यूरोप के 30 देशों में किए गए एक नए अध्ययन से सामने आया है कि माता-पिता अपने जीवन को भले ही अधिक अर्थपूर्ण और मूल्यवान मानते हैं, लेकिन वे अक्सर जीवन से कम संतुष्ट होते हैं.
यूरोप में माता-पिता कई चुनौतियों का सामना कर रहे हैंतस्वीर: Colourbox
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क्या बच्चों का होना जीवन को बेहतर बनाता है? इस सवाल का जवाब शायद पहले जितना सरल नहीं रहा. जर्मनी के कोलोन विश्वविद्यालय द्वारा पूरे यूरोप में किए गए अध्ययन से पता चला है कि जिन लोगों के बच्चे हैं, वे अपने जीवन को ज्यादा अर्थपूर्ण और मूल्यवान तो मानते हैं, लेकिन उनके जीवन की कुल संतुष्टि अपेक्षाकृत कम है. यह अध्ययन यूरोप के 30 देशों में 43,000 से अधिक प्रतिभागियों पर आधारित है. इसे 'जर्नल ऑफ मैरिज एंड फैमिली' में प्रकाशित किया गया है.
जरूरी नहीं कि संतोष मिले
शोधकर्ता डॉ. आंसगार हुडे कहते हैं कि जिनके बच्चे होते हैं, वे अपने जीवन को अधिक उद्देश्यपूर्ण मानते हैं, लेकिन यह जरूरी नहीं कि वे ज्यादा खुश या संतुष्ट हों. उन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि कई बार माता-पिता बिना बच्चों वाले लोगों की तुलना में कम संतुष्ट पाए गए. यह विरोधाभास समाजशास्त्रियों के लिए महत्वपूर्ण और चौंकाने वाला है, क्योंकि पारंपरिक रूप से माना जाता रहा है कि संतान जीवन में स्थायित्व और प्रसन्नता लाती है.
पुल के नीचे जहाजी कंटेनरों में चलता एक अनूठा स्कूल
मुंबई से सटे ठाणे शहर में एक पुल के नीचे एक अनूठा स्कूल चलाया जा रहा है. जहाजी कंटेनरों से बनाए गए इस स्कूल के कमरों में गरीबों के बच्चे पढ़ते भी हैं, खेलते-कूदते भी हैं. देखिए तस्वीरों में.
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शहर की भागमभाग के बीच बच्चों का एक कोना
ठाणे में अभी दिन की शुरुआत ही हुई है और सड़कों पर गाड़ियों की उमड़ने लगी हैं. इसी भागमभाग के बीच एक पुल के नीचे दो व्यक्ति करीब एक दर्जन बच्चों को सड़क पार करवा रहे हैं.
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स्वागत है 'सिग्नल शाला' में
'सिग्नल शाला' एक एनजीओ 'समर्थ भारत व्यासपीठ' द्वारा गरीब परिवारों के बच्चों के लिए चलाया जा रहा एक अनोखा स्कूल है. इसका यह नाम इसलिए क्योंकि यह स्कूल एक ट्रैफिक सिग्नल के बगल में एक फ्लाईओवर के नीचे स्थित है.
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जहाजी कंटेनरों में लगती है क्लास
यहां रखे जहाजी कंटेनरों को क्लास रूम की तरह इस्तेमाल किया जाता है. बच्चे यहां आकर नहाते हैं, यूनिफार्म पहनते हैं और फिर उन्हें चाय और दलिया का नाश्ता करवाया जाता है. उसके बाद शुरू होती है एसी लगे कंटेनर क्लास रूम में पढ़ाई.
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पढ़ाई, खेल-कूद और खाना भी
यहां बच्चे मराठी और अंग्रेजी में पढ़ना और लिखना सीखते हैं, कंप्यूटर चलाना सीखते हैं और एक लैब में विज्ञान के सरल प्रयोग भी करते हैं. पढ़ाई के बीच में बच्चे फुटबॉल और कबड्डी जैसे खेल भी खेलते हैं. बच्चों को तीन वक्त का खाना दिया जाता है और शाम को बच्चे अपने अपने घर लौट जाते हैं.
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ख्याल रखते हैं टीचर
यहां अध्यापक बच्चों को पढ़ाने के साथ उनसे बातचीत भी करते हैं और उनके मानसिक व भावनात्मक स्वास्थ्य का भी ध्यान रखने की कोशिश करते हैं.
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गरीब परिवारों की उम्मीद
इन बच्चों के माता-पिता शहर के सबसे गरीब लोगों में हैं. किसी की मां मजदूरी करती है, तो किसी के पिता ऑटो चलाते हैं. कुछ मां-बाप शुरू में बच्चों को स्कूल भेजने के लिए राजी नहीं थे, लेकिन उन्हें बातचीत कर मना लिया गया.
