प्रदर्शन या दबाव: इतने ताकतवर क्यों हैं फ्रांस के किसान
१ मार्च २०२४पेरिस में हर साल आयोजित होने वाला अंतरराष्ट्रीय कृषि प्रदर्शन मेला आमतौर पर फ्रांसीसी राजनेताओं के लिए ऐसा मंच होता है, जहां वे मतदाताओं को दिखाने की कोशिश करते हैं कि वे ‘जमीन से कितने जुड़े' हैं. इस साल यह कार्यक्रम 24 फरवरी को शुरू हुआ. यह लिटमस टेस्ट होगा कि क्या सरकार की हालिया रियायतें फ्रांसीसी किसानों का गुस्सा शांत करने के लिए पर्याप्त हैं.
मेले के पहले दिन फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों यहां पहुंचे, लेकिन उनका तीखा विरोध हुआ. इससे ऐसा लगा कि किसान चाहते हैं सरकार उनका समर्थन करने के लिए और अधिक प्रयास करे. भीड़ गुस्से में थी और लोगों ने माक्रों के खिलाफ सीटियां बजाईं और अपशब्द कहे. ये लोग घटती आमदनी और बढ़ती नौकरशाही के खिलाफ कई हफ्तों से प्रदर्शन कर रहे थे.
ब्रसेल्स स्थित यूरोपियन एनवॉयरमेंट ब्यूरो में प्रकृति, स्वास्थ्य और पर्यावरण की निदेशक फॉस्टिन बास-डेफोसेज ने कहा कि इन विरोध-प्रदर्शनों पर फ्रेंच सरकार की प्रतिक्रिया दिखाती है कि वहां के किसान कितने ज्यादा ताकतवर हैं. यह ब्यूरो 40 देशों के 180 गैर-सरकारी संगठनों का नेटवर्क है. हालांकि, गौर करने वाली बात ये है कि फ्रांस के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि का योगदान सिर्फ 1.6 फीसदी के आसपास ही है.
बास-डेफोसेज ने डीडब्ल्यू को बताया, "पिछले साल पेंशन में सुधार के विरोध में हुए प्रदर्शनों को लाठीचार्ज और आंसू गैस से दबा दिया गया था. वहीं, सरकार ने इस बार किसानों के विरोध प्रदर्शन पर नरम रुख अपनाया है. जबकि इस दौरान करीब 12,000 किसानों ने देश भर में कई जगहों पर सड़कों को जाम कर दिया था और कई हफ्तों तक प्रदर्शन किया था. पुलिस ने सिर्फ कुछ ही जगहों पर हस्तक्षेप किया. उदाहरण के लिए, जब दर्जनों प्रदर्शनकारियों ने पेरिस के नजदीक अंतरराष्ट्रीय थोक बाजार को बंद कराने की कोशिश की.”
किसानों की ताकत के पीछे संरचनात्मक कारण
बास-डेफोसेज बताती हैं, "फ्रांस में किसानों का राजनीतिक प्रभाव हर स्तर पर मजबूत है. इसकी कई वजहें हैं. एक तो कृषि से जुड़े कई संगठन हैं और दूसरी वजह ये है कि कई स्थानीय राजनेता खुद भी किसान ही हैं.”
पेरिस स्थित थिंक टैंक 'इंस्टिट्यूट फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट एंड इंटरनेशनल रिलेशंस' में कृषि और खाद्य नीति के निदेशक पियरे-मैरी ऑबर्ट ने कहा कि ‘सह-प्रबंधन' भी एक कारण है. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "फ्रांस में पिछले 50 सालों से सरकार कृषि नीतियों को देश के सबसे बड़े किसान संघ एफएनएसईए के साथ मिलकर तय करती रही है. इसे ‘कृषि विशेषाधिकार' कहा जाता है. इस तरह का सिस्टम जर्मनी जैसे अन्य देशों में भी है.”
