कोविड़-19 महामारी से इन्सानों को बचाने के लिए लड़ी जा रही लड़ाई में बंदरों की अहम भूमिका है. अमेरिका के एक शोध केंद्र में पांच हजार बंदर इसीलिए रखे गए हैं. पर क्या यह नैतिक है?
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अमेरिका के लुइजियाना में एक छोटे से कस्बे में पांच सौ एकड़ जमीन पर बने एक बाड़े में लगभग पांच हजार बंदर उछल-कूद करते देखे जा सकते हैं. इनमें से ज्यादातर रीसस मैकाकेस प्रजाति के हैं. ट्यूलान नैशनल रीसर्च सेंटर में रह रहे इन बंदरों में से ज्यादातर इन्सान की कोविड-19 महामारी से रक्षा में योगदान देने के लिए तैयार किए जा रहे हैं.
उच्च स्तरीय जैव-सुरक्षा वाले इस केंद्र में प्रयोगशालाएं ऐंथ्रेक्स जैसे गंभीर जैविक खतरों से निपटने में सक्षम हैं. लेकिन कोरोनावायरस महामारी के हमले के बाद इन प्रयोगशालाओं ने खुद को तेजी से कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई के लिए तैयार कर लिया. और ये पांच हजार बंदर उसी तैयारी का हिस्सा हैं.
केंद्र के एसोसिएट डायरेक्टर स्किप बॉम कहते हैं कि इन्सानी बीमारियों पर अध्ययन के लिए बंदरों का इस्तेमाल काफी सटीक रहता है क्योंकि उनका डीएनए और शारीरिक गुण उन्हें इन्सानों से तुलना के लिए एक आदर्श मॉडल बनाते हैं.
उन्होंने बताया, "ये गैर-मानव प्राइमेट हमारे लिए न सिर्फ बीमारी और उसके मानव शरीर पर होने वाले प्रभाव को समझ पाने के लिए लिहाज से बेहद अहम हैं, बल्कि हम विभिन्न इलाजों, थेरेपी और टीकों की तुलना भी कर सकते हैं."
वैज्ञानिक शोध में रीसस मैकाकेस प्रजाति के बंदरों का सर्वाधिक प्रयोग किया जाता है. इसी प्रजाति के बंदर ट्यूलान केंद्र की ब्रीडिंग कॉलनी में सबसे ज्यादा हैं. पिछले एक साल में दो सौ से ज्यादा वयस्क बंदरों को कोरोनावायरस से संबंधित प्रयोगों में इस्तेमाल किया जा चुका है.
कोरोना की कितनी किस्में हैं भारत में
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि सबसे पहले भारत में सामने आई कोरोना वायरस की किस्म अब 53 देशों में फैल चुकी है. आखिर वायरस के कितने वेरिएंट हैं भारत में?
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क्या होते हैं वेरिएंट
वायरस म्युटेशन की बदौलत हमेशा बदलते रहते हैं और इस परिवर्तन से उनकी नई किस्मों का जन्म होता है जिन्हें वेरिएंट कहते हैं. कभी कभी नए वेरिएंट उभर कर गायब भी होते हैं और कभी कभी वो मौजूद रहते हैं. कोविड-19 महामारी के दौरान दुनिया में इस संक्रमण को फैलाने वाले कई वेरिएंट पाए गए हैं.
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यूके वेरिएंट
इसका वैज्ञानिक नाम बी.1.1.7 है और यह सबसे पहले यूके में पाया गया था. दिसंबर 2020 से लेकर मार्च 2021 तक यह कई देशों में पाया गया. इंग्लैंड के बाहर इसे इंग्लिश वेरिएंट या यूके वेरिएंट के नाम से जाना जाता है.
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दक्षिण अफ्रीका वेरिएंट
बी.1.351 को दक्षिण अफ्रीका वैरिएंट के नाम से जाना जाता है. यह सबसे पहले अक्टूबर 2020 में दक्षिण अफ्रीका में पाया गया था. धीरे धीरे यह भारत समेत कई देशों में फैल गया और फरवरी 2021 में यह भारत में भी पाया गया.
