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सार्वजनिक जगहों में अब भी कम महिलाएं क्यों दिखती हैं?

२९ अक्टूबर २०२५

ज्यादातर जगहों पर अब भी महिलाएं पब्लिक स्पेस में असुरक्षित महसूस करती हैं. सड़क हो, या पार्क, या बाजार, उन्हें कई चुनौतियों से जूझना पड़ता है. अपनी मौजूदगी दर्ज करवाने के लिए वे कई संभावित खतरों का सामना करती हैं.

गुवाहाटी में रस्साकशी
पब्लिक स्पेस में आज जितनी महिलाएं दिखती हैं उसका अधिकार उन्हें अचानक नहीं मिला. इसके लिए उन्होंने एक लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी जो आज भी जारी है. तस्वीर: Anupam Nath/AP/picture alliance

सार्वजनिक जगहों में महिलाओं के इकट्ठा होने का इतिहास बहुत पुराना नहीं है. पश्चिमी देशों में 19वीं शताब्दी के आस-पास 'टी रूम्स' महिलाओं का सेफ स्पेस बने. यहां से उन्होंने मतदान का अधिकार हासिल करने के के आंदोलन की शुरुआत की. वहीं, भारत में स्वतंत्रता आंदोलन और अन्य सामाजिक अभियानों ने महिलाओं के घर से बाहर निकलने की राह आसान बनाई.

औद्योगिक क्रांति और विश्व युद्ध जैसी व्यापक घटनाओं ने इस तस्वीर को पूरी तरह बदलकर रख दिया. घर की सीमा से निकलकर सार्वजनिक जगहों में दाखिल होने और नजर आने की महिलाओं की कोशिशों को इन वैश्विक घटनाओं ने बहुत रफ्तार दी. अब महिलाएं सिर्फ आंदोलनों के लिए नहीं, बल्कि काम के लिए बाहर निकलने लगी थीं.

ब्रिटेन में वोट के अधिकार का आंदोलन महिलाओं के बाहर निकलने की एक बड़ी वजह बनकर उभरा.तस्वीर: akg-images/picture alliance

विश्व युद्ध और औद्योगिक आंदोलन ने बदली तस्वीर

यूरोप जहां बड़ी संख्या में पुरुष युद्ध लड़ रहे थे. उनकी अनुपस्थिति से पैदा हुई खाली जगह भरने के लिए महिलाओं को बाहर निकलना पड़ा, क्योंकि देश को कामगारों की जरूरत थी. बढ़ी हुई जरूरतों के मुताबिक कारखानों में उत्पादन जारी रहे, इसके लिए काम करने वाले लोग चाहिए थे. पूंजीवादी व्यवस्था को एहसास हुआ कि महिलाओं का श्रम पुरुषों के मुकाबले सस्ता है.

सड़कों, कारखानों, दुकानों पर महिलाओं का दिखना एक असामान्य बात नहीं रह गई. महिलाओं को एहसास हुआ कि उनकी आर्थिक और सामाजिक हैसियत को बदलने के लिए पब्लिक स्पेस में उनकी मौजूदगी बेहद जरूरी है. हालांकि, यहां ध्यान देना जरूरी है कि महिलाएं इन बदलावों के लिए तैयार थीं, लेकिन सार्वजनिक जगहें उनके अनुरूप नहीं ढल पाई थीं. पब्लिक स्पेस में महिलाओं की समान हिस्सेदारी और उसे उनकी सहूलियत के हिसाब से ढालने का संघर्ष अब तक जारी है.

खासकर द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उसके बाद बड़ी संख्या में महिलाएं काम के लिए बाहर निकलने लगी थीं.तस्वीर: AFP/Getty Images

जेंडर से जुड़ा है पब्लिक स्पेस में आपकी मौजूदगी का अनुभव

भारत के इंदौर शहर में ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम की दो खिलाड़ियों के उत्पीड़न की घटना सामने आई. बीजेपी नेता और मध्य प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने कहा कि खिलाड़ियों से भी अपनी सुरक्षा में चूक हुई. सोशल मीडिया पर कई लोगों ने सलाह दी कि खिलाड़ियों को इस तरह बाहर निकलने से पहले अपनी सुरक्षा का ध्यान रखना चाहिए था.

महिला अधिकार समर्थक रेखांकित करते हैं कि इन मशविरों की आड़ में यह भाव भी है कि कहीं-ना-कहीं लोगों ने यह भी स्वीकार किया कि पब्लिक स्पेस में महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं. चाहे वह कोई आम महिला हो, या कोई मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी.

इसी दौरान सोशल मीडिया पर ऑस्ट्रेलिया गए भारतीय पुरुष क्रिकेट टीम के खिलाड़ियों का एक वीडियो वायरल हुआ. इसमें तीन क्रिकेटर्स एक कैब में बैठे. कैब ड्राइवर काफी हैरान नजर आया कि उसकी टैक्सी में इतने जाने-माने खिलाड़ी बैठे हैं. एक 'क्यूट मोमेंट' बताते हुए सोशल मीडिया पर इस वीडियो को काफी शेयर किया गया. एक ही खेल खेलने वाले खिलाड़ी, दो अलग-अलग देश, लेकिन पब्लिक स्पेस में उनके अनुभवों में एक बहुत बड़ा फर्क नजर आया. इस अंतर के पीछे सिर्फ एक बड़ी वजह है, उनका जेंडर.

