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समाजभारत

स्क्रीन वाले क्रिएटरों के साथ यह रिश्ता क्या कहलाता है?

१७ सितम्बर २०२५

अगर आपको भी सोशल मीडिया पर किसी को देखकर लगता है कि आप उन्हें जानते हैं, तो शायद आप भी उनके साथ इस एकतरफा रिश्ते में हैं.

टेलर स्विफ्ट अपने मंगेतर के साथ
जेन जी के लिए इन्फ्लुएंसर्स और क्रिएटर्स सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं हैं. वे दोस्त जैसे लगते हैं, कभी-कभी मेंटर, और कई बार तो थेरेपिस्ट तक.तस्वीर: Taylor Swift/REUTERS

1990 के दशक के कई लोग शायद इस बात से इत्तेफाक रखेंगे कि उनके लिए शाहरुख खान कभी ‘शाहरुख खान' नहीं थे. वो हमेशा से ‘उनके' शाहरुख थे. इसे जेन जी जनता ने ‘फर्स्ट नेम बेसिस' का नाम दिया है, जिसका अर्थ है कि कोई (यानी अभिनेता या अभिनेत्री) इतना अपना लगने लगे कि आपने उन्हें उनके पूरे नाम से पुकारना ही छोड़ दिया है, मानो वो आपके परिवार का ही हिस्सा हैं, या आपके पड़ोसी हैं. लेकिन यह रिश्ता, क्या कहलाता है?

आप रात को थके-हारे इंस्टाग्राम स्क्रॉल कर रहे हैं. लेकिन आपको जानना है कि ‘मृणाल' की साड़ी दर्जी के यहां से पीको होकर आई या नहीं, या फिर ‘बाजी' आज कौनसी शादी में गोल गप्पों के स्वाद के बारे में बताएंगी. या फिर आज ‘डाइटसब्या' कौन से डिजायनर के बारे में अपने फॉलोवर्स को पढ़ाएंगे.

इन क्रिएटरों के पोस्ट पर कमेंट और लाइक करते करते हम उन्हें अपनी जिंदगी का एक हिस्सा बना लेते हैं. हमें लगने लगता है कि वो मृणाल, वो ‘बाजी', वो ‘डाइटसब्या', ये सब हमारे अपने ही हैं. किसी से हमें प्यार हो जाता है तो कोई हमारा गुरु बन जाता है, कोई हमारा पक्का दुश्मन तो कोई जाने-अनजाने हमराज बन जाता है.

हमें अपने पसंदीदा क्रिएटरों के बारे में सब पता होता है. वो क्या खाते हैं, क्या पीते हैं, कौन से पार्क में दौड़ने जाते हैं. यहां तक कि वो वहां पर कौन से ठेले से कौन सी आइसक्रीम खाते हैं. लेकिन कभी ठहरकर आपने यह सोचा है कि क्या वो आपको जानते हैं? क्या यह रिश्ता, एकतरफा है?

पैरासोशल रिश्ता

यह वो अजीब-सा संबंध है जिसमें हमें लगता है कि स्क्रीन के उस पार वाला इंसान हमारा करीबी है, जबकि असल में वो हमें पहचानता तक नहीं. और हममें से कई लोग इस रिश्ते में जाने अनजाने में रहे हैं या शायद आज भी हैं. बचपन में अखबारों से स्पोर्ट्स स्टार और फिल्मी सितारों की तस्वीरें काट कर डायरी में सजाने से लेकर यूट्यूब व्लॉग्स पर कमेंट करने तक, ये रिश्ता हमेशा से रहा है, बस उसका रूप बदलता रहा है.

इस कहानी को कोविड काल की त्रासदी से निपटने की रणनीति समझने की गलती मत कीजियेगा. पैरासोशल रिश्तों का इतिहास नया नहीं है. 1950 के दशक में जब टीवी घर-घर पहुंचना शुरू हुआ, तो लोग अपने मनपसंद न्यूज एंकर और टीवी सितारों से ऐसा जुड़ाव महसूस करने लगे जैसे वे उनके परिवार का हिस्सा हों. मनोवैज्ञानिक डॉनल्ड हॉर्टन और रिचर्ड वोहल ने इस अनुभव को ही "पैरासोशल रिलेशनशिप” कहा है.