विशेषज्ञ ने कहा कि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, फ्रांस में किसानों की संख्या लगभग पांच लाख है. साथ ही, कृषि क्षेत्र का स्पष्ट और संगठित प्रतिनिधित्व किसानों के पक्ष में काम करता है. वहीं, किसी अन्य तरह के प्रदर्शन के दौरान काफी ज्यादा लोग शामिल होते हैं और उनके अलग-अलग संगठन भी होते हैं. इससे सामंजस्य बिठाना मुश्किल होता है. इसके अलावा, किसान हमेशा से ताकतवर रहे हैं, क्योंकि उनके पास जमीन का मालिकाना हक होता है जो किसी भी देश की रीढ़ की हड्डी होती है.
ऑबर्ट बताते हैं, "सरकार को अपनी जनसंख्या का पेट भरने में सक्षम होने से भी राजनीतिक मजबूती मिलती है. यह मजबूती कितनी महत्वपूर्ण है, इसका अंदाजा 2007 के आसपास लगभग 40 देशों में भोजन को लेकर हुए दंगों से लगाया जा सकता है. भोजन की कमी के चलते लोगों ने विरोध प्रदर्शन किए थे.”
उन्होंने कहा कि कोरोना महामारी और साल 2022 में यूक्रेन पर रूसी हमले की वजह से यह महसूस किया गया कि आपूर्ति शृंखलाओं पर ज्यादा निर्भरता सही नहीं है. इसलिए कृषि क्षेत्र को मजबूत बनाना ज्यादा जरूरी है. यही कारण है कि सरकार ने व्यापार मेले से ठीक पहले अतिरिक्त वादे करते हुए किसानों की कई मांगें तुरंत मान ली.
फ्रांस की सरकार ने नौकरशाही कम करने, आर्थिक समस्याओं से घिरे शराब निर्माताओं को अतिरिक्त सब्सिडी देने और किसानों को उचित थोक मूल्य की गारंटी देने वाले कानून को बेहतर बनाने का वादा किया. सरकार ने ट्रैक्टर के ईंधन के लिए टैक्स में की गई वृद्धि को भी हटा दिया. साथ ही, कीटनाशकों के इस्तेमाल को कम करने के लिए लागू किए गए नियमों को निलंबित कर दिया.
माक्रों ने ब्रसेल्स में किसानों के पक्ष में बात की
राष्ट्रपति माक्रों ने ब्रसेल्स में भी किसानों के पक्ष में बात की. उदाहरण के लिए, उन्होंने यूरोपीय संघ के उस नियम को आसान बना दिया जिसके तहत किसानों को जैव विविधता की रक्षा के लिए अपनी जमीन का चार फीसदी हिस्सा बंजर रखने की जरूरत होती है.
फ्रांस ने यूरोपीय संघ और दक्षिण अमेरिकी व्यापार ब्लॉक मर्कोसुर के बीच होने वाले व्यापार समझौते का भी विरोध किया है. किसानों के बीच अनुचित प्रतिस्पर्धा का डर पैदा होने के कारण फ्रांस इस समझौते का विरोध कर रहा है. फ्रांस के विरोध के बाद, अब यूरोपीय आयोग का कहना है कि "मर्कोसुर समझौते को अंतिम रूप देने के लिए जरूरी शर्तें पूरी नहीं हुई हैं.”
पश्चिमी फ्रांस स्थित एंगर्स विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के व्याख्याता और वामपंथी समूह 'द डिसमायड इकोनॉमिस्ट्स' के सदस्य डेविड कायला ने कहा कि मुक्त व्यापार समझौता वास्तव में एक बुरा विचार है. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "दक्षिण अमेरिका में मजदूरी और पर्यावरण मानक काफी कम हैं. इसके अलावा, वहां के खेत बड़े हैं. यूरोप की तुलना में श्रम से जुड़ी लागत कम आती है और उपज अधिक होती है. इससे वहां के किसानों को तुलनात्मक रूप से ज्यादा लाभ मिलता है.”
इसलिए अर्थशास्त्री फ्रांस के सांस्कृतिक क्षेत्र को दिए गए विशेषाधिकार की तरह ही ‘कृषि विशेषाधिकार' का समर्थन करते हैं. हाल ही में सरकार ने भी इसी तरह का विचार सामने रखा है.