इसका वैज्ञानिक नाम पी.1 है और यह सबसे पहले जनवरी 2021 में ब्राजील में पाया गया था. इस ब्राजील में आई घातक दूसरी लहर के लिए जिम्मेदार माना जाता है. फरवरी 2021 में यह भारत में भी पाया गया.
इसके वैज्ञानिक रूप से बी.1.618 के नाम से जाना जाता है. मार्च में पश्चिम बंगाल में यह बड़ी संख्या में संक्रमण के मामलों के लिए जिम्मेदार पाया जा रहा था, जिसकी वजह से इसे पश्चिम बंगाल वैरिएंट भी कहा जा रहा था. लेकिन वैज्ञानिक मानते हैं कि अब यह वेरिएंट कमजोर हो गया है.
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'भारतीय' वेरिएंट
यह एक ऐसा वेरिएंट है जो जीनोमिक अध्ययन में पहली बार भारत में ही पाया गया था. इसे बी.1.617 का नाम दिया गया है. भारत में अप्रैल से फैली संक्रमण की घातक लहर के लिए इसी वेरिएंट को बड़े स्तर पर जिम्मेदार माना जा रहा है. इसमें वायरस के स्पाइक प्रोटीन में दो म्युटेशन पाए जाते हैं. स्पाइक प्रोटीन वो प्रोटीन होता है जिसकी मदद से वायरस मानव शरीर की कोशिकाओं में घुसता है और शरीर को संक्रमित करता है.
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सब-वेरिएंट
वैज्ञानिकों का मानना है कि बी.1.617 के अपने तीन उप-वेरिएंट भी बन चुके हैं. बी.1.617 को अब बी.1.617.1 के नाम से जाना जाता है. इसके अलावा बी.1.617.2 और बी.1.617.3 नाम के दो और उप-वेरिएंट देखे गए हैं. माना जा रहा है कि इनमें से बी.1.617.2 यूके में सामने आने वाले सबसे ज्यादा नए मामलों के लिए जिम्मेदार है.
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केंद्र में हो रहे कोविड-19 से संबंधित अध्ययनों में से एक बीती फरवरी में विज्ञान पत्रिका नेशनल अकैडमी ऑफ साइसेंज में प्रकाशित हुआ था. इस शोध में पता चला कि भारी शरीरों वाले ज्यादा आयु के मरीज सांस लेते ज्यादा वाष्पकण छोड़ते हैं, जो उन्होंने सुपरस्प्रैडर बनाता है. अध्ययन में शामिल रहे केंद्र के संक्रामक रोग विभाग के निदेशक चैड रॉय कहते हैं कि इस अध्ययन में बंदरों का योगदान बेहद अहम था.
आने वाले समय में लंबी अवधि के कोविड पर अध्ययन को योजना पर भी काम चल रहा है, जो कुछ मरीजों में देखा गया है. लगभग दस फीसदी मरीज लंबे समय तक कोविड से बीमार रहे हैं
अध्ययन पूरा हो जाने के बाद ट्यूलान सेंटर में, शोध में शामिल रहे बंदरों को मार दिया जाता है और उनके ऊतकों को जमा कर लिया जाता है, जिससे श्वसन तंत्र के इतर हो रहे कोविड-19 के असर का अध्ययन किया जा सके. इस वजह से कुछ लोग नाखुश भी हैं. जानवरों के अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था पीपल फॉर द एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स (PETA) की कैथी गिलेर्मो कहती हैं कि बंदरों पर प्रयोग नहीं होने चाहिए.
वह कहती हैं, "अगर उनका इस्तेमाल ना किया होता, तो उन्हें मारना भी ना पड़ता. हमें अगर कुछ काम की बात पता चलेगी तो इन्सानों पर प्रयोग से ही पता चलेगी."
