ने कहा कि पाकिस्तान की बारिश का उनके द्वारा किए गए विश्लेषण से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन बाढ़ को और अधिक खतरनाक बना रहा है. जलवायु वैज्ञानिकों ने पाया है कि गर्म वातावरण में अधिक नमी होती है, जिससे वर्षा अधिक तीव्र हो सकती है.
पाकिस्तान में इस साल 26 जून को मॉनसून ने दस्तक दी थीतस्वीर: Hussain Ali/ZUMA PRESS Wire/picture alliance
इस अध्ययन की प्रमुख लेखिका मैरियम जकाराया, इंपीरियल कॉलेज लंदन के पर्यावरण नीति केंद्र में शोधकर्ता हैं. वे कहती हैं, "एक डिग्री के दसवें हिस्से जितना तापमान बढ़ने से भी मॉनसूनी बारिश में बढ़ोतरी होगी, यह दिखाता है कि क्यों जीवाश्म ईंधन से नवीकरणीय ऊर्जा की तरफ तेजी से शिफ्ट होना इतना जरूरी है.”
विकसित देशों की मदद पर्याप्त नहीं
पाकिस्तान ग्रीनहाउस गैसों के एक फीसदी से भी कम हिस्से के लिए जिम्मेदार है. लेकिन रिसर्च दिखाती हैं कि इसे चरम मौसमी घटनाओं की वजह से भारी नुकसान उठाना पड़ता है. पाकिस्तान के लिए साल 2022 का मॉनसून सबसे ज्यादा खतरनाक रहा था, जब बाढ़ के चलते 1,700 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी और 40 अरब डॉलर से ज्यादा के नुकसान का अनुमान लगाया गया था.
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले नुकसान से निपटने के लिए बनाए गए वैश्विक कोष, पाकिस्तान जैसे देशों की जलवायु प्रभावों से निपटने में मदद करने के लिए जरूरी धनराशि से काफी कम पड़ रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि हर साल मानव-जनित जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाले आर्थिक नुकसान से निपटने के लिए उसके पास पर्याप्त फंड नहीं है.
सिर्फ एक प्रतिशत अमीर करते हैं पांच अरब गरीबों जितना कार्बन उत्सर्जन
एक नई रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के सबसे अमीर लोगों में से एक प्रतिशत करीब पांच अरब सबसे गरीब लोगों के बराबर कार्बन का उत्सर्जन करते हैं. जलवायु परिवर्तन को रोकने में कुछ लोगों की जिम्मेदारी दूसरों से ज्यादा होनी चाहिए.
तस्वीर: Charles M Vella/ZUMAPRESS.com/picture alliance
उत्सर्जन में भी असंतुलन
दुनिया के एक प्रतिशत सबसे अमीर लोग (7.7 करोड़) दुनिया के 16 प्रतिशत उत्सर्जन के जिम्मेदार हैं. यह आय के हिसाब से दुनिया के 66 प्रतिशत सबसे गरीब लोगों (5.11 अरब) के उत्सर्जन के बराबर है. अमीरों और गरीबों के बीच उत्सर्जन की खाई की यह रिपोर्ट अंतरराष्ट्रीय नॉन-प्रॉफिट ऑक्सफैम इंटरनेशनल ने बनाई है.
तस्वीर: Kurt Desplenter/dpa/picture alliance
कैसे निकाला आंकड़ा
वैश्विक स्तर पर सबसे अमीर एक प्रतिशत लोगों को चिन्हित करने के लिए परचेजिंग पावर पैरिटी का इस्तेमाल किया गया. यानी अमेरिका में इसकी कसौटी 1,40,000 डॉलर होगी जब कि केन्या में यही कसौटी करीब 40,000 डॉलर होगी.
तस्वीर: Fatih Aktas/AA/picture alliance
देशों के अंदर स्थिति और गंभीर
देशों के अंदर भी इस असंतुलन की बड़ी गंभीर तस्वीर निकल कर आई. उदाहरण के तौर पर, फ्रांस में एक प्रतिशत सबसे अमीर सिर्फ एक साल में इतना उत्सर्जन करते हैं जितना सबसे गरीबों में से 50 प्रतिशत लोग 10 सालों में करते हैं. इस रिपोर्ट का आधार है स्टॉकहोम एनवायरनमेंट इंस्टिट्यूट द्वारा की गई रिसर्च.