भारत में आज पब्लिक स्पेस में महिलाएं कई संभावित चुनौतियों का सामना करते हुए अपनी मौजूदगी दर्ज करवा रही हैं.तस्वीर: Himanshu Sharma/AFP/Getty Images

पब्लिक स्पेस को लेकर एक आम धारणा है कि यहां महिलाओं की कोई जगह नहीं है. अगर महिलाएं पब्लिक स्पेस में दिख रही हैं, तो वे कई संभावित जोखिमों के साथ अपनी मौजूदगी दर्ज करवा रही हैं. जाति, वर्ग से जुड़े विशेषाधिकार के आधार पर ये जोखिम कम ज्यादा जरूर हो सकते हैं.

हालांकि, तमाम विशेषाधिकारों के बावजूद जेंडर के आधार पर कोई-ना-कोई जोखिम जरूर जुड़ा होता है. मसलन ऑस्ट्रेलियाई महिला क्रिकेटरों का बिना किसी को बताए, बिना किसी सुरक्षा के बाहर निकल जाना या किसी कामगार महिला का देर रात अकेले दफ्तर से लौटना.

कैलाश विजयवर्गीय का बयान भी इस आम मानसिकता को दिखाता है कि अगर वे खिलाड़ी बाहर निकलीं, तो उन्हें खुद ही अपनी सुरक्षा का इंतजाम करके जाना चाहिए था. ये उदाहरण घूम-फिरकर इसी बिंदु पर ले आते हैं कि पब्लिक स्पेस महिलाओं के लिए कभी बनाए ही नहीं गए.

क्यों पब्लिक स्पेस में सुरक्षित महसूस नहीं करती महिलाएं

आम सोच के मुताबिक दिन ढलने के बाद एक तय समय के आगे, किसी सुनसान जगह या जहां सुरक्षित महसूस ना हो या जहां पुरुषों की संख्या अधिक हो, वहां लड़कियों और महिलाओं को नहीं जाना चाहिए. लैंगिक गैरबराबरी वाले समाज में अधिकांश लड़कियां और महिलाएं इन्हीं नसीहतों के साथ बड़ी होती हैं. हालांकि, यह बात दीगर है कि संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक महिलाओं और लड़कियों के लिए सबसे असुरक्षित जगह उनका घर है ना कि सार्वजनिक जगहें.

विशेषज्ञों के अनुसार, पब्लिक स्पेस में महिलाओं के सुरक्षित ना महसूस करने के पीछे पहली वजह यह सोच है कि ऐसी जगहों से उनका कोई वास्ता होना ही नहीं चाहिए. जेंडर के आधार पर ना सिर्फ निजी, बल्कि सार्वजनिक स्थानों पर भी महिलाओं के भीतर असुरक्षा की भावना पैदा की जाती है, ताकि उनके अंदर कमजोर होने का एहसास बना रहे.

पब्लिक स्पेस में महिलाओं का होने के मायने सिर्फ उनके घर से बाहर निकलने तक सीमित नहीं है बल्कि यह उनकी आर्थिक और सामाजिक प्रगति के लिए बेहद जरूरी है.तस्वीर: ZDF

इसके लिए अलग-अलग तरह की हिंसा का सहारा लिया जाता है. असहज करने वाले, या हिंसक अनुभव प्रभावित महिला के भीतर अगले मौकों में भी असुरक्षा पैदा करते हैं. मसलन अगर किसी के साथ बस यात्रा के दौरान उत्पीड़न होता है, तो अगली बार बस में चढ़ते वक्त उसके मन में कई आशंकाएं पैदा होती हैं.

पब्लिक स्पेस में पुरुषों के व्यवहार पर की गई स्टडीज बताती हैं कि वे महिलाओं के साथ सड़कों या दूसरी जगह पर ऐसा व्यवहार इस सोच के अधीन ही करते हैं कि महिलाओं की जगह तो घर में ही है. यहां तक कि ऑनलाइन स्पेस में भी मुखर महिलाओं के खिलाफ सबसे ज्यादा इस्तेमाल की गई लाइनों में से एक है, "गो बैक टू द किचन," यानी रसोई में वापस चली जाओ.

महिलाओं के लिए बने ही नहीं पब्लिक स्पेस

एक और बड़ी वजह यह कि सार्वजनकि जगहों को महिलाओं के लिए डिजाइन नहीं किया गया. अगर इसकी कोशिश की भी जाती है, तो सबसे पहला विरोध पुरुषों की तरफ से ही आता है. जैसे, बस में महिलाओं के लिए कुछ सीटें या मेट्रों में एक डिब्बा आरक्षित करने जैसे कदमों की आलोचना की जाती है.

