क्या प्रदूषण कम कर रहा है भारत में धूप के घंटे?
१९ अक्टूबर २०२५
भारत के कई इलाकों में सूरज की रोशनी कम हो रही है. एक नई स्टडी में इसका खुलासा हुआ है. पश्चिमी तट, हिमालयी क्षेत्र, दक्कन पठार और पूर्वी तट के इलाके में धूप के घंटे कम हो रहे हैं. इस अध्ययन को बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी, पुणे के भारतीय उष्णदेशीय मौसम विज्ञान संस्थान और भारत मौसम विज्ञान विभाग के वैज्ञानिकों ने मिलकर किया है. इसके लिए साल 1988 से 2018 के बीच भारत के नौ भौगोलिक क्षेत्रों और 20 मौसम विज्ञान स्टेशन से डेटा लिया गया है.
आंकड़ों से पता चलता है कि एयरोसोल प्रदूषण, बादल, नमी और मौसम में परिवर्तन के कारण इस तरह का बदलाव देखा गया है. यह भारत में प्रदूषण की बढ़ रही समस्या को दर्शाता है. सबसे प्रदूषित देशों की सूची में भारत का पांचवां स्थान है. दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में से 13 भारत में हैं.
मेघालय का बर्नीहाट दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर बनकर उभरा है. जबकि दिल्ली लगातार छठे साल दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी बनी हुई है. इसके कई कारण हैं. वैज्ञानिकों का का मानना है कि वातावरण में एयरोसोल की मात्रा बढ़ना इसकी मुख्य वजह है. एयरोसोल हवा में मौजूद धूल, कालिख, और राख जैसे कणों को कहा जाता है जो हवा में तैरते रहते हैं. निर्माणकार्य स्थलों से उड़ने वाली धूल, वाहन, फैक्ट्री और जैव ईंधन से निकलने वाले धुएं के कारण एयरोसोल बढ़ते हैं. पराली जलाने से भी ये समस्या बढ़ती हैं.
देश में कहां-कहां कम हो रही है धूप
पृथ्वी पर पड़ने वाली सूरज की रोशनी को ‘सनशाइन ऑवर' