भारत के लोकतंत्र में अनेक कमियां और कमजोरियां हैं, लेकिन इसके बावजूद वह पिछले सात दशकों से चल रहा है और अपनी जड़ें जमा चुका है. अब उसे हिलाना इतना आसान नहीं, कहना है कुलदीप कुमार का.
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पीयू रिसर्च के सर्वे के नतीजे चौंकाने वाले तो हैं ही, बहुत अधिक विश्वसनीय भी नहीं हैं. खासकर इसलिए क्योंकि इसके नतीजे 38 देशों के केवल लगभग 42,000 लोगों से पूछे गए सवालों के जवाबों पर आधारित हैं. हमें यह भी नहीं पता कि सवाल ठीक-ठीक किन शब्दों में और किस अंदाज में पूछे गए. फिर भारत जैसे सवा अरब आबादी वाले देश के लिए इतने छोटे से सैंपल के आधार पर निष्कर्ष निकालना आसान नहीं है. यूं पीयू अमेरिका का प्रतिष्ठित थिंक टैंक है, लेकिन ऐसे मामलों में अक्सर प्रतिष्ठित थिंक टैंक भी गलतियां करते देखे गए हैं.
मजबूत नेता की चाहत
क्या भारतीय एक मजबूत नेता चाहते हैं? अवश्य चाहते हैं. यदि न चाहते तो 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी लोकसभा में बहुमत प्राप्त करके प्रधानमंत्री न बने होते. दस वर्षों तक प्रधानमंत्री के पद पर काम करने के बाद मनमोहन सिंह की छवि एक कमजोर और पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी पर निर्भर रहने वाले नेता की बन गई थी. फिर वह जननेता न होकर अर्थशास्त्री यानि तकनीकी विशेषज्ञ थे. लेकिन उनका भी पहला कार्यकाल सफल माना गया क्योंकि जनता ऐसे मंत्रियों और प्रधानमंत्रियों से आजिज आ गई थी जिन्हें अपने मंत्रालय के मामलों के बारे में कोई जानकारी नहीं होती. मनमोहन सिंह की आलोचना उनके कमजोर प्रधानमंत्री होने के कारण होती थी, अर्थशास्त्री के रूप में सरकार की नीतियां बनाने में उनके योगदान की प्रशंसा ही की जाती थी. भारतीयों को सरकार में तकनीकी विशेषज्ञता से लैस व्यक्तियों के होने पर अक्सर कोई आपत्ति नहीं होती. अमेरिका में भी राष्ट्रपति के अलावा सभी मंत्री नामजद होते हैं और अक्सर टेक्नोक्रेट की श्रेणी से ही आते हैं.
इंसानी इतिहास के सबसे क्रूर तानाशाह
हर चीज को अपने मुताबिक करवाने की सनक, ताकत और अतिमहत्वाकांक्षा का मिश्रण धरती को नर्क बना सकता है. एक नजर ऐसे तानाशाहों पर जिनकी सनक ने लाखों लोगों की जान ली.
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1. माओ त्से तुंग
आधुनिक चीन की नींव रखने वाले माओ त्से तुंग के हाथ अपने ही लोगों के खून से रंगे थे. 1958 में सोवियत संघ का आर्थिक मॉडल चुराकर माओ ने विकास का नारा दिया. माओ की सनक ने 4.5 करोड़ लोगों की जान ली. 10 साल बाद माओ ने सांस्कृतिक क्रांति का नारा दिया और फिर 3 करोड़ लोगों की जान ली.
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2. अडोल्फ हिटलर
जर्मनी के नाजी तानाशाह अडोल्फ हिटलर के अपराधों की लिस्ट बहुत ही लंबी है. हिटलर ने 1.1 करोड़ लोगों की हत्या का आदेश दिया. उनमें से 60 लाख यहूदी थे. उसने दुनिया को दूसरे विश्वयुद्ध में भी धकेला. लड़ाई में 7 करोड़ जानें गई. युद्ध के अंत में पकड़े जाने के डर से हिटलर ने खुदकुशी कर ली.
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3. जोसेफ स्टालिन
सोवियत संघ के संस्थापकों में से एक व्लादिमीर लेनिन के मुताबिक जोसेफ स्टालिन रुखे स्वभाव का शख्स था. लेनिन की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत के बाद सोवियत संघ की कमान संभालने वाले स्टालिन ने जर्मनी को हराकर दूसरे विश्वयुद्ध में निर्णायक भूमिका निभाई. लेकिन स्टालिन ने अपने हर विरोधी को मौत के घाट भी उतारा. स्टालिन के 31 साल के राज में 2 करोड़ लोग मारे गए.