रिसर्च और सर्वे बताते हैं कि पब्लिक स्पेस को महिलाओं की सुरक्षा या सहूलियत को ध्यान में रखकर नहीं बनाया जाता. साथ ही, इन्हें बनाने वालों में महिलाओं की संख्या भी बहुत कम है. जैसे, सड़कों पर पर्याप्त रोशनी का होना कैसे महिलाओं को सुरक्षित महसूस करवाता है यह बहुत हद तक अनुभवों के आधार पर समझा जा सकता है.

विशेषज्ञों के अनुसार, पब्लिक ट्रांसपोर्ट में महिलाओं के लिए डिब्बे आरक्षित करना जरूरी हैं, क्योंकि पुरुषों के मुकाबले कहीं ज्यादा महिलाएं आवाजाही के लिए सार्वजनिक यातायात पर निर्भर होती हैं. वर्ल्ड बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में करीब 84 फीसदी महिलाएं पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करती हैं. विशेषज्ञ रेखांकित करते हैं कि पब्लिक स्पेस को डिजाइन करते और बनाते वक्त ऐसे बिंदुओं को शामिल किया जाना बेहद जरूरी है.

पब्लिक ट्रांसपोर्ट में महिलाओं का अनुभव इस बात की तस्दीक करता है कि कैसे सार्वजनिक जगह आज भी महिलाओं के अनुभवों के आधार पर नहीं बनाए जाते.तस्वीर: Reuters

आंकड़े क्या कहते हैं

संस्था 'सेफ्टी पिंस' की 2024 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में करीब 83 फीसदी महिलाएं पब्लिक स्पेस में असुरक्षित महसूस करती हैं. वहीं, वर्ल्ड वाइड मार्केट रिसर्च नाम की संस्था के एक ग्लोबल सर्वे के मुताबिक, दुनियाभर में करीब 46 फीसदी महिलाएं रात में अकेले कहीं जाने से डरती हैं. यहां तक कि अपने खुद के मोहल्ले में भी वे सुरक्षित नहीं महसूस करतीं.

दिक्कत केवल विकासशील या कम आयवर्ग वाले देशों तक सीमित नहीं है. उदाहरण के लिए, जर्मनी में भी सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं को सुरक्षित माहौल मुहैया कराना संभव नहीं हो पाया है. हाल ही में फंक मीडिया ग्रुप के लिए 'कवे रिसर्च इंस्टिट्यूट' ने एक सर्वे करवाया. इस ऑनलाइन सर्वे में 18 साल से अधिक उम्र के 5,000 लोगों को शामिल किया गया. सर्वे में शामिल 55 फीसदी महिलाओं ने कहा कि उन्हें सड़कों, पब्लिक ट्रांसपोर्ट और पार्क जैसी जगहों पर डर लगता है. सबसे ज्यादा तो महिलाएं क्लब और ट्रेन स्टेशनों पर खुद को असुरक्षित पाती हैं.

सर्वे के मुताबिक, महज 14 फीसदी महिलाओं ने इन जगहों पर सुरक्षित महसूस होने की बात कही. इस सर्वे में ना सिर्फ महिलाएं, बल्कि पुरुषों के भी अनुभव शामिल किए गए. करीब 49 फीसदी प्रतिभागियों ने कहा कि वे इन सार्वजनिक स्थानों पर बिल्कुल सुरक्षित महसूस नहीं करते.

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कैसा हो जब पब्लिक स्पेस महिलाओं के लिए भी सुरक्षित और सहज बन जाएं

सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं की मौजूदगी और बराबर की हिस्सेदारी को लेकर अब बहसें तेज हुई हैं. अब नारावादी शहरों और सार्वजनिक जगहों की बात की जाने लगी है. हालांकि, बात जब पब्लिक स्पेस में महिलाओं की सुरक्षा की आती है, तो पहला सुझाव यह आता है कि उन्हें इन जगहों पर पुरुषों से अलग कैसे रखा जाए या उनके लिए कैसे जगहें बांट दी जाएं.

विशेषज्ञ ध्यान दिलाते हैं कि यह सोच जेंडर आधारित बंटवारे को और मजबूत करती है. नारीवादी डिजाइनर्स के मुताबिक, पब्लिक स्पेस को इस तरह आकार देने की जरूरत है जिसका उद्देश्य यह बताना हो कि ऐसी जगहें महिलाओं की भी उतनी ही हैं, जितनी पुरुषों की. साथ ही, किसी भी सार्वजनिक जगह पर किसी भी वक्त महिलाओं की मौजूदगी अचरज का भाव पैदा ना करे.

पब्लिक स्पेस को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाने में डिजाइनिंग दूसरा पड़ाव है. पहला पड़ाव इस सोच को बदलना है कि सार्वजनिक जगहों तक महिलाओं की पहुंच एक तय सीमा के अंदर ही होनी चाहिए. यह सिर्फ उनकी मौजदूगी तक सीमित नहीं है, बल्कि इन जगहों का सुरक्षित होना महिलाओं की आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा के लिए भी बेहद जरूरी है.

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