267 साल में पहली बार ऐसा हुआ है कि पुरुषों की संख्या महिलाओं से ज्यादा हो गई है. विशेषज्ञ हैरान हैं कि ऐसा कैसे हो गया.
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स्वीडन में औरतें घट गई हैं. आदमी ज्यादा हो गए हैं. इसमें क्या बड़ी बात है? भारत में तो हमेशा से ऐसा ही है, है न? यह बड़ी बात है क्योंकि स्वीडन ने जब से आंकड़े जमा करने शुरू किए हैं, पहली बार ऐसा हुआ है.
स्वीडन में 1749 से जनसंख्या के आंकड़े रखे जा रहे हैं. और 267 साल में पहली बार ऐसा हुआ है कि पुरुषों की संख्या महिलाओं से ज्यादा हो गई है. समस्या यह है कि स्वीडन को समझ भी नहीं आ रहा कि अब करें क्या. पश्चिम में अक्सर ही महिलाओं की अधिकता रही है, लगभग हर देश में. इसलिए इसकी वजह भी समझ नहीं आ रही है. जीवन काल में आए बदलाव इसकी वजह हो सकते हैं. ऐसा भी हो सकता है कि प्रवासियों के आने से जनसंख्या में बदलाव हो रहा हो.
ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी में जननांकि के विशेषज्ञ और यूरोपीयन असोसिएशन फॉर पॉप्युलेशन स्टडीज के अध्यक्ष फ्रांचेस्को बिल्लारी कहते हैं, ''यूरोप के लिए यह अनूठा है. हम शोधकर्ताओं को इसका पता नहीं चल पाया.''
स्वीडन में बदलाव नजर आने लगा पिछले साल मार्च में जब जनगणना में पता चला पुरुषों की संख्या महिलाओं से 277 ज्यादा है. तब से अब तक यह अंतर 12 हजार से ज्यादा हो चुका है. एक करोड़ की आबादी में यह अंतर कुछ खास नहीं है लेकिन ऐसा मानना भी गलत नहीं होगा कि भविष्य में स्वीडन में पुरुषों की तादाद महिलाओं से कहीं ज्यादा होगी. राष्ट्रीय स्टैटिस्टिक्स एजेंसी में जनसंख्या विशेषज्ञ टोमास जोहानसन कहते हैं कि ऐसा हो सकता है कि कुछ सालों में पुरुष बहुत ज्यादा हो जाएं.
'मिनी' स्कर्ट का 5 दशक लंबा है इतिहास
महिलाओं का यह छोटा सा लिबास केवल फैशन ही नहीं, आजादी और फेमिनिज्म का भी प्रतीक रहा है. कई परंपरावादी मिनी स्कर्ट को अभद्र और अश्लील भी बताते हैं. जो भी हो, बीसवीं सदी की संस्कृति में इस अंदाज का नाम भी दर्ज हो चुका है.
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घूरती नजरें
पश्चिमी समाज में तो इसका काफी प्रचलन है लेकिन भारत समेत दक्षिण एशिया के कई देशों में किसी लड़की का मिनी स्कर्ट पहने दिखना इतना आम नहीं. अब भी ऐसी स्कर्ट पहने किसी लड़की को लोग घूरने से बाज नहीं आते.
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मरियम क्वांट
भले ही आज भी मिनी स्कर्ट पहनने को आधुनिकता का प्रतीक माना जाता हो लेकिन सच तो यह है कि इसका चलन 50 साल पहले ही शुरू हो गया था. लंदन की डिजाइनर क्वांट (दाएं) ने 1964 में ही अपनी मॉडलों पर मिनी स्कर्ट के कई डिजाइन पेश किए. माना यही जाता है कि क्वांट ने अपनी पसंदीदा छोटी कार 'ऑस्टिन मिनी' के नाम पर इसे मिनी स्कर्ट कहा.
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'ट्विगी'
1960 के दशक में पतले हाथ, पैरों वाली लंदन की इस मशहूर मॉडल लेस्ली लॉसन को 'ट्विगी' उपनाम से ज्यादा जाना जाता था. तस्वीर में मिनीड्रेस में दिख रही ट्विगी ने बाद में एक अभिनेत्री और गायिका के रूप में भी पहचान बनाई.
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ऊंची कला से आई छोटी ड्रेस
मिनी स्कर्ट में स्ट्रीट फैशन, साठ के दशक में लंदन में लड़कियों ने छोटे स्कर्ट पहनना शुरू किया. कुछ ही सालों में ये स्ट्रीट फैशन हाई फैशन बन गया.
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बड़े व्यक्तित्व वाले स्कर्टप्रेमी
60 और 70 के दशक में अमेरिका की मशहूर फेमिनिस्ट, पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता ग्लोरिया श्टाइनेम ने महिलाओं के अधिकारों के लिए काफी संघर्ष किया. वे मिनी स्कर्ट पहन उसे सम्मानजनक ड्रेस का दर्जा दिलाने वाली कुछ मशहूर लोगों में शामिल हैं.
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'शकीरा, शकीरा'
कोलंबिया की इस गायिका के प्रशंसक दुनिया भर में हैं. आज भी जब वह मिनी स्कर्ट पहन स्टेज पर उतरती हैं तो 50 साल पुराना मिनी स्कर्ट का फैशन नए आयाम लेता है.
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वैसे, ऐसा नहीं है कि लड़कियों की जन्मदर ज्यादा है. कुदरती तौर पर यूरोप में हर 105 लड़कों पर 100 लड़कियां पैदा होती हैं. फिर भी इस महाद्वीप में महिलाओं की संख्या ज्यादा रही है क्योंकि वे ज्यादा जीती हैं. राष्ट्रीय और यूरोपीय संघ की जनसंख्या पर की गई असोशिएटेड प्रेस की स्टडी कहती है कि आने वाले कई दशकों तक यूरोप में महिलाओं की संख्या पुरुषों से ज्यादा रहेगी. लेकिन लैंगिक अनुपात बदल रहा है. यूरोप में धीरे-धीरे और उत्तरी और मध्य यूरोपीय देशों में तेजी से.