तस्वीर: Christopher Furlong/Getty Images
एक बनाम 1, 270
अकेले 'लूई वितों' के अरबपति संस्थापक और फ्रांस के सबसे अमीर व्यक्ति बर्नार आर्नो का कार्बन पदचिन्ह एक औसत फ्रांसीसी व्यक्ति से 1,270 गुना ज्यादा है. लॉसन कहते हैं, "आप जितने ज्यादा अमीर हों, आपके लिए आपके निजी और निवेश संबंधी उत्सर्जन कम करना उतना ही आसान होता है. आपको तीसरी गाड़ी की, छुट्टियों में चौथे टूर की और सीमेंट उद्योग में निवेश बनाये रखने की जरूरत नहीं है."
तस्वीर: Susan Walsh/AP Photo/picture alliance
कंपनियों का उत्सर्जन
इस रिपोर्ट में सिर्फ व्यक्तिगत खपत की बात की है, लेकिन यह भी कहा गया है कि "सुपर अमीरों की व्यक्तिगत खपत कंपनियों में उनके निवेश के चलते निकले उत्सर्जन के आगे बौनी पड़ जाती है." ऑक्सफैम के पुराने शोध ने दिखाया है कि 'स्टैंडर्ड एंड पूअर 500' सूचकांक की कंपनियों के औसत के मुकाबले अरबपतियों के प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों में निवेश की संभावना दोगुनी है.
तस्वीर: Kevin Frayer/Getty Images
सबकी जिम्मेदारी बराबर नहीं
रिपोर्ट के सह-लेखक मैक्स लॉसन के मुताबिक जलवायु संकट से लड़ना एक साझा चुनौती है लेकिन हर व्यक्ति इसके लिए बराबर रूप से जिम्मेदार नहीं है. इसीलिए सरकारी नीतियों को इसी हिसाब से बनाने की जरूरत है. उनके मुताबिक सरकारों को ऐसी जलवायु नीति लानी चाहिए जो उन लोगों से सबसे ज्यादा त्याग करवाए जो सबसे ज्यादा उत्सर्जन करते हैं.
तस्वीर: Juancho Torres/AA/picture alliance
कड़े कदमों की जरूरत
इसके लिए कुछ कड़े कदमों की जरूरत है. जैसे एक साल में 10 से ज्यादा उड़ानें भरने पर टैक्स लगाया जा सकता है. या नॉन-ग्रीन निवेशों पर ग्रीन निवेशों के मुकाबले काफी ज्यादा टैक्स लगाया जा सकता है. (एएफपी)
तस्वीर: MARK RALSTON/AFP/Getty Images
7 तस्वीरें1 | 7
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्टें बताती हैं कि अमेरिका और यूरोपीय देशों जैसे विकसित राष्ट्र जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए जरूरत से बेहद कम धनराशि दे रहे हैं. जबकि वे वायुमंडल को गर्म करने वाली ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में काफी आगे हैं. उनके द्वारा दी गई धनराशि से बाढ़ के प्रति संवेदनशील क्षेत्रों में आवास और बुनियादी ढांचे की स्थिति को बेहतर बनाया जा सकता है.
विज्ञापन
सिर्फ पाकिस्तान तक सीमित नहीं है प्रभाव
भू-वैज्ञानिक यकोब स्टाइनर ने न्यूज एजेंसी एपी से कहा, "कई घटनाएं जो हमारे अनुमान के मुताबिक 2050 में होनी थीं, वे 2025 में ही हो गईं क्योंकि इस साल की गर्मियों में भी तापमान औसत से काफी ऊपर रहा है.” स्टाइनर पाकिस्तान के इस्लामाबाद शहर में रहते हैं और ऑस्ट्रिया की यूनिवर्सिटी ऑफ ग्रात्स से जुड़े हुए हैं. बीते हफ्तों में सिर्फ पाकिस्तान में ही नहीं, बल्कि दक्षिण एशियाई क्षेत्र में ऐसी कई घटनाएं देखने को मिली हैं.
पांच देशों में फैले हिमालय पर्वतीय क्षेत्र में बीते कुछ महीनों में ऐसा काफी देखने को मिला है. जुलाई महीने में ग्लेशियर झीलों के उफान पर आने की वजह से बाढ़ आई, जिससे नेपाल और चीन को जोड़ने वाला एक प्रमुख पुल बह गया, साथ ही कई जलविद्युत बांध भी बह गए. 5 अगस्त को उत्तराखंड के धराली गांव में बादल फटने के बाद सैलाब आया, जिससे चार लोगों की मौत हो गई और बड़ी संख्या में लोग अभी भी लापता हैं.
हिमालयी क्षेत्र में क्यों होता है प्राकृतिक आपदाओं का अधिक खतरा
भारत में हिमालयी क्षेत्र 13 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में फैला हुआ है. इनमें उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और सिक्किम जैसे राज्य शामिल हैं. मॉनसून के दौरान, इन इलाकों को अधिक प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता है.
तस्वीर: Aqil Khan/AP/picture alliance
नाजुक होते हैं पर्वतीय क्षेत्रों के ईकोसिस्टम
इंटरनेशनल माउंटेन कॉन्फ्रेंस की वेबसाइट पर प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक, हिमालय जैसे पर्वतीय क्षेत्र अपनी जटिल बनावट, नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र और लगातार बदलती जलवायु परिस्थितियों की वजह से विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं के प्रति काफी अधिक संवेदनशील होते हैं.
तस्वीर: Federation Studios
कई रूपों में आती हैं प्राकृतिक आपदाएं
भारत का हिमालयी क्षेत्र कई प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं का सामना करता है, जिसमें भूस्खलन, भूकंप, बादल फटना और ग्लेशियर लेक की वजह से आने वाली बाढ़ शामिल है. ये आपदाएं आबादी क्षेत्र, बुनियादी ढांचे और जैव विविधता के लिए गंभीर खतरे पैदा करती हैं.
एक अध्ययन के मुताबिक, हिमालय क्षेत्र में बसे विभिन्न इलाकों में मॉनसून के दौरान जल-संबंधी आपदाएं आती हैं. इस दौरान आमतौर पर बादल फटने और अचानक बाढ़ आने की घटनाएं दर्ज की जाती हैं. बादल फटने के दौरान, किसी एक इलाके में बहुत कम समय में बहुत अधिक बारिश होती है.
तस्वीर: @suryacommand/X
निचले इलाकों में मचती है तबाही
हिमालयी क्षेत्र में अधिकतर नदियां संकरी घाटियों से होकर बहती हैं. बादल या ग्लेशियर झील के फटने की स्थिति में पानी के तेज बहाव के साथ बड़ी मात्रा में मलबा भी आ जाता है. इससे नदियों के रास्ते अवरुद्ध हो जाते हैं और निचले इलाकों में अचानक बाढ़ की स्थिति बन जाती है.
तस्वीर: Uttarakhand's State Disaster Response Force/AFP
आपदाओं में रही 44 फीसदी हिस्सेदारी
डाउन टू अर्थ पत्रिका में प्रकाशित हुए एक विश्लेषण के मुताबिक, साल 2013 से 2022 के दौरान पूरे देश में 156 आपदाएं दर्ज की गईं, जिनमें से 68 आपदाएं केवल हिमालयी क्षेत्र में हुईं. देश के भौगोलिक क्षेत्र में 18 फीसदी की हिस्सेदारी रखने वाले हिमालयी क्षेत्र की आपदाओं में हिस्सेदारी 44 फीसदी रही.
तस्वीर: Ashwini Bhatia/AP Photo/picture alliance
बाढ़ का रहता है सबसे अधिक खतरा
भारतीय हिमालयी क्षेत्र में सबसे ज्यादा खतरा बाढ़ आने का होता है. सन 1903 से लेकर अब तक इस क्षेत्र में 240 आपदाएं दर्ज की गई हैं. इनमें से 132 बाढ़ संबंधी आपदाएं हैं. इसके बाद, भूस्खलन की 37, तूफान की 23, भूकंप की 17 और चरम तापमान की 20 आपदाएं दर्ज की गई हैं.
तस्वीर: Uttarakhand's State Disaster Response Force/AFP
सिक्किम में हुई थी करीब 180 लोगों की मौत
अक्टूबर 2023 में सिक्किम राज्य में भारी बारिश के चलते एक ग्लेशियर झील फूट गई थी और उसके बाद इलाके में बाढ़ आ गई थी. इस आपदा में करीब 180 लोगों की मौत हो गई थी. जानकारों के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण पर्वतीय क्षेत्र गर्म हो रहे हैं और ऐसी घटनाओं का खतरा बढ़ रहा है.
फरवरी 2021 में उत्तराखंड में अचानक आई बाढ़ में दो हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट बह गए थे. पानी के तेज बहाव के साथ चट्टानें और मलबा धौलीगंगा नदी घाटी में पहुंच गया था. इस दौरान, 200 से अधिक लोगों की मौत हुई थी. इससे पहले, साल 2013 में भी उत्तराखंड में भारी तबाही मची थी.
तस्वीर: Sajjad Hussain/AFP/Getty Images
विकास परियोजनाओं से बढ़ रहा खतरा
विशेषज्ञों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन और पर्वतीय क्षेत्रों में चल रहीं विकास परियोजनाओं से प्राकृतिक आपदाओं का खतरा बढ़ा है. एक अध्ययन के मुताबिक, हिमालयी क्षेत्र राष्ट्रीय औसत की तुलना में अधिक तेजी से गर्म हो रहा है, इससे भविष्य में आपदाओं की संख्या और बढ़ सकती है.