कतर ने खत्म किया कफाला सिस्टम, कम होगी श्रमिकों की परेशानी?
१३ दिसम्बर २०१६
खाड़ी देश कतर ने आखिरकार अपने विवादास्पद 'कफाला सिस्टम' को खत्म कर दिया है. 2022 में फुटबॉल विश्व कप की मेजबानी करने वाले कतर में इसे सबसे बड़ा श्रम सुधार बताया जा रहा है.
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कतर के श्रम मंत्री इस्सा साद अल-जफाली अल-नुएमी ने कहा कि कफाला नियमों को 13 दिसंबर से खत्म कर दिया जाएगा. इसकी जगह, कतर में काम करने वाले 21 लाख विदेशी श्रमिकों के लिए कॉन्ट्रैक्ट वाली व्यवस्था लाई जा रही है.
कफाला के तहत कतर में काम करने वाले सभी विदेशी कामगारों को एक स्थानीय प्रायोजक की जरूरत होती है. यह कोई व्यक्ति भी हो सकता है और कोई कंपनी भी. अगर कामगार को नौकरी बदलती है तो इस प्रायोजक से अनुमति लेनी पड़ती है. आलोचक इस सिस्टम को आधुनिक दौर की गुलामी बताते हैं क्योंकि इसमें कामगारों के अधिकारों का कोई संरक्षण नहीं था और उनका उत्पीड़न बहुत होता था.
ये हैं 21वीं सदी के गुलाम, देखिए
21वीं सदी के "गुलाम"
मानवाधिकार संगठन ह्यूमन राइट्स वॉच ने मानवाधिकारों के हनन के लिए एक बार फिर कतर की आलोचना की है. फुटबॉल विश्व कप की मेजबानी करने जा रहे कतर में विदेशी मजदूरों की दयनीय हालत है.
अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल संघ (फीफा) ने विवादों के बावजूद कतर को 2022 के वर्ल्ड कप की मेजबानी सौंपी. मानवाधिकार संगठनों का आरोप है कि कतर में स्टेडियम और होटल आदि बनाने पहुंचे विदेशी मजदूरों की बुरी हालत है.
एमनेस्टी इंटरनेशनल भी कतर पर विदेशी मजदूरों के शोषण का आरोप लगा चुका है. वे अमानवीय हालत में काम कर रहे हैं.
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एमनेस्टी के मुताबिक वर्ल्ड कप के लिए निर्माण कार्य के दौरान अब तक कतर में सैकड़ों विदेशी मजदूरों की मौत हो चुकी है.
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मानवाधिकार संगठनों के मुताबिक कतर ने विदेशी मजदूरों की हालत में सुधार का वादा किया था, लेकिन इसे पूरा नहीं किया गया है.
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वर्ल्ड कप के लिए व्यापक स्तर पर निर्माण कार्य चल रहा है. उनमें काम करने वाले विदेशी मजदूरों को इस तरह के कमरों में रखा जाता है.
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स्पॉन्सर कानून के तहत मालिक की अनुमति के बाद ही विदेशी मजदूर नौकरी छोड़ या बदल सकते हैं. कई मालिक मजदूरों का पासपोर्ट रख लेते हैं.
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ब्रिटेन के "द गार्डियन" अखबार के मुताबिक कतर की कंपनियां खास तौर नेपाली मजदूरों का शोषण कर रही हैं. अखबार ने इसे "आधुनिक दौर की गुलामी" करार दिया.
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अपना घर और देश छोड़कर पैसा कमाने कतर पहुंचे कई मजदूरों के मुताबिक उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि हालात ऐसे होंगे.
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कई मजदूरों की निर्माण के दौरान हुए हादसों में मौत हो गई. कई असह्य गर्मी और बीमारियों से मारे गए.
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कतर से किसी तरह बाहर निकले कुछ मजदूरों के मुताबिक उनका पासपोर्ट जमा रखा गया. उन्हें कई महीनों की तनख्वाह नहीं दी गई.
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कुछ मजदूरों के मुताबिक काम करने की जगह और रहने के लिए बनाए गए छोटे कमचलाऊ कमरों में पीने के पानी की भी किल्लत होती है.