नॉर्वे में 2011 में ऐसा बदलाव आया था जब पुरुष ज्यादा हो गए थे. यानी स्वीडन से चार साल पहले ही. डेनमार्क और स्विट्जरलैंड में भी लैंगिक अनुपात 100 पर पहुंच रहा है यानी पुरुष और महिलाएं बराबर हो रही हैं. जर्मनी में, जहां विश्व युद्धों के बाद पुरुषों की भारी कमी हो गई थी, पुरुषों की आबादी में बढोतरी दिख रही है. 1960 में हर 100 महिलाओं पर 87 पुरुष थे जो बीते साल बढ़कर 97 हो गए. ब्रिटेन में इसी दौरान पुरुष 93 से बढ़कर 97 हो गए. ब्रिटिश विशेषज्ञ तो कह चुके हैं कि 2050 तक पुरुष ज्यादा हो जाएंगे.
विशेषज्ञ अभी नहीं समझ पाए हैं कि समाज में ऐसा क्या हो रहा है जिससे मर्द बढ़ रहे हैं. विएना इंस्टिट्यूट ऑफ डेमोग्रैफी के टोमास सोबोत्का ने एक सिद्धांत दिया है कि पुरुषों के बढ़ने से महिलाओं के पास विकल्प बढ़ेंगे और उनकी ताकत भी बढ़ेगी लेकिन कुंठित पुरुषों के हाथों उन्हें शोषण भी झेलना पड़ सकता है.
वीके/आईबी (एपी)
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बिना खतने के औरत कहलाने का हक
एफजीएम यानि फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन या फिर महिलाओं के जननांगों की विकृति की परंपरा, आज भी अफ्रीका के कई देशों में है. केन्या में मासाई समुदाय की लड़कियां इसे खत्म कर रही हैं.
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अब तुम एक महिला हो!
मासाई समुदाय में तीन दिन तक चलने वाली रस्म के बाद लड़की को महिला का दर्जा मिलता है. इस रस्म के दौरान लड़कियों के जननांगों को काटने की परंपरा रही है. आज भी यहां तीन दिन तक त्योहार मनता है, नाच गाना होता है, लेकिन खतना नहीं.
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जागरूकता से फायदा
अब इस त्योहार के दौरान लड़कियों को उनके शरीर के बारे में जानकारी दी जाती है. सदियों से इस समुदाय की महिलाएं खतने के दर्दनाक तजुर्बे से गुजरती रही हैं.
तस्वीर: Anja Ligtenberg
अपने शरीर को जानो
लड़कियों को बताया जाता है कि एक महिला का शरीर, उसके जननांग कैसे दिखते हैं, कैसे काम करते हैं और उनकी देखभाल कैसे की जाती है. कई गैर सरकारी संगठन इसमें मदद करते हैं.
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लड़कियों की शाम
ना केवल उन्हें पुरानी दकियानूसी परंपरा से छुटकारा मिल रहा है, बल्कि उन्हें आत्मनिर्भर बनाने पर भी जोर है. शाम को लड़कियां एक दूसरे के साथ मिल कर गीत गाती हैं और रात भर मोमबत्तियां जला कर नाचती हैं.
तस्वीर: Anja Ligtenberg
पुरुषों की भूमिका
रस्म शुरू होने से पहले मासाई समुदाय के पुरुष इकट्ठा होते हैं. इन्हीं में से कोई आगे चल कर समुदाय का मुखिया बनेगा. पुरानी परंपरा को खत्म करने के लिए पुरुषों का साथ बहुत जरूरी है.
तस्वीर: Amref Health Africa Italy
आजादी का एहसास
नाइस लेंगेटे इस समुदाय की पहली महिला हैं, जिनका खतना नहीं किया गया. रस्म के दौरान उन्होंने एक वर्कशॉप में हिस्सा लिया, जहां उन्हें अपने शरीर के बारे में बहुत कुछ जानने को मिला. आज वे खुद लोगों को जागरूक करती हैं, "और कमाल की बात है कि वे मेरी बात सुनते भी हैं. मैं उन्हें कंडोम के बारे में बताती हूं, एचआईवी के बारे में भी."
तस्वीर: Amref Health Africa
हर रंग का एक मतलब
रस्म के लिए लड़कियां रंग बिरंगे कपड़े और गले में हार पहन कर तैयार होती हैं. मासाई समुदाय में हर रंग का अलग मतलब होता है. कोई रंग बहादुरी का प्रतीक है, तो कोई उर्वरता का. अब तक 7,000 लड़कियां इस नई तरह की परंपरा का लाभ उठा चुकी हैं.
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बुरी नजर से बचो
कई छोटी छोटी रस्में पूरी की जाती हैं. कई परिवारों में महिलाएं सर मुंडवाती हैं, तो अधिकतर में लड़कियों के चेहरों को रंगा जाता है. ऐसा उन्हें बुरी नजर से बचाने के लिए किया जाता है.
तस्वीर: Anja Ligtenberg
आशीर्वाद
आखिरी दिन कुछ ऐसा होता है. समुदाय के सदस्य हाथ में छड़ियां ले कर खड़े होते हैं और लड़कियां एक कतार बना कर उनके नीचे से गुजरती हैं. इस दौरान गीत भी गए जाते हैं और भाषण भी दिए जाते हैं. अंत में लड़कियों को सर्टिफिकेट भी मिलते हैं.