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4. पोल पॉट
कंबोडिया में खमेर रूज आंदोलन के नेता पोल पॉट ने सत्ता में आने के बाद चार साल के भीतर 10 लाख लोगों को मौत के मुंह में धकेला. ज्यादातर पीड़ित श्रम शिविरों में भूख से या जेल में यातनाओं के चलते मारे गए. हजारों की हत्या की गई. 1998 तक कंबोडिया के जंगलों में पोल पॉट के गुरिल्ला मौजूद थे.
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5. सद्दाम हुसैन
इराकी तानाशाह सद्दाम हुसैन की कुर्द समुदाय के प्रति नफरत किसी से छुपी नहीं थी. 1979 से 2003 के बीच इराक में 3,00,000 कुर्द मारे गए. सद्दाम पर रासायनिक हथियारों का प्रयोग करने के आरोप भी लगे. इराक पर अमेरिकी हमले के बाद सद्दाम हुसैन को पकड़ा गया और 2006 में फांसी दी गई.
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6. ईदी अमीन
सात साल तक युगांडा की सत्ता संभालने वाले ईदी अमीन ने 2,50,000 से ज्यादा लोगों को मरवाया. ईदी अमीन ने नस्ली सफाये, हत्याओं और यातनाओं का दौर चलाया. यही वजह है कि ईदी अमीन को युगांडा का बूचड़ भी कहा जाता है. पद छोड़ने के बाद ईदी अमीन भागकर सऊदी अरब गया. वहां मौत तक उसने विलासिता भरी जिंदगी जी.
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7. मेनगिस्तु हाइले मरियम
इथियोपिया के कम्युनिस्ट तानाशाह से अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ लाल आतंक अभियान छेड़ा. 1977 से 1978 के बीच ही उसने करीब 5,00,000 लाख लोगों की हत्या करवाई. 2006 में इथियोपिया ने उसे जनसंहार का दोषी करार देते हुए मौत की सजा सुनाई. मरियम भागकर जिम्बाब्वे चला गया.
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8. किम जोंग इल
इन सभी तानाशाहों में सिर्फ किम जोंग इल ही ऐसे हैं जिन्हे लाखों लोगों को मारने के बाद भी उत्तर कोरिया में भगवान सा माना जाता है. इल के कार्यकाल में 25 लाख लोग गरीबी और कुपोषण से मारे गए. इल ने लोगों पर ध्यान देने के बजाए सिर्फ सेना को चमकाया.
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9. मुअम्मर गद्दाफी
मुअम्मर गद्दाफी ने 40 साल से ज्यादा समय तक लीबिया का शासन चलाया. तख्तापलट कर सत्ता प्राप्त करने वाले गद्दाफी के तानाशाही के किस्से मशहूर हैं. गद्दाफी पर हजारों लोगों को मौत के घाट उतारने और सैकड़ों औरतों से बलात्कार और यौन शोषण के आरोप हैं. 2011 में लीबिया में गद्दाफी के विरोध में चले लोकतंत्र समर्थक आंदोलनों में गद्दाफी की मौत हो गई.
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10. फ्रांकोइस डुवेलियर
1957 में हैती की कमान संभालने वाला डुवेलियर भी एक क्रूर तानाशाह था. डुवेलियर ने अपने हजारों विरोधियों को मरवा दिया. वो अपने विरोधियों को काले जादू से मारने का दावा करता था. हैती में उसे पापा डुवेलियर के नाम से जाना जाता था. 1971 में उसकी मौत हो गई. फिर डुवेलियर का बेटा भी हैती का तानाशाह बना.
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तानाशाही या लोकतंत्र
भारतीय एक मजबूत नेता चाहते हैं, तो क्या वे सैनिक शासक या नागरिक तानाशाह की बाट जोह रहे हैं? भारतीयों की मानसिकता और पिछले दशकों के राजनीतिक इतिहास को देखते हुए इसे मानना बहुत कठिन है. पिछले सात दशकों से भारत में संसदीय प्रणाली पर आधारित लोकतंत्र है जिसमें सभी वयस्कों को वोट देने का अधिकार मिला हुआ है. अब गांव का अनपढ़ किसान भी अपने इस अधिकार के महत्व को पहचानता है क्योंकि उसे पता है कि इसका इस्तेमाल करके वह सरकारें पलट सकता है. और उसने कई बार पलटी भी हैं. इंदिरा गांधी की सिर्फ डेढ़ साल चली इमरजेंसी को लोग 42 साल बाद भी नहीं भूले हैं. वे अपने वोट के आधार पर चुनी हुई सरकारों से चाहे जितना भी असंतुष्ट हों, लेकिन वे अपने लोकतांत्रिक अधिकारों को तिलांजलि देकर किसी तानाशाह के शासन को स्वीकार नहीं करेंगे. भारत के लोकतंत्र में अनेक कमियां और कमजोरियां हैं, लेकिन इसके बावजूद वह पिछले सात दशकों से चल रहा है और अपनी जड़ें जमा चुका है. अब उसे हिलाना इतना आसान नहीं.
