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राजनीति के खेल में पीछे छूट गए खेल

शिवप्रसाद जोशी
३० दिसम्बर २०१६

सुरेश कलमाड़ी और अभय चौटाला को ओलंपिक संघ में पद मिलना, उस कैंसर के लक्षण हैं जिनसे भारत के खेल संघ पीड़ित हैं.

Deepa Karmakar - Indische Gymnastin
तस्वीर: DW/J. Sehgal

सुरेश कलमाड़ी और अभय चौटाला को भारतीय ओलंपिक संघ ने अपना लाइफटाइम अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव क्या पास किया, भारत के खेल प्रशासन की नैतिकता मानो गहरी नींद से उठी. खेल राजनीति के गलियारों में हलचलें बढ़ गईं और खेल मंत्रालय भी जैसे हड़बड़ाकर जगा.

सुरेश कलमाड़ी 1996 से 2011 तक भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष रह चुके हैं. 2010 में दिल्ली में कॉमनवेल्थ खेलों में हुए घोटाले के आरोपों के बाद उन्हें 10 महीने जेल की हवा खानी पड़ी, बाद में जमानत पर रिहा हुए. हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री और टीचर भर्ती घोटाले में जेल की सजा काट रहे ओम प्रकाश चौटाला के सुपुत्र अभय चौटाला ने भारतीय ओलंपिक संघ की कमान संभाली दिसंबर 2012 में. वो इस पद पर फरवरी 2014 तक रहे. इस दौरान वो आय से अधिक संपत्ति के मामले में जमानत पर थे.

देश के खेल संगठनों में नेताओं, नौकरशाहों, कारोबारियों और भूतपूर्वों का कब्जा है और ये सिलसिला राज्यों से लेकर केंद्र तक अटूट है. इस गठजोड़ ने भारत में खेल को एक चरागाह में तब्दील कर दिया है. अभी तो हाल ये है कि कई जगह खेल समितियां और संगठन "फैमिली गेट-टुगेदर” जैसे हो गए हैं. पंजाब से लेकर तमिलनाडु तक कोई न कोई नेता और उसका नजदीकी रिश्तेदार किसी न किसी खेल संगठन का इंचार्ज जरूर मिल जाएगा. खेल प्रशासन का मौजूदा मॉडल भी विद्रूप का शिकार है. उसमें आंतरिक समन्वय नहीं है. युवा मामलों का मंत्रालय, खेल मंत्रालय, भारतीय खेल प्राधिकरण, भारतीय ओलपिंक संघ, राज्य ओलंपिक संगठन और राष्ट्रीय खेल फेडरेशन- ये सब वे संरचनाएं हैं जिन पर वित्त और संसाधन मुहैया कराने के अलावा खेल प्रतिभाओं की तलाश और उन्हें निखारने की जिम्मेदारी है. लेकिन वे लचर ही साबित हुई हैं क्योंकि पूरे सिस्टम में कहीं भी जवाबदेही सुनिश्चित नहीं की गई है. बस ताकतें अपार हैं.

क्रिकेट ही नहीं भारत में हॉकी, बैडमिंटन, फुटबॉल, कुश्ती से लेकर जिमनास्टिक्स आदि तक हर जगह राजनीति, भाई भतीजावाद, वित्तीय घोटाले और पक्षपात का साया नजर आता है. जाहिर है इसका असर खिलाड़ियों के प्रदर्शन, उनके चयन में गंभीरता और कुल मिलाकर समूचे खेल ढांचे पर पड़ता है. त्रिपुरा की जिमनास्ट दीमा करमाकर का उदाहरण कौन भूल सकता है जिन्हें भारीभरकम और विराट संसाधनों वाले खेल संघों और समितियों से कोई मदद नहीं मिली. अपने बलबूते ओलंपिक गईं और अपनी प्रतिस्पर्धा में फाइनल राउंड में पहुंचकर चौथा स्थान हासिल किया. इस उपलब्धि के साथ वो देश की पहली महिला जिमनास्ट बनीं. ओलंपिक में भारतीय मैराथन धावक ओपी जैशा का उदाहरण भी सामने हैं जिन्हें पूरी दौड़ में कहीं पर भी पानी या कोई ड्रिंक पिलाने के लिए भारतीय प्रतिनिधि मौजूद नहीं था. कहां थे वे और क्या कर रहे थे?  दो पहलवानों सुशील कुमार और नरसिंह यादव के टकराव का जिम्मेदार कौन था?

ओलंपिक जैसे बड़े खेल आयोजनों के टीम इंवेटों में भारत अब भी फिसड्डी है. आखिर क्या कारण हैं कि पुलेला गोपीचंद जैसे खेल नायक मेहनत, समर्पण और त्याग से चैंपियन तैयार करते हैं लेकिन देश की खेल संस्थाएं सफेद हाथी की तरह अपनी अपनी जगह पसरी हुई सी हैं. वहां कोई हरकत अगर होती है तो वे पैसों और भर्ती के घोटाले की या वर्चस्व की होती दिखती है. यही कारण है कि दशकों तक कलमाड़ी, चौटाला और भनोट जैसे लोग शीर्षस्थ पदों पर जमे रहते हैं.

अगर हालात सुधारने हैं तो सबसे पहले इस ढांचे को दुरुस्त किए जाने की जरूरत है. खेल प्रशासन की जो अफसरशाही विकसित कर दी गई है और नये किले अंदर ही अंदर विकसित हो गए हैं उन्हें ध्वस्त करना होगा. एक स्वतंत्र खेल नियामक की जरूरत है. सारे संगठनों पर उसकी निगरानी और नियंत्रण हो, चाहे वो भर्ती हो या वित्तीय प्रबंधन हो या खिलाड़ियों की सुविधा. और इसमें नेताओं और अफसरों का बोलबाला न हो. सदस्यता के लिए योग्यता का निर्धारण जरूरी है. रसूख और परिवारवाद को हर हाल में इससे अलग रखना होगा. अपनी वित्तीय स्थिति का लेखाजोखा एक निश्चित अंतराल पर इन संगठनों को देना चाहिए. हर बड़ी खेल स्पर्धा के बाद भी ऐसा करना चाहिए. बयानबाजी से बचना भी सीखना होगा.

अगर खिलाड़ियों के प्रदर्शन पर अप्रिय टिप्पणी शोभा डे जैसे चर्चितों को शोभा नहीं देती तो खेलों के नाम पर अतिशय राष्ट्रवादी सनक भी घातक है. फिर कमियां नहीं नजर आतीं, राष्ट्रप्रेम हिलोरें लेने लगता है और भ्रष्ट सिस्टम चैन की बंसी बजाता रहता है. नैतिकता और शुचिता की निरंतर दुहाई के इस दौर में लगता है सबसे ज्यादा खतरे में यही दोनों चीज़ें आ गई हैं. बयान हो या खींचतान, विवाद का सारा मलबा मानो शुचिता पर ही गिर रहा है, चाहे वो खेल में हो या राजनीति में या समाज में.

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