मुलायम सिंह यादव को पद्मविभूषण: सम्मान या वोटबैंक पर निगाह?
२७ जनवरी २०२३1990 के दशक में जब मंडल-कमंडल की राजनीति का दौर था, तब से लेकर अब तक भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी एक-दूसरे की धुर विरोधी रही हैं. भारतीय जनता पार्टी ने जहां अपने राजनीतिक अस्तित्व को न सिर्फ बचाने, बल्कि यहां तक पहुंचाने के लिए अयोध्या में राम मंदिर का सहारा लिया. वहीं बीजेपी मुलामय सिंह यादव को इस बात के लिए कोसती रही कि उन्होंने विवादित बाबरी मस्जिद को बचाने और वहां मंदिर बनने से रोकने के लिए कारसेवकों पर गोलियां तक चलवाईं. यहां तक कि मुलायम सिंह यादव को परोक्ष रूप से 'मुल्ला मुलायम' तक की संज्ञा दे डाली.
भारतीय जनता पार्टी के मोदी दौर में भी उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी उसकी सबसे बड़ी विरोधी पार्टी है. लेकिन, पार्टी नेता मुलायम सिंह यादव के साथ बीजेपी, खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का तालमेल कुछ इस तरह रहा है कि कई बार समाजवादी पार्टी के लोग ही नहीं, बल्कि मुलायम सिंह के बेटे और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव भी हैरान रह जाते हैं.
गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर जिन छह लोगों को पद्मविभूषण देने की घोषणा हुई, उनमें समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव का भी नाम था. उन्हें मरणोपरांत यह सम्मान देने का एलान हुआ. मुलायम सिंह यादव का पिछले साल 10 अक्टूबर को निधन हो गया था. पद्मविभूषण सम्मान की घोषणा ने सभी को हैरान कर दिया, समाजवादी पार्टी को भी. सपा के सामने स्थिति यह आ गई कि वे इस सम्मान के लिए बीजेपी का आभार जताए या न जताए. विरोध का तो खैर सवाल ही पैदा नहीं होता.
बहरहाल, पार्टी ने आधिकारिक तौर पर तो इस पर कोई टिप्पणी नहीं की, लेकिन पार्टी के कई नेताओं ने इस सम्मान पर खुशी जताई और नेताजी यानी मुलायम सिंह यादव को भारत रत्न देने की मांग की.
नरेंद्र मोदी और मुलायम सिंह यादव के रिश्ते
यह पहला मौका नहीं है, जब मुलायम सिंह यादव के साथ बीजेपी के संबंधों को लेकर राजनीतिक चर्चाओं का बाजार गर्म है. मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात की चुनावी सभा में भावुक होकर उन्हें याद किया, तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ समेत कई नेता उन्हें श्रद्धांजलि देने उनके पैतृक गांव सैफई गए. अभी कुछ दिनों पहले ही बीजेपी की राज्य कार्यकारिणी की बैठक में भी मुलायम सिंह यादव को कुछ इस तरह याद किया गया, मानो वह बीजेपी के ही कोई बड़े नेता रहे हों.
दरअसल विपक्षी दलों के नेताओं को सम्मान देने या फिर उनके योगदान को महत्व देते हुए उन्हें पुरस्कार देना कोई नई परंपरा नहीं है और न ही इस पर हैरानी होनी चाहिए. लेकिन, पिछले कुछ वर्षों से राजनीति में विपक्षी दलों और उनके नेताओं को सिर्फ राजनीतिक विरोधी न मानते हुए जिस तरह दुश्मन सरीखा व्यवहार करने की परंपरा चल निकली है, उसे देखते हुए ऐसी घटनाएं हैरान करती हैं.
अतीत में कैसी रही हैं परंपराएं
राजनीतिक विरोधियों का सार्वजनिक सम्मान करना एक आम चलन रहा है. लोकसभा में अपने विरोध में चुनाव लड़ने और हराने के बावजूद देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की कोशिश रहती थी कि समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया संसद में जरूर पहुंचें. इसकी वजह यह थी कि वह लोहिया जैसे विपक्षी नेताओं की जरूरत समझते थे, जो उन्हें गलतियों के प्रति आगाह करते थे. अटल बिहारी वाजपेयी और चंद्रशेखर सरीखे नेताओं का संसद और संसद के बाहर सभी दलों के नेता आदर करते थे. यह सूची बहुत लंबी है.
अब बदले हुए राजनीतिक परिदृश्य में ऐसी स्थिति आ गई है कि लोकतंत्र में विपक्ष के योगदान को सिर्फ इसलिए स्वीकार नहीं किया जा रहा है, क्योंकि वे सरकार का विरोध कर रहे हैं. सत्ताधारी पार्टी विचारों की प्रतिस्पर्धा के बदले विपक्ष को कमजोर करने में लगी हैं और संदेह का माहौल इतना गहरा है कि अपनी पार्टी के लोग भी सम्मान स्वीकार करने में घबरा रहे हैं.
बीजेपी के कौन से फायदे गिनाते हैं जानकार
जहां तक मुलायम सिंह यादव को सम्मान देने का सवाल है, तो बीजेपी एक तीर से दो निशाने साधने में लगी है. एक ओर वह बचे-खुचे अन्य पिछड़े वर्गों को अपनी ओर मिलाने में लगी है, तो दूसरी ओर यूपी में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी को एक ऐसी स्थिति में डाल देना चाहती है कि वह बीजेपी सरकार के कार्यों की प्रशंसा करने पर विवश हो जाए. हालांकि, इससे पहले भी बीजेपी कांग्रेस पार्टी के बड़े नेताओं का सम्मान करके और कांग्रेस पार्टी से जुड़े महापुरुषों का सम्मान करके उन पर अधिकार जताने की कोशिश कर चुकी है.
लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं, "मुलायम सिंह यादव को सम्मान देकर बीजेपी ने यादवों का तुष्टिकरण करने की कोशिश नहीं की है, बल्कि पिछड़े वर्गों का तुष्टिकरण करने का प्रयास किया है. मुलायम सिंह यादव लंबे समय तक पिछड़ी जातियों के सर्वमान्य नेता रहे हैं. अखिलेश यादव की वह स्थिति नहीं है. बीजेपी ने इससे बड़ा संदेश देने का काम किया है. सबसे बड़ी बात यह भी है कि कैसे अखिलेश यादव को धर्म संकट में डाला जाए. चुनाव से पहले बीजेपी अक्सर ऐसा करती है कि संदेश भी चला जाए और भ्रम भी बना रहे. इस एक कदम से उसके दोनों मकसद सिद्ध हो गए."
बीजेपी पर सपा के साथ सांठ-गांठ के आरोप
हालांकि, समाजवादी पार्टी, खासकर मुलायम सिंह यादव पर अक्सर ऐसे आरोप लगते रहे कि उनका बीजेपी के साथ कोई 'छिपा गठबंधन' है. कई मौकों पर ऐसे आरोपों की पुष्टि भी होती रही और साल 2013 में मुजफ्फरनगर दंगों के दौरान ये आरोप काफी मुखरता से लगे. इसके अलावा साल 2019 में संसद भवन में मुलायम सिंह द्वारा नरेंद्र मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनने की शुभकामनाएं देना और एक मौके पर अखिलेश यादव की मौजूदगी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कान में कुछ कहना, अब तक रहस्य बना हुआ है.
मुलायम सिंह यादव और उनके परिवार के अन्य सदस्यों पर आय से अधिक संपत्ति का केस दर्ज कराने वाले सुप्रीम कोर्ट के वकील विश्वनाथ चतुर्वेदी कहते हैं, "बीजेपी और सपा के बीच सांठ-गांठ का इसी से पता चलता है कि जो बीजेपी सपा शासन के दौरान उस पर इतने घोटालों के आरोप लगाती रही, सरकार बनने के बाद सीबीआई जांच की सिफारिश भी की, लेकिन आज तक सारी कार्रवाई ठंडे बस्ते में पड़ी है. जबकि राज्य में बीजेपी सरकार का दूसरा कार्यकाल चल रहा है. दरअसल यूपी में समाजवादी पार्टी को विपक्ष के तौर पर बनाए रखना बीजेपी को राजनीतिक लाभ देता है और बीजेपी इस लाभ को हाथ से क्यों जाने देगी."
बीजेपी को नुकसान होने की सूरत
हालांकि, इसका एक दूसरा पक्ष भी है. बीजेपी ने मुलायम सिंह यादव की जो छवि गढ़ी है और जिस तरह से उन्हें कथित तौर पर हिन्दू विरोधी और मुस्लिम समर्थक नेता के तौर पर प्रचारित किया है, अब उनके प्रति यह सम्मान और इतनी हमदर्दी दिखाना कहीं बीजेपी के लिए ही आत्मघाती न बन जाए.
यूपी में बीजेपी के एक बड़े नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, "जब आम कार्यकर्ता और बीजेपी समर्थक बीजेपी नेताओं से मुलायम सिंह को दिए इस सम्मान के बारे में पूछेगा, तो हम क्या जवाब देंगे? क्या हम यह बताएंगे कि उन्हें यह सम्मान कारसेवकों पर गोलियां चलवाने के लिए दिया गया, दंगे करवाने के लिए दिया गया या फिर राममंदिर का विरोध करने के लिए दिया गया? आखिर हमारी पार्टी ही तो अब तक इन सबके लिए मुलायम सिंह को कोसती थी?"
पार्टी के अंदरखाने क्या है हाल
लेकिन सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं कि बीजेपी का मौजूदा नेतृत्व यूपी और उत्तर भारत के अन्य राज्यों में लगातार मिल रहे विशाल जनसमर्थन के चलते इतने आत्मविश्वास में है कि उसे इन सब बातों की परवाह ही नहीं है. वह कहते हैं, "बीजेपी ऐसे बिंदु पर पहुंच गई है, जहां उसे नुकसान होता नहीं दिख रहा है. उसे लगता है कि हिन्दू समुदाय उन्हें बहुमत देता रहेगा और इसलिए देता रहेगा, क्योंकि उसके पास बीजेपी के अलावा कोई और विकल्प नहीं है. दूसरी ओर, बीजेपी को अपना आधार बढ़ाना है, तो अब और कहां बढ़ाएंगे. जिन्हें वे अपनी तरफ कर चुके हैं, उनके छोड़ने का डर बीजेपी को शायद नहीं है, क्योंकि उसे यह लगता है कि ये लोग बीजेपी को छोड़कर जाएंगे कहां?"
हालांकि, नाम न छापने की शर्त पर बात करने वाले यूपी बीजेपी के नेता इस मुगालते में नहीं हैं. वे चाहते हैं कि उनकी पार्टी का शीर्ष नेतृत्व भी इस गफलत में न रहे. वे कहते हैं, "यूपी में एक बार आधार खिसका था, तो दोबारा सत्ता में आने में चौदह साल लग गए. तब भी कुछ लोग यही मानते थे कि अब हमें कोई हटा ही नहीं सकता है. लेकिन इतना आत्मविश्वास भी ठीक नहीं है. जिस दिन मजबूत और स्थाई आधार को नजरअंदाज कर दिया गया, तो नए आधार पर इमारत खड़ी करना तो दूर, उसे बचाना मुश्किल हो जाएगा."