कैसे सत्ता तक पहुंचा हिटलर
न तो सेना की ट्रेनिंग थी, न ही राजनीति का अनुभव, इसके बावजूद 18 महीने में एक राजनीतिज्ञ ने जर्मन लोकतंत्र को तानाशाही में बदल दिया.
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हिटलर का आना
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद 1920 के दशक में जर्मनी की हालत बेहद खराब थी. दो वक्त का खाना जुटाना तक बड़ी चुनौती थी. देश को राजनीतिक स्थिरता की जरूरत थी. 1926 के चुनाव में हिटलर की पार्टी को सिर्फ 2.6 फीसदी वोट मिले. लेकिन सितंबर 1930 में हुए अगले चुनावों में उसकी पार्टी (NSDAP) को 18.3 फीसदी वोट मिले. लेकिन कैसे?
तस्वीर: Stadtmuseum Berlin
लोगों को रिझाना
लोगों को रिझाने के लिए हिटलर ने अपनी आत्मकथा माइन काम्फ (मेरा संघर्ष) का इस्तेमाल किया. सरल ढंग से लिखी गई किताब के अंश लोगों को याद रहे. किताब के जरिये पाठकों की भावनाओं को हिटलर की तरफ केंद्रित किया गया.
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नफरत का फैलाव
यहूदी जर्मन बुद्धिजीवी हाना आरेन्ट के मुताबिक नाजियों ने यहूदियों और विदेशियों के प्रति जनमानस में घृणा फैलाई. इस दौरान वामपंथियों और उदारवादियों को दबा दिया गया. आरेन्ट के मुताबिक घृणा और राजनीतिक संकट को हथियार बनाकर हिटलर ने जमीन तैयार की.
तस्वीर: ullstein
किसानों और कारोबारियों की मदद
एक नए शोध के मुताबिक NSDAP को वोट देने वालों में ज्यादातर किसान, पेंशनभोगी और कारोबारी थे. उन्हें लगता था कि हिटलर की पार्टी ही आर्थिक तरक्की लाएगी. लेकिन हाइवे बनाने जैसे कार्यक्रमों के जरिये रोजगार पैदाकर हिटलर ने आम लोगों का भी समर्थन जीता.
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बर्लिन की झड़प
1932 के चुनावों से पहले बर्लिन में गृह युद्ध जैसी नौबत आई. हिटलर समर्थक गुंडों ने जुलाई 1932 में हड़ताल या प्रदर्शन करने वाले कामगारों को मार डाला. हिटलर का विरोध करने वाली पार्टियों को उम्मीद थी कि इसका फायदा उन्हें चुनाव में मिलेगा. लेकिन नतीजे बिल्कुल सोच से उलट निकले. हिटलर की पार्टी को 37.4 फीसदी वोट मिले.
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सत्ता की भूख
1932 के पहले चुनाव के बाद कोई भी राजनीतिक दल सरकार बनाने में नाकाम रहा. लिहाजा नवंबर 1932 में फिर चुनाव हुए. इस बार हिटलर की पार्टी को नुकसान हुआ और सिर्फ 33 प्रतिशत सीटें मिली. वामपंथियों और कम्युनिस्टों को 37 फीसदी सीटें मिलीं. लेकिन वे विभाजित थे. सबसे बड़ी पार्टी होने के कारण हिटलर को सरकार बनाने का निमंत्रण मिला. इस तरह हिटलर सत्ता में आया.
तस्वीर: ullstein
ताकत की छटपटाहट
30 जनवरी 1933 को हिटलर ने चांसलर पद की शपथ ली. इसके बाद राजनीतिक गतिरोध का हवाला देकर उसने राष्ट्रपति से संसद को भंग करने को कहा. 1 फरवरी को संसद भंग कर दी गयी लेकिन हिटलर चांसलर बना रहा. उसके बाद एक महीने के भीतर अध्यादेशों की मदद से राजनीतिक और लोकतांत्रिक अधिकार छीने गए और लोकतंत्र को नाजी अधिनायकवाद में बदल दिया गया.