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मजदूरों की एक बस्ती में कुछ ही टॉयलेट हैं, जिनकी साफ सफाई की कोई व्यवस्था नहीं है.
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नुएमी का कहना है, "नए कानून के जरिए कतर में काम करने वाले विदेशी श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा होगी. इसमें आधुनिक कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम को लाया जाएगा जिससे श्रमिकों को नौकरी बदलने में भी आसानी होगी."
कतर के अधिकारियों का कहना है कि नए कानून से देश के भीतर आने-जाने की आजादी होगी. उनके मुताबिक अगर किसी श्रमिक को लगता है कि उसके साथ अच्छा बर्ताव नहीं हो रहा है तो वह नौकरी बदल सकता है. हालांकि श्रमिकों को अपने देश जाने के लिए अब भी कंपनी या मालिक की अनुमति लेनी होगी.
जो लोग या कंपनियां श्रमिकों के पासपोर्ट जब्त कर लेते हैं, उन पर अब 25 हजार रियाल (6,800 डॉलर) का जुर्माना होगा जबकि कफाला के तहत जुर्माना 15 हजार रियाल था. बहुत से श्रमिकों की यह भी शिकायत होती है कि उन्हें कतर अधिक वेतन के वादे के साथ लाया गया था लेकिन यहां उन्हें उतना पैसा नहीं मिल रहा है. अधिकारियों का कहना है कि नए कानून के तहत इस तरह की शिकायतों पर ध्यान दिया जा सकेगा. आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि पिछले साल नियोक्ताओं के खिलाफ छह हजार शिकायतें दर्ज की गईं.
देखिए सबसे ज्यादा न्यूनतम मजदूरी कहां है
सबसे ज्यादा न्यूनतम मजदूरी
ओईसीडी के आंकड़ों के मुताबिक दुनिया में सबसे ज्यादा न्यूनतम मजदूरी देने वाले 15 देश ये हैं.
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स्लोवेनिया, 5.14 डॉलर प्रति घंटा
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स्पेन, 5.37 डॉलर प्रति घंटा
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जापान, 5.52 डॉलर प्रति घंटा
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कोरिया, 5.85 डॉलर प्रति घंटा
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अमेरिका, 6.26 डॉलर प्रति घंटा
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युनाइटेड किंगडम, 7.06 डॉलर प्रति घंटा
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कनाडा, 7.18 डॉलर प्रति घंटा
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जर्मनी, 7.19 डॉलर प्रति घंटा
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न्यूजीलैंड, 7.55 डॉलर प्रति घंटा
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नीदरलैंड्स, 8.20 डॉलर प्रति घंटा
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फ्रांस, 8.24 डॉलर प्रति घंटा
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आयरलैंड, 8.46 डॉलर प्रति घंटा
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बेल्जियम, 8.57 डॉलर प्रति घंटा
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लग्जमबर्ग, 9.24 डॉलर प्रति घंटा
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ऑस्ट्रेलिया, 9.54 डॉलर प्रति घंटा
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जब से कतर 2022 के फुटबॉल वर्ल्ड कप का मेजबान बना है, तब से उसके श्रम कानूनों की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आलोचना हो रही है और सबसे ज्यादा विवाद कफाला को लेकर है. कतर के श्रम मंत्री नुएमी ने आलोचकों से कहा है कि नए कानून के प्रभावी होने के लिए वे थोड़ा सा समय दें. लेकिन मानवाधिकार समूह एमनेस्टी इंटरनेशनल का कहना है कि नए कानून से ज्यादा फर्क पड़ने वाला नहीं है. संस्था से जुड़े जेम्स लिन कहते हैं, "नए कानून में सिर्फ प्रायोजक शब्द हटा दिया जा सकता है, लेकिन बुनियादी व्यवस्था तो वैसी ही रहेगी. यह अच्छी बात है कि कतर ने माना है कि उसके कानूनों से लोगों का शोषण हो रहा है लेकिन ये बदलाव पर्याप्त नहीं हैं और श्रमिकों का मुकद्दर अब भी उनका शोषण करने वाले बॉस ही तय करेंगे."