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बच्चों को मिल रहे कई तरह के लाभ
2016 से यह स्कूल, बच्चों को राज्य शिक्षा बोर्ड द्वारा कराई जाने वाली परीक्षा की तैयारी करवा रहा है. यहां पढ़ने वाली कुछ किशोर लड़कियों का यह भी कहना है कि अगर वो यहां नहीं आई होतीं तो अभी तक उनकी शादी हो गई होती. स्कूल के वेबपेज के मुताबिक यहां 57 बच्चे पढ़ रहे हैं. (एपी)
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यह अध्ययन दो पहलुओं को केंद्र में रखकर किया गया. जीवन से संतुष्टि और जीवन में अर्थ का अहसास. शोध में पाया गया कि हालांकि माता-पिता अपने जीवन को अधिक सार्थक मानते हैं, लेकिन वे अपने दैनिक जीवन से उतने संतुष्ट नहीं होते. यह असंतोष विशेष रूप से महिलाओं में अधिक देखा गया, खासकर उन महिलाओं में जो अकेली मां हैं, कम उम्र की हैं, जिनकी शिक्षा कम है या जो उन देशों में रहती हैं जहां चाइल्डकेयर की सुविधाएं कमजोर हैं. डॉ. हुड्डे के अनुसार, "जहां भी पैरेंटिंग अधिक कठिन होती है, वहां संतुष्टि की कीमत पर जीवन में अर्थ जुड़ता है."
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जर्मनी पीछे छूट रहा है
इस अध्ययन का एक दिलचस्प पहलू यह था कि स्कैंडिनेवियाई देशों जैसे स्वीडन, नॉर्वे और डेनमार्क में माता-पिता दोनों ही मोर्चों पर बेहतर महसूस करते हैं. वहां ना केवल जीवन अधिक अर्थपूर्ण लगता है, बल्कि माता-पिता अपने जीवन से संतुष्ट भी हैं. इसका मुख्य कारण है कि इन देशों में सरकारी नीतियों के जरिए माता-पिता को समय, पैसे और संस्थागत समर्थन के स्तर पर बड़ी राहतें दी जाती हैं. डे-केयर की उपलब्धता, पेरेंटल लीव और आर्थिक सहायता जैसी योजनाएं वहां माता-पिता के लिए जीवन को आसान बनाती हैं. डॉ. हुड्डे कहते हैं, "स्कैंडिनेवियाई देशों ने बच्चों की परवरिश को एक सामाजिक जिम्मेदारी के रूप में लिया है, ना कि केवल निजी बोझ के रूप में."
क्या है बच्चे पालने का सही तरीका
दुनिया भर के माता-पिता इस विषय पर एक दूसरे से बेहद अलग राय रखते हैं. एक को सामान्य लगने वाला तरीका दूसरे को बेहद अजीब लग सकता है. देखिए जर्मनी में छोटे बच्चों की परवरिश को लेकर सबसे ज्यादा विवाद किन बातों को लेकर है.
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नाम कैसा हो
जर्मनी में बच्चों के नामों की एक डायरेक्ट्री है. माता-पिता को इस सूची में से नाम चुनना होता है. अगर वे अपने बच्चे का कोई अलग सा नाम रखना चाहें, तो बाकायदा लिखित में अनुमति लेनी पड़ती है. इस झंझट के चलते पारंपरिक नामों की ही भरमार है. जैसे बेन और मिया. या फिर 2016 में सबसे ज्यादा रखे गये नाम- मारी और एलियास.
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खुलेआम दूध पिलाना
बच्चों को स्तनपान कराना जर्मनी में भी काफी आम है. एक ओर नग्नता को लेकर बेहद सहज माने जाने वाले जर्मन समाज में भी कई जगहों पर या दुकानों में स्तनपान करवाने की मनाही हो सकती है. देश में दूध पिलाने वाली मांओं को सुरक्षा देना वाला कोई कानून नहीं है.
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देखभाल की एजेंसी
कामकाजी माता पिताओं के लिए दिन में अपने बच्चों को किसी देखभाल करने वाली संस्था में छोड़ने का फैसला अक्सर एक बहुत बड़ा फैसला होता है. प्रीस्कूल के लिए कई विकल्प हैं, जैसे जंगल के खुले माहौल में बच्चों को सीखने देना. इन्हें वालडॉर्फ प्रीस्कूल कहते हैं. वहीं कई पारंपरिक विकल्प भी हैं.
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टीके लगवायें या नहीं
जर्मनी में बीमारियों की वैक्सीन लेना अनिवार्य नहीं है. लेकिन ओईसीडी के आंकड़े दिखाते हैं कि फिर भी 96 फीसदी बच्चों को टीके लगते हैं. वहीं कई जर्मन माता पिता टीकों के खिलाफ होते हैं. इसी कारण कभी कभी लगभग मिटायी जा चुकी महामारियां वापस लौट आती हैं. जैसे 2014-15 में बर्लिन में खसरे के एक हजार से ज्यादा मामले सामने आये.
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बच्चे को रोने दो
जर्मनी में खूब बिकने वाली किताब से लोग बच्चों को सुलाने की फर्बर पद्धति सीखते हैं. इसकी सीख यह है कि बच्चे तो रोते ही हैं, उन्हें रोने के लिए अकेला छोड़ देना चाहिए और अंत में वे खुद ही रोते रोते थक कर सो जाएंगे. कुछ लोगों को यह तरीका जंचता है तो कुछ इसे प्रताड़ना मानते हैं.