देश के सांस्कृतिक क्षेत्र को दिए गए विशेषाधिकार का तात्पर्य उन विशेष उपायों से है, जिसके लिए सरकार का तर्क है कि सांस्कृतिक उत्पादों को वस्तुओं के समान नहीं माना जाना चाहिए. इन उपायों का उद्देश्य फ्रांस की संस्कृति और कला की रक्षा करना है. कायला ने कहा, "ऐसी व्यवस्था हमारे कृषि क्षेत्र की रक्षा कर सकती है. साथ ही, स्थानीय खाद्य आपूर्ति तंत्र के लिए मजबूत नींव तैयार कर सकती है.”
हालांकि, डबलिन स्थित ट्रिनिटी कॉलेज में यूरोपीय कृषि नीति के प्रोफेसर एलन मैथ्यूज का मानना है कि मर्कोसुर समझौता फायदेमंद साबित होगा. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "इसमें कृषि आयात पर सीमित मात्रा में ही आयात शुल्क कम किया जाएगा. मौजूदा तनावपूर्ण भू-राजनीतिक स्थिति को देखते हुए दुनिया के अन्य हिस्सों के साथ व्यापार समझौते होना महत्वपूर्ण है.”
ज्यादा टिकाऊ प्रणाली की जरूरत
कृषि विशेषज्ञ ऑबर्ट का मानना है कि सरकार का इस मामले पर किसानों का पक्ष लेना एक और संकेत है कि राजनेता अपने प्रभाव को लेकर कितने सतर्क हैं, खासकर जून में होने वाले यूरोपीय संघ के संसदीय चुनावों से पहले.
उन्होंने बताया, "नई डच फार्मर्स पार्टी, धुर-दक्षिणपंथियों को सत्ता में लाने में मदद कर सकती है. जर्मनी का धुर-दक्षिणपंथ हालिया किसान विरोध प्रदर्शनों का समर्थन कर रहा है. यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि फ्रांसीसी धुर-दक्षिणपंथी नेता मारिअन मारेचल ले पेन ब्रसेल्स में विरोध-प्रदर्शन कर रहे किसानों से मिलने गई थीं.”
पर्यावरणविद् फॉस्टिन ने कहा कि यह यूरोपीय लोकतंत्र के लिए खतरा है. फॉस्टिन कहते हैं, "फ्रांस के किसान यूरोपीय संघ के खिलाफ लोगों की भावनाओं का फायदा उठाकर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. हालांकि, वे यूरोपीय संघ की कृषि नीतियों से सबसे ज्यादा लाभ पाने वाले लोग हैं. फ्रांस के किसान यूरोपीय संघ की ग्रीन डील को बलि का बकरा बना रहे हैं, जबकि इस डील का अभी तक कृषि क्षेत्र पर कोई ठोस असर नहीं पड़ा है.”
ब्रसेल्स स्थित थिंक टैंक 'इंस्टिट्यूट फॉर यूरोपियन एनवॉयर्नमेंटल पॉलिसी' से जुड़े हेरिएट ब्रैडली ने भी किसानों के प्रदर्शन को लेकर चिंता जताई है. उन्होंने कहा, "हम किसानों की सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों को समझते हैं, लेकिन पर्यावरण से जुड़े कठोर नियमों को कम करने की उनकी मांग को मान लेना सही नहीं है. इसकी जगह हमें दीर्घकालिक और टिकाऊ नजरिया अपनाना चाहिए, जो उन्हें भविष्य में आने वाले कठिन मौसम से निपटने में सक्षम बनाए.”
ऑबर्ट कहते हैं कि आगे बढ़ने के लिए एक शर्त को पूरा करना होगा. उन्होंने कहा, "हमें ऐसी व्यवस्था बनाने की जरूरत है, जहां पर्यावरण के अनुकूल तरीके से उत्पादन करना आर्थिक रूप से फायदेमंद हो जाए.”