वहीं, कतर की सरकार एमनेस्टी की आलोचना को खारिज करती है और उसका कहना है कि वह ऐसी श्रम व्यवस्था बनाने के लिए बचनबद्ध है जो कर्मचारी और नियोक्ता दोनों के लिए उचित हो और बदलावों से श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित होगी.
एके/वीके (एएफपी)
ये बच्चे नहीं, मजदूर हैं, देखिए
बच्चे नहीं, मजदूर
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बच्चे नहीं, मजदूर
हर साल 12 जून को बाल श्रम विरोधी अंतरराष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाया जाता है. लेकिन दुनिया भर में अब भी करीब 17 करोड़ बच्चे मजदूरी कर रहे हैं. 1999 में विश्व श्रम संगठन (आईएलओ) के सदस्य देशों ने एक संधि कर शपथ ली कि 18 साल के कम उम्र के बच्चों को मजदूर और यौनकर्मी नहीं बनने दिया जाएगा.
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मेड इन इंडिया तौलिये
दक्षिण भारतीय राज्य तमिलनाडु में बाल मजदूर. इस फैक्ट्री में तौलिये बनाए जाते हैं. मजदूरी करने वाला यह बच्चा करोड़ों बाल मजदूरों में एक है. आईएलओ के मुताबिक एशिया में ही 7.80 करोड़ बच्चे मजदूरी कर रहे हैं. पांच से 17 साल की उम्र की युवा आबादी में से करीब 10 फीसदी से नियमित काम कराया जाता है.
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स्कूल से कोई वास्ता नहीं
पढ़ाई लिखाई या खेल कूद के बजाए ये बच्चे ईंट तैयार कर रहे हैं. भारत में मां-बाप की गरीबी कई बच्चों को मजदूरी में धकेल देती है. भारत के एक ईंट भट्टे में काम करने वाली इस बच्ची को हर दिन 10 घंटे काम करना पड़ता है, बदले में मिलते हैं 60 से 70 रुपये.
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सस्ते मजदूर
भारत की जनगणना रिपोर्ट के मुताबिक देश में 1.26 करोड़ बाल मजदूर हैं. ये सड़कों पर समान बेचते हैं, सफाई करते हैं, या फिर होटलों, फैक्ट्रियों और खेतों में काम करते हैं. व्यस्क मजदूरों की तुलना में बाल मजदूर को एक तिहाई मजदूरी मिलती है.
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अमानवीय हालात
आईएलओ की 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक 50 फीसदी बच्चे खतरनाक परिस्थितियों में काम करते हैं. कई रात भर काम करते हैं. कई बच्चों को श्रमिक अधिकार भी नहीं मिलते हैं. उनकी हालत गुलामों जैसी है.
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मेड इन बांग्लादेश
बांग्लादेश में बाल मजदूरी काफी प्रचलित है. यूनिसेफ के मुताबिक देश में करीब 50 लाख बच्चे टेक्सटाइल उद्योग में मजदूरी कर रहे हैं. टेक्सटाइल उद्योग बांग्लादेश का सबसे बड़ा एक्सपोर्ट सेक्टर है. यहां बनने वाले सस्ते कपड़े अमीर देशों की दुकानों में पहुंचते हैं.
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महानगर में अकेले
कंबोडिया में प्राइमरी स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या सिर्फ 60 फीसदी है. स्कूल न जाने वाले ज्यादातर बच्चे अपने माता-पिता के साथ काम करते हैं. हजारों बच्चे ऐसे भी है जो सड़कों पर अकेले रहते है. राजधानी नोम पेन्ह की ये बच्ची सामान घर तक पहुंचाती है.
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लंबी है सूची
हालांकि दुनिया भर में सन 2000 के बाद बाल मजदूरों की संख्या गिरी है लेकिन एशिया के ज्यादातर देशों में हालात नहीं सुधरे हैं. बांग्लादेश, अफगानिस्तान, नेपाल, कंबोडिया और म्यांमार में अब भी ज्यादा पहल नहीं हो रही.