अमेरिका समेत कई देश पोलैंड पर दबाव बना रहे हैं कि यहूदियों को अपने पुरखों के घरों पर दावा करने से रोकने वाला कानून न लाया जाए.
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होलोकास्ट और कम्युनिस्ट सरकारों के दौरान जिन लोगों की संपत्तियों को छीन लिया गया था, उन्हें वापस पाने की राह में बड़ी बाधा माना जा रहा एक कानून पोलैंड की संसद से जल्दी ही पास हो सकता है.
पिछले हफ्ते अमेरिका ने कहा कि यूरोप में पोलैंड ही ऐसा देश है जो नात्सी नरसंहार के दौरान यातनाएं झेलने वाले परिवारों की संपत्तियां लौटाने या मुआवजा देने की प्रतिबद्धता से पीछे हट रहा है. हालांकि पोलिश नेता इन आलोचनाओं को खारिज करते हैं.
क्या है कानून?
प्रस्तावित कानून इसी महीने से लागू हो सकता है. इस कानून को इस्राएल भी खारिज कर चुका है. यदि यह कानून पास होता है तो संपत्ति पर दावा करने पर 30 वर्ष की सीमा लागू हो जाएगी.
इसका अर्थ होगा कि कम्युनिस्ट शासन के दौरान जो संपत्तियां छीनी गई थीं, उन पर मौजूदा दावे भी खारिज हो जाएंगे. यह कानून पोलिश, यहूदी और अन्य कई तबकों को प्रभावित करेगा.
पोलैंड का कहना है कि यह कानून इसलिए बनाया जा रहा है क्योंकि संपत्तियों के दावों में कई फ्रॉड और अनियमितताएं पाई गई हैं. अधिकारियों के मुताबिक कई बार मकानों में रह रहे लोगों को निकालना पड़ा या वे प्रॉपर्टी डीलरों के हाथों में चले गए.
अधिकारियों का कहना है कि संपत्ति पर अधिकार के दावे अब भी संभव होंगे, बस उसके लिए अदालत के जरिए दावा करना होगा और किसी भी राष्ट्रीयता के लोग ये दावे कर सकेंगे.
पोलैंड के दावे अधूरे
अमेरिका और इस्राएल इन तर्कों से सहमत नहीं हैं. इस्राएल ने तो यहां तक कहा है कि यह कानून पोलैंड के साथ उसके संबंधों को प्रभावित कर सकता है.
एक अमेरिकी अधिकारी ने पिछले हफ्ते समाचार एजेंसी एपी को बताया, "हम इस बात से निराश हैं कि पोलैंड की सरकार और विपक्ष दोनों ही जानबूझकर संपत्ति की वापसी से अक्सर पीछे हटते दिखते हैं. हम चाहेंगे कि पोलिश अधिकारी कम से कम इतना संशोधन कानून में जरूर करे कि जो मौजूदा दावे हैं, वे जारी रहें और उनकी प्रशासनिक प्रक्रिया पूरी हो.”
तस्वीरों मेंः हिमलर की खूनी डायरी
हिमलर की खूनी डायरी
सबसे क्रूर नाजी नेताओं में शुमार हाइनरिष हिमलर की एक डायरी सार्वजनिक हुई, जिसमें उसने 1937-38 और 1944-45 यानि दूसरे विश्व युद्ध के पहले और अपने आखिरी दिनों का ब्यौरा दर्ज किया था.
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मॉस्को स्थित जर्मन इतिहास संस्थान (डीएचआई) अगले साल हिमलर की उन डायरियों को प्रकाशित करने जा रहा है जिसमें दूसरे विश्व युद्ध के ठीक पहले और बाद के दिनों में उसकी ड्यूटी के दौरान जो भी घटा वो दर्ज है. कुख्यात नाजी संगठन एसएस के राष्ट्रीय प्रमुख की यह आधिकारिक डायरी 2013 में मॉस्को के बाहर पोडोल्स्क में रूसी रक्षा मंत्रालय ने बरामद की थी.
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डायरी में हिमलर अपने अगले दिन की योजना के बारे में टाइप करके लिखता था. इसे देखकर जाना जा सकता है कि तब हिमलर के दिन कैसे गुजरते थे. इसमें तमाम अधिकारियों, एसएस के जनरलों के साथ रोजाना होने वाली बैठकों के अलावा मुसोलिनी जैसे विदेशी नेताओं से मुलाकात की बात दर्ज है. इसके अलावा आउशवित्स, सोबीबोर और बूखेनवाल्ड जैसे यातना शिविरों के दौरे का भी जिक्र है.
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हिमलर की सन 1941-42 की डायरी 1991 में ही बरामद हो गई थी और उसे 1999 में प्रकाशित किया गया था. हिमलर को अडोल्फ हिटलर के बाद नंबर दो नेता माना जाता था. 23 मई 1945 को ल्यूनेबुर्ग में ब्रिटिश सेना की हिरासत में आत्महत्या करने वाले हिमलर ने अपने जीवनकाल में एसएस प्रमुख के अलावा, गृहमंत्री और रिप्लेसमेंट आर्मी के कमांडर के पद संभाले थे.
