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समाज

एलिफेंटाइटिस के मरीज दोहरी मुसीबत में

२८ मई २०२१

हाथी पांव यानी पैरों का अचानक सूज जाना. भारत में इस बीमारी से लाखों लोग परेशान रहते हैं, लेकिन कोरोना महामारी ने उनकी परेशानी को दोगुनी कर दी है.

तस्वीर: NOAH SEELAM/AFP/Getty Images

एलिफेंटाइटिस की मरीज सुनीता कश्यप अपने गांव के स्वास्थ्य केंद्र से दर्द और सूजन के लिए दवा लेती थीं. उनके लिए कोरोना वायरस महामारी के पहले तक दवा ले पाना मुमकिन था. इस बीच कोरोना महामारी देश की नाजुक स्वास्थ्य व्यवस्था पर भारी पड़ रही है. दाहिने पैर में सूजन के कारण सुनीता काम करने में असमर्थ हो गई हैं. तीन बच्चों की 36 वर्षीय मां पिछले एक साल से एलिफेंटाइटिस के कारण होने वाली सूजन और दर्द के लिए मामूली दवाएं ही ले पा रही हैं. छोटे कीड़ों के लार्वा की वजह से यह बीमारी होती है. ये लार्वा चमड़ी के अंदर से होते हुए लसिका तंत्र तक पहुंच जाते हैं और वहां अपनी संख्या बढ़ाते हैं. फिर वे सालों तक वहीं जमा रहते हैं.

उत्तर प्रदेश के अपने गांव से थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन से सुनीता फोन पर कहती हैं, "हम गरीब लोग हैं. मेरे पति 200 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से एक दुकान में काम करते हैं, जब लॉकडाउन होता है तो दुकान बंद हो जाती है और उन्हें पैसे नहीं मिलते हैं." श्लीपद, फीलपांव या हाथी पांव बीमारी वर्तमान में एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में पाई जाती है. यह या तो जन्म से होती है या फिर कुछ खास कीड़ों के काटने से होती है. लेकिन उम्र के बढ़ने के साथ साथ इस बीमारी से दर्द भी बढ़ता है. यह दुनिया के सबसे गरीब लोगों को प्रभावित करती है, अक्सर उन्हें काम करने से रोकती है और उन्हें गरीबी के चक्र में फंसाती है. बहुत से मरीजों को समाज में भेदभाव का भी सामना करना पड़ता है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमान के मुताबिक दुनियाभर में 85 करोड़ लोग फाइलेरिया के खतरे की जद में हैं. संगठन ने साल 2000 में इस बीमारी को खत्म करने के लिए कार्यक्रम शुरू किया था जिसके बाद मरीजों की संख्या में 74 फीसदी की गिरावट आई है. स्वास्थ्य विभाग के मुताबिक इनमें से अधिकांश भारत में हैं, जहां 67 करोड़ लोग उन क्षेत्रों में रहते हैं जहां यह बीमारी महामारी है. क्योंकि इसके प्रभाव अपरिवर्तनीय हैं इसलिए रोकथाम महत्वपूर्ण है. लेकिन स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का कहना है कि कोरोना वायरस महामारी ने फाइलेरिया पर अंकुश लगाने के प्रयासों को प्रभावित किया है.

उपचार की बाधाएं

पिछले दो दशकों में, भारत ने इस बीमारी से निपटने के लिए आशा कार्यकर्ताओं का इस्तेमाल किया है. आशा कार्यकर्ता छोटे समुदायों में काम करने वाली महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं, जो पहली पंक्ति के रूप में कार्य करती हैं. इस बीमारी का इलाज संभव है और इसके लिए दवाएं पांच से लेकर सात साल तक ली जाती हैं. भारतीय स्वास्थ्य अधिकारियों के मुताबिक उपचार के कारण फाइलेरिया के मरीजों की संख्या घटी है और जिन जिलों में यह फैला है उसकी संख्या 257 से घटकर 159 हो गई है.

2019 में भारत ने इस बीमारी को खत्म करने के लिए तीन दवाओं के इस्तेमाल की नीति अपनाई थी. नई दवा संयोजन शुरू में चार जिलों में दी जानी थी और उसके बाद इस साल 27 जिलों तक पहुंचाने का लक्ष्य था लेकिन अब तक यह एक जिले में शुरू हो पाई है. थॉमसन रॉयटर्स ने जिन 10 स्वास्थ्य कर्मियों से संपर्क किया उनमें से पांच ने कहा कि वे कोरोना महामारी के दौरान दवा वितरण करने के लिए सक्षम नहीं थे. स्वास्थ्य कर्मचारी रेणु सिंह ने बताया, "हम पिछले साल दवाओं का वितरण नहीं कर सके. इस साल भी हम, लोगों की कोविड जांच करने में व्यस्त रहे और ऐसा लगता है कि इस बार भी दवा नहीं बांट पाएंगे."

राष्ट्रीय वेक्टर जनित रोग नियंत्रण कार्यक्रम की निदेशक छवि पंत जोशी कहती हैं कि कोरोना महामारी से देश का प्रयास नहीं रुकेगा, वह इसे "अल्पकालिक बाधा" बताती हैं. वह कहती हैं, "एक बार जब महामारी की स्थिति नियंत्रण में हो जाएगी तो ओपीडी विभाग में परामर्श बढ़ने लगेंगे." डब्ल्यूएचओ ने फाइलेरिया को 2030 तक खत्म करने का लक्ष्य निर्धारित किया है.

एए /वीके (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)

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