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लोकतंत्र का अंत
1936 के चुनावों में बहुमत मिलने के बाद नाजियों ने यहूदियों को कुचलना शुरू किया. सरकारी एजेंसियों और विज्ञापनों का सहारा लेकर हिटलर ने अपनी छवि को और मजबूत बनाया. वह जर्मनी को श्रेष्ठ आर्य नस्ल का देश कहता था और खुद को उसका महान नेता. आत्ममुग्धता के इस मायाजाल में लोग फंस गए.
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"कमल का फूल, हमारी भूल"
मई के बाद एक और बड़ी घटना हुई है और वह है जीएसटी प्रणाली का लागू होना. इस नई प्रणाली से काफी लोग परेशान हैं. पीयू सर्वे मई में खत्म हो गया था. इसलिए यदि उसके इस निष्कर्ष को मान भी लें कि 85 प्रतिशत भारतीय सरकार के कामकाज से खुश हैं, तो भी अब अक्तूबर में यह कहना बहुत कठिन है कि आज भी इतने ही भारतीय सरकार के कामकाज से खुश होंगे क्योंकि नोटबंदी के तत्काल बाद लागू जीएसटी प्रणाली से छोटा और मंझोला व्यापारी इस कदर परेशान है कि बहुत बड़ी संख्या में व्यापारियों ने अपने कैश मेमो पर छपवा लिया है: "कमल का फूल, हमारी भूल". छात्रों का भी सरकार से मोहभंग होता नजर आ रहा है.
सर्वे का यह निष्कर्ष सही लगता है कि 50 साल से अधिक उम्र के लोग लोकतंत्र के प्रति अधिक चिंतित हैं क्योंकि उन्होंने या उनकी ठीक पहली पीढ़ी के लोगों ने देश में आजादी और लोकतंत्र लाने और उनकी जड़ें जमाने के लिए कोशिशें कीं जबकि युवा वर्ग के पास ऐसी कोई स्मृति नहीं है.
भारत के 55 फीसदी लोगों को पसंद तानाशाही
अमेरिकी थिंक टैंक पीयू रिसर्च ने दुनिया भर में लोकतांत्रिक व्यवस्था के समर्थन से जुड़ा एक सर्वे जारी किया है. यह सर्वे 38 देशों के तकरीबन 42 हजारों लोगों के बीच किया गया है. एक नजर सर्वे के खास तथ्यों पर.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
सरकार पर भरोसा
सर्वे मुताबिक भारत के करीब 85 फीसदी लोग सरकार पर भरोसा करते हैं लेकिन दिलचस्प है कि देश की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा तानाशाही और सैन्य शासन के भी समर्थन में है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
तानाशाही
सर्वे की मानें तो भारत की 55 फीसदी लोग तानाशाही को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन देती है, लेकिन वहीं एक चौथाई से अधिक लोग (लगभग 27 फीसदी) मजबूत नेता चाहते हैं.
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सही तरीका
दुनिया भर के तकरीबन 26 फीसदी लोगों ने माना है कि मजबूत नेता वाली सरकार स्वतंत्र निर्णय लेने में सक्षम होती है और इसके फैसलों पर संसद और अदालत का दखल नहीं होता जो सरकार चलाने का अच्छा तरीका है. लेकिन 71 फीसदी इसे अच्छा नहीं मानते.
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तकनीकी तंत्र
भारत, एशिया प्रशांत क्षेत्र के उन तीन देशों में से एक है जहां लोग तकनीकी तंत्र (टेक्नोक्रेसी) का समर्थन करते हैं. देश में 65 फीसदी लोग ऐसी सरकार का समर्थन करते हैं जिसमें तकनीकी विशेषज्ञ शामिल होते हैं.
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एशिया प्रशांत क्षेत्र
भारत के अलावा एशिया प्रशांत में वियतनाम (67 फीसदी) और फिलीपींस (62 फीसदी) में टेक्नोक्रेसी को समर्थन प्राप्त है. लेकिन ऑस्ट्रेलिया में करीब 57 फीसदी लोग इसे सरकार चलाने का खराब तरीका मानते हैं.
तस्वीर: AP
सैन्य शासन
सर्वे के मुताबिक करीब 53 फीसदी भारतीय और 52 फीसदी दक्षिण अफ्रीकी लोग अपने देश में सैन्य शासन के पक्षधर हैं. लेकिन इन देशों में 50 साल से अधिक उम्र के लोग इस विचार का समर्थन नहीं करते.