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सभी यातना शिविरों के नेटवर्क के अलावा घरेलू नाजी गुप्तचर सेवा का काम भी हिमलर देखता था. हिमलर के अलावा ऐसी डायरी नाजी प्रोपगैंडा प्रमुख योसेफ गोएबेल्स रखता था. इन डायरियों से होलोकॉस्ट के नाम से प्रसिद्ध यहूदी जनसंहार में हिमलर की भूमिका साफ हो जाती है. डायरी में दिखता है कि उसने यातना शिविरों और वॉरसॉ घेटो का भी दौरा किया और वहां यहूदियों की सामूहिक हत्या करवाई.
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जर्मन दैनिक "बिल्ड" में प्रकाशित इस डायरी के कुछ अंशों में दिखता है कि 4 अक्टूबर, 1943 को हिमलर ने पोजनान में एसएस नेताओं के एक समूह को संबोधित किया. इस तीन घंटे के भाषण में हिमलर ने "यहूदी लोगों के सफाए" की बात कही थी. आधिकारिक तौर पर किसी नाजी नेता के होलोकॉस्ट का जिक्र करने के प्रमाण दुर्लभ ही मिले हैं. हिमलर यूरोप के साठ लाख यहूदियों के खात्मे का गवाह और कर्ताधर्ता रहा.
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नाजी काल के विशेषज्ञों को पूरा भरोसा है कि यह डायरी और दस्तावेज सच्चे हैं. रूस की रेड आर्मी के हाथ लगी इस डायरी के 1,000 पेजों को 2017 के अंत तक दो खंडों वाली किताब के रूप में प्रकाशित किया जाएगा.
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पोडोल्स्क आर्काइव में करीब 25 लाख पेजों वाले ऐसे दस्तावेज मौजूद हैं जिन्हें युद्ध के दौरान रेड आर्मी ने बरामद किया था. अब इन्हें डिजिटलाइज किया जा रहा है और रूसी-जर्मन संस्थानों द्वारा प्रकाशित भी.
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डायरी में एक दिन की एंट्री देखिए- 3 जनवरी, 1943: हिमलर अपने डॉक्टर के पास "थेरेपी मसाज" के लिए गया. मीटिंग्स कीं, पत्नी और बेटी से फोन पर बातें कीं और उसी रात मध्यरात्रि को अनगिनत पोलिश परिवारों को मरवा दिया.
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इन दस्तावेजों से हिमलर की विरोधाभासी तस्वीर उभरती है. एक ओर वो सबका ख्याल रखने वाला पारिवारिक व्यक्ति था तो दूसरी ओर अवैध संबंध के तहत मिस्ट्रेस रखता था और उसकी नाजायज संतान भी थी. वो ताश खेलने और तारे देखने का शौकीन था तो यातना शिविरों में आंखों के सामने लोगों को मरते देखने का भी.
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हिमलर की अपनी सेक्रेटरी हेडविग पोटहास्ट के साथ भी दो संतानें थीं. डायरी में उसने 10 मार्च, 1938 को नाजी प्रोपगैंडा प्रमुख योसेफ गोएबेल्स के साथ जाक्सेनहाउजेन के यातना शिविर का दौरा करने और 12 फरवरी, 1943 को सोबीबोर में तबाही को देखने जाने का ब्यौरा लिखा है. ऐसी विस्तृत और पक्की जानकारी पहली बार हिमलर की डायरी के कारण ही सामने आई है.
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वर्ल्ड जूइश रेस्टीट्यूशन ऑर्गनाइजेशन और वर्ल्ड जूइश कांग्रेस ने भी पोलैंड की सरकार से मांग की है कि एक ऐसा कानून या प्रक्रिया बनाई जाए जो समस्या को समग्र दृष्टि से देखे और मुआवजे के मामलों को समय पर हल करे.
अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने छह ऐसे देशों की पहचान की है जहां मुआवजों के दावों को अब भी पूरी तरह निपटाया नहीं गया है. लेकिन अमेरिकी अधिकारियों के मुताबिक उन छह देशों में से सिर्फ पोलैंड ही है जो पीछे हट रहा है. बाकी देश हैं क्रोएशिया, हंगरी, लातविया, लिथुआनिया और रोमानिया.
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विवाद का इतिहास
दूसरे विश्व युद्ध से पहले पोलैंड में यूरोप की सबसे बड़ी यहूदी आबादी रहती थी, जिनकी संख्या लगभग 35 लाख थी. नात्सी जर्मनी के दौरान हुए नरसंहार में इस आबादी का बड़ा हिस्सा मारा गया था. जर्मनी के पोलैंड पर कब्जे के दौरान बड़ी संख्या में यहूदी लोगों की संपत्तियों को उनसे छीन लिया गया था.
युद्ध के बाद जब देश में कम्युनिस्ट सरकार बनी तो उसने भी वॉरसा और अन्य शहरों में यहूदियों से इतर दूसरे लोगों की संपत्तियां भी छीनीं. 1989 में जब कम्युनिस्ट शासन का अंत हुआ तो संपत्तियों पर दोबारा दावे के रास्ते खुले. इनमें से ज्यादातर पोलिश लोगों ने ही किए थे.
देखिएः ऐन फ्रैंक की कहानी
ऐन फ्रैंक की कहानी
कई सालों तक ऐन फ्रैंक का परिवार नीदरलैंड्स में छिपता रहा. लेकिन आखिरकार नाजियों ने उनका पता लगाकर 4 अगस्त 1944 में आउश्वित्स के यातना शिविर भेज दिया. ऐन ने अपनी छिपने की जगह में अपनी डायरी लिखी जो दुनिया भर में मशहूर है.
इस फोटो में ऐन आगे बाईं तरफ खड़ी हैं. उनकी बहन मार्गोट पीछे दाहिनी तरफ खड़ी हैं. ऐन के पिता ओटो फ्रैंक ने मार्गोट की आठवीं सालगिरह पर यह फोटो खीचीं थी. 1934 में यह तस्वीर नीदरलैंड्स में ली गई.
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एम्सटरडम में छिपने की जगह
नीदरलैंड्स की राजधानी में ओटो फ्रैंक ने अपनी कंपनी बनाई. इस घर में कंपनी का दफ्तर था और इसके पीछे ऐन के पिता ने छिपने की जगह बनाई. 1942 से लेकर 1944 तक ऐन का परिवार चार और परिवारों के साथ यहां रहा. ऐन ने यहीं अपनी डायरी भी लिखी.
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डायरी बनी सहेली
शुरुआत से ही ऐन ने हर दिन अपनी डायरी में लिखा. वह उसकी सहेली थी और ऐन उसे किटी बुलाती थी. इस दौरान ऐन की जिंदगी में कई चिंताएं आ गईं. "मुझे लेकिन अच्छा लगता है कि मैं जो सोचती और महसूस करती हूं, उसे कम से कम लिख सकती हूं, नहीं तो मेरा दम बिलकुल घुट जाता."
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बैर्गेन बेलसेन में मौत
ऐन फ्रैंक और उसकी बहन मार्गोट को 30 अक्तूबर 1944 को आउश्वित्स से बैर्गेन बेलसेन लाया गया. इस यातना शिविर में 70,000 से ज्यादा लोग मारे गए. नाजियों को हराने के बाद ब्रिटिश सैनिकों ने बंदियों को छुड़ाया और मृतकों के शवों को सार्वजनिक कब्रिस्तान तक लाए. ऐन और उसकी बहन मार्गोट की मौत लेकिन टाइफस बीमारी की वजह से हो चुकी थी. ऐन उस वक्त 15 साल की थीं.
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ऐन की कब्र
बेर्गन बेलसेन में ऐन की कब्र भी है. फ्रैंकफर्ट में पैदा होने वाली ऐन ने अपनी जिंदगी में कई सपने देखे. अपनी डायरी में उसने लिखा, "मैं बेकार में नहीं जीना चाहती, जैसे ज्यादातर लोग जीते हैं. मैं उन लोगों को जानना चाहती हूं जो मेरे आसपास रहते हैं लेकिन मुझे नहीं जानते, उनके काम आना और उनके जीवन में खुशी लाना चाहती हूं. मैं और जीना चाहती हूं, अपनी मौत के बाद भी."
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डायरी से मशहूर
ऐन फ्रैंक लेखक बनना चाहती थीं. उनके पिता ने 25 जून 1947 को डायरी प्रकाशित की और उसे नाम दिया, "पिछवाड़े वाला घर." किताब बहुत मशहूर हुई और ऐन नाजी यातना का प्रतीक बन गई. 6 जुलाई 1944 को ऐन ने लिखा, "हम सब खुश होने के मकसद से जीते हैं, हम सब अलग अलग जीते हैं लेकिन फिर भी एक ही तरह से."
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यूरोप में पोलैंड ही एक ऐसा देश है जिसने सरकार द्वारा छीनी गई निजी संपत्ति के बदले कोई मुआवजा नहीं दिया है. सिर्फ सामुदायिक यहूदी संपत्तियों जैसे यहूदी धर्मस्थलों, प्रार्थना स्थलों और कब्रिस्तानों को या तो लौटाया गया या फिर उनके लिए मुआवजा दिया गया.
अब भी देश में बड़ी संख्या में ऐसे दावे शेष हैं जिनका निपटारा नहीं हो पाया है. यह मुद्दा अक्सर देश में राजनीतिक रंग भी लेता रहा है. इसके अलावा अमेरिका और इस्राएल से तनाव का कारण भी बनता रहा है.