उस दौर में भी लोग अपने पसंदीदा कलाकार को इतना देखते थे कि उन्हें लगता था कि वे उन्हें "जानते” हैं. फर्क बस इतना था कि तब यह अनुभव हफ्ते में एक-दो बार नसीब होता था, जब कोई शो या फिल्म रिलीज होती थी. अब सोशल मीडिया के दौर में यह चौबीस घंटे का मामला हो गया है. इंस्टाग्राम स्टोरीज, यूट्यूब व्लॉग्स, पॉडकास्ट्स – हर प्लेटफॉर्म पर सितारे हमें अपनी दुनिया की झलक दिखाते रहते हैं. और यही झलक हमें यह महसूस कराती है कि वे हमारी जिंदगी का हिस्सा हैं.

जेन जी और पैरासोशल रिश्ते

अगर कोई पीढ़ी है जिसने इन रिश्तों को पूरी तरह अपनाया है, तो वो है जेन जी. यह पीढ़ी इंटरनेट और सोशल मीडिया के साथ बड़ी हुई है. सुबह उठते ही इंस्टाग्राम स्क्रॉल करना और रात को सोने से पहले यूट्यूब देखना इनके लिए उतना ही सामान्य है जितना हमारे लिए पहले अखबार पढ़ना या रेडियो सुनना था.

जेन जी के लिए इन्फ्लुएंसर्स और क्रिएटर्स सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं हैं. वे दोस्त जैसे लगते हैं, कभी-कभी मेंटर, और कई बार तो थेरेपिस्ट तक. अगर कोई इन्फ्लुएंसर अपनी घबराहट या रिश्तों में कड़वाहट के बारे में बात करता है, तो फॉलोअर्स को लगता है कि वो उन्हें समझता है. यही रिश्ता उनको व्यूज भी दिलाता है और उनके सब्सक्राइबर भी उनसे गहराई से जुड़ने लगते हैं.

कई बार हम यह भूल जाते हैं कि उनकी सोशल मीडिया फीड बहुत राणनीतिक तौर पर चुनिंदा जानकारियों और तस्वीरों के साथ हम तक पहुंच रही है.तस्वीर: Taylor Swift/REUTERS

हाल ही में भारत की राजधानी दिल्ली में रह रहीं ‘कोको' नाम की एक रूसी क्रिएटर ने अपनी छवि के उलट काम किया. अक्सर मजाक करने वाली और सेहत और तंदरुस्ती पर बात करने वाली कोको ने फॉलोवरों को बताया कि उन्हें बॉडी डिस्मॉर्फिया है. इस मानसिक बीमारी में पीड़ित को अपने शरीर से नफरत होने लगती है. इंसान अपने शरीर की किसी छोटी या कभी-कभी ना के बराबर "खामी” को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर देखने लगता है, जैसे बार-बार शीशे में खुद को देखना और निराश होना.

लाखों लोगों ने उनसे सहानुभूति जताई और कई लोगों ने माना कि वो भी इस बीमारी से जूझ रहे हैं. यह बात साझा करने के बाद कोको अपने फॉलोअरों से और गहराई से जुड़ गईं और कई लोगों को उनमें एक हमराज, एक दोस्त भी मिला.

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सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या यह रिश्ता बुरा है? जवाब इतना सीधा नहीं है. दरअसल पैरासोशल रिश्ते कई बार बेहद मददगार साबित होते हैं. अकेलापन महसूस कर रहे हों, तो अपने पसंदीदा यूट्यूबर का व्लॉग देखने से मन हल्का हो सकता है, जब वो कुछ साझा करते हैं और अगर आप भी उसी पीड़ा से गुजर रहे होते हैं तो आपको लगता है कि बिना मांगे आपको कोई कंधा मिल गया, या फिर, यह कि आपकी दुविधा किसी और की दुविधा भी हो सकती है, और यह आम बात है. यह मानसिक स्वास्थ्य के लिए अच्छा हो सकता है.

2022 में हुए थ्राइववर्क्स सर्वे के अनुसार भले ही केवल 16 फीसदी अमेरिकी ही इसे स्वीकार करते हैं,  लेकिन लगभग 51 फीसदी आबादी किसी ना किसी प्रकार के पैरासोशल रिश्तों में रही है. अब यह चाहे वो उनके माता-पिता के फिल्मी सितारों के साथ प्रेम हों या कुछ और.
 
एसयूएनवाई बफलो विश्वविद्यालय के एक शोध के अनुसार पैरासोशल रिश्ते उन लोगों के लिए फायदेमंद हो सकते हैं जिनका आत्म-सम्मान कम होता है. ये लोग अक्सर अपने रोल मॉडलों में उन गुणों को तलाशते हैं जो उन्हें लगते हैं खुद उनमें होंने चाहिए. यह उन लोगों के लिए एक अपनी सामाजिक घबराहट को दूर करने का एक अच्छा तरीका हो सकता है. यानी उनके आस-पास कोई सकारात्मक रोल मॉडल है, ताकि वे खुद को और अपने चरित्र को विकसित कर सकें.

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लेकिन हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, पैरासोशल रिश्तों के नुकसान भी हैं. सबसे बड़ा खतरा है, उम्मीदें. जब आप सोचने लगते हैं कि आपका पसंदीदा क्रिएटर आपको नोटिस करेगा, आपके डीएम का जवाब देगा, या हमेशा आपके जैसा महसूस करेगा. और जब ऐसा नहीं होता, तो निराशा होती है.

एक और मुश्किल है तुलना. कई बार हम यह भूल जाते हैं कि उनकी सोशल मीडिया फीड बहुत राणनीतिक तौर पर चुनिंदा जानकारियों और तस्वीरों के साथ हम तक पहुंच रही है. हम सोचते हैं कि उनकी जिंदगी कितनी परफेक्ट है. लेकिन वो हमें उनके झगड़े, मुश्किलें या दूसरे उतार चढ़ाव नहीं दिखाते. ऐसे में हमारी अपनी जिंदगी छोटी या अधूरी लगने लगती है. धीरे-धीरे यह मानसिक दबाव भी बना सकता है.

सेंट्रल फ्लोरिडा विश्वविद्यालय में डिजिटल ह्यूमैनिटीज की प्रोफेसर और हाल ही में प्रकाशित किताब “फैंडम इज अग्ली” की लेखिका मेल स्टैनफिल कहती हैं, “जब फैन सोशल मीडिया पोस्ट के जरिए सेलिब्रिटी तक पहुंच पाते हैं, तो इससे इंटिमेसी की भावना बढ़ जाती है. लोग सोचते हैं कि उनके बीच असल में बहुत गहरा रिश्ता है.

और सबसे बड़ा जोखिम है – असली रिश्तों से दूरी. जब हमें स्क्रीन वाला दोस्त ज्यादा दिलचस्प लगने लगे और यदि हम ये जान रहे हैं कि उन्होंने किस म्यूचुअल फंड में निवेश किया है, लेकिन हमें यह नहीं पता कि हमारी बहन का दफ्तर में प्रमोशन हुआ है, तो यह असंतुलन खतरनाक हो सकता है.
सेंट्रल फ्लोरिडा विश्वविद्यालय में डिजिटल ह्यूमैनिटीज की प्रोफेसर और हाल ही में प्रकाशित किताब “फैंडम इज अग्ली” की लेखिका मेल स्टैनफिल कहती हैं, “जब फैन सोशल मीडिया पोस्ट के जरिए सेलिब्रिटी तक पहुंच पाते हैं, तो इससे इंटिमेसी की भावना बढ़ जाती है. लोग सोचते हैं कि उनके बीच असल में बहुत गहरा रिश्ता है.

संतुलन ही कुंजी है

तो क्या करना चाहिए? असल में जरूरत है संतुलन की. पैरासोशल रिश्तों को पूरी तरह खारिज करने की कोई वजह नहीं है. वे हमें हंसाते हैं, कभी प्रेरणा देते हैं, कभी सुकून तो कभी गुस्सा. लेकिन यह याद रखना जरूरी है कि यह रिश्ता एकतरफा है. सामने वाला हमें नहीं जानता.

सोशल मीडिया का मजा लें, अपने पसंदीदा क्रिएटर से प्रेरणा लें, लेकिन असली दोस्तों और परिवार को भी उतना ही समय देना होगा.

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आखिर में पैरासोशल रिश्ते हमारी डिजिटल दुनिया की हकीकत हैं. वे हमारे लिए वैसा ही काम करते हैं जैसा एक बॉलीवुड मूवी करती है – हमें थोड़ी देर के लिए दूसरी दुनिया में ले जाना. लेकिन जैसे ही फिल्म खत्म होने के बाद हम थिएटर से बाहर आ जाते हैं, वैसे ही इन रिश्तों से भी बाहर निकलकर हमें अपनी असली जिंदगी और असली दोस्तों की ओर लौटना जरूरी है. आखिरकार स्क्रीन पर छोले भठूरे देखने में और असल में उन्हें नुक्कड़ पर बारिश में दोस्तों के साथ चाय पर बांटने में जो मजा है, वो तो सोशल मीडिया हमें फिलहाल नहीं दे सकता.

साहिबा खान साहिबा 2023 से DW हिन्दी के लिए आप्रवासन, मानव-पशु संघर्ष, मानवाधिकार और भू-राजनीति पर लिखती हैं.https://x.com/jhansiserani
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