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अटैचमेंट पेरेंटिंग
बच्चों को अपने साथ अपने कमरे में सुलाने को 'अटैचमेंट पेरेंटिंग' पद्धति कहते हैं. इस तरीके के बारे में लिखने वाले अमेरिकी विशेषज्ञ विलियम सीयर्स ने बच्चे को साथ या एक ही कमरे में सुलाने की सिफारिश की थी. जर्मनी में इसे लेकर भी एकमत नहीं है और कई पेरेंट्स शुरू से ही बच्चे को अलग कमरे में सुलाते हैं.
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बाजारू डायपर, कपड़ा या डायपर-फ्री
बाजार में उपलब्ध तरह तरह के डिस्पोजेबल डायपर कई माता पिता की जिंदगी आसान बनाते हैं. लेकिन जर्मनी में भी कई लोग कपड़े की लंगोटी पहनाते हैं. इसके अलावा "डायपर-फ्री" तरीका भी थोड़ा बहुत प्रचलित है. चूंकि इस तरीके में पेरेंट्स को बहुत ध्यान देना पड़ता है, इसलिए ऐसे माता पिता को "सबसे समर्पित" होने का खिताब दे देना चाहिए.
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बेबीफूड - घर का या बाहर का
कई माता पिताओं को अपने बच्चे के लिए खुद ही घर पर बेबीफूड बनाना बहुत अहम फैसला लगता है. वहीं कुछ के लिए महंगी ऑर्गेनिक दुकानों से बच्चों के लिए पौष्टिक माने जाने वाली चीजें लाना सबसे अच्छा विकल्प होता है. वैसे यात्रा में तो लगभग सभी पेरेंट्स पैकेज्ड फूड ले ही जाते हैं.
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टीवी, टैबलेट से दूर
जहां अमेरिकी लोग बच्चों के विकास में मदद देने वाले ऐप्स और टीवी शो की तारीफ करते नहीं थकेंगे, वहीं जर्मन माता पिताओं में इसे लेकर एकमत नहीं है. बल्कि ज्यादातर अपने छोटे बच्चों को जब तक और जितना हो सके, इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस की स्क्रीनों से दूर ही रखते हैं.
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चीनी नहीं देना
कितने साल का होने तक बच्चे को खाने में चीनी नहीं दी गयी, इससे भी कुछ लोग अच्छी परवरिश का अंदाजा लगाते हैं. देखा गया है कि जर्मनी में ज्यादातर पेरेंट्स इस तरह के नियमों का अपने पहले बच्चे के लिए कुछ ज्यादा ही सख्ती से पालन करते हैं. (एलिजाबेथ ग्रेनियर/आरपी)
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इसके उलट, जर्मनी में पारिवारिक नीतियों की प्रगति पिछले कुछ वर्षों में धीमी पड़ी है. 2000 के दशक के अंत में जर्मनी ने डे-केयर सुविधाओं के विस्तार और स्वीडन की तरह पेरेंटल बेनिफिट्स जैसी योजनाएं अपनाकर दुनियाभर में प्रशंसा पाई थी. लेकिन डॉ. हुड्डे मानते हैं कि आज उस सुधार की गति थम चुकी है. उनका मानना है कि इस अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि जर्मनी सहित कई देशों को अब दोबारा पारिवारिक नीतियों को गति देने की जरूरत है.
अब उद्देश्य की तलाश
शोध यह भी दिखाता है कि आज की पीढ़ी केवल मनोरंजन या जीवन की सुख-सुविधाएं नहीं चाहती, बल्कि वे ऐसे उद्देश्यों की तलाश में हैं जो उन्हें आत्मिक संतोष दे. डॉ. हुड्डे कहते हैं, "लोग चाहते हैं कि उनका जीवन सिर्फ मौज-मस्ती में न बीते, बल्कि किसी बड़े उद्देश्य से जुड़ा हो. और कई लोग उस उद्देश्य को मातृत्व या पितृत्व में पाते हैं.” यही कारण है कि भले ही बच्चे पालना कठिन हो, लेकिन वे जीवन को एक गहराई और दिशा देते हैं.
इस अस्पताल में बच्चे वीडियो गेम खेलकर ठीक हो जाते हैं
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यह अध्ययन एक जटिल लेकिन महत्वपूर्ण सच्चाई की ओर इशारा करता है कि बच्चे जीवन को उद्देश्य दे सकते हैं, लेकिन अगर समाज उन्हें पालने के लिए पर्याप्त समर्थन न दे, तो वही उद्देश्य बोझ भी बन सकता है. इस शोध के जरिए नीति-निर्माताओं को यह समझने का अवसर मिलता है कि अगर वे समाज को खुशहाल देखना चाहते हैं, तो उन्हें माता-पिता को सिर्फ नैतिक नहीं, बल्कि आर्थिक और संस्थागत सहारा भी देना होगा.