वीके/आईबी (रॉयटर्स)
इन जीवों से सीखकर अंतरिक्ष तक पहुंचा इंसान
अंतरिक्ष में जाने वाला पहला प्राणी कौन था? यूरी गागरिन, नहीं. पहला जीव कोई और था. जानिये अंतरिक्ष में जाने वाले जीवों की कहानी.
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अंतरिक्ष की पहली उड़ान
1947 में सोवियत संघ ने पहली बार जीव को अंतरिक्ष में भेजा. वह एक मक्खी थी. दस साल बाद 1957 में सोवियत संघ ने एक कुतिया को अंतरिक्ष में भेजा. लेकिन रॉकेट लॉन्च के कुछ घंटों बाद लाइका मर गयी.
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पहली सफलता
लाइका की मौत के बावजूद सोवियत संघ ने कुत्तों को अंतरिक्ष भेजना जारी रखा. धीरे धीरे रॉकेटों को ज्यादा सुरक्षित बनाया जाने लगा. 1960 में स्ट्रेल्का और बेल्का नाम के कुत्तों को अंतरिक्ष में वापस भेजा गया. दोनों सुरक्षित वापस लौटे. 1961 में स्ट्रेल्का का एक बच्चा तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति की बेटी को भेंट भी किया गया.
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फिर बंदर की बारी
रूस जहां कुत्तों को अंतरिक्ष में भेज रहा था, वहीं अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा बंदरों के भरोसे तैयारियां कर रही थी. 1958 में अमेरिका ने गोर्डो नाम के बंदर को अंतरिक्ष में भेजा लेकिन उसकी मौत हो गयी. साल भर बाद 1959 में मिस बेकर और एबल नाम के बंदरों को भेजा गया. दोनों सुरक्षित वापस लौटे.
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बंदरों पर असर
एबल और मिस बेकर पृथ्वी की कक्षा से जिंदा वापस लौटने वाले पहले बंदर थे. 500 किलोमीटर ऊपर भारहीनता ने बंदरों की हालत खस्ता कर दी थी. लैंडिंग के कुछ ही देर बाद एबल की मौत हो गयी. मिस बेकर 1984 में 27 साल की उम्र पूरी करके विदा हुई.
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कैप्सूल का प्रयोग
सैम भाग्यशाली रहा कि उस पर मिस बेकर और एबल की तरह भारहीनता के प्रयोग नहीं किये गए. सैम नाम के बंदर के जरिये अंतरिक्ष यात्रियों को जिंदा रखने वाले कैप्सूल का टेस्ट हुआ. सैम इस टेस्ट में कामयाब रहा.
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पहला चिम्पांजी
कुत्ते और बंदरों के बाद इंसान के बेहद करीब माने जाने वाले चिम्पांजी की अंतरिक्ष यात्रा का नंबर आया. 1961 में अमेरिका ने हैम नाम के चिम्पाजी को अंतरिक्ष में भेजा. उसने छह मिनट तक भारहीनता का सामना किया. वह जिंदा वापस लौटा. उसके शरीर का अध्ययन कर भारहीनता में शरीर कैसे काम करता है, यह समझने में मदद मिली.
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छोटे लेकिन टफ जीव
कुत्तों, बंदरों और चिम्पांजी को अंतरिक्ष में भेजने के बाद इंसान भी अंतरिक्ष में गया. लेकिन ऐसा नहीं है कि अब दूसरे जीवों को अंतरिक्ष में भेजने का काम बंद हो गया है. यूरोपीय स्पेस एजेंसी ने 2007 में टार्डीग्रेड नाम के सूक्ष्म जीवों को अंतरिक्ष में भेजा. वे 12 दिन जीवित रहे. उनकी मदद से पता किया जा रहा है कि निर्वात और सौर विकिरण जीवन पर कैसा असर डालता है. (रिपोर्ट: लीजा हैनेल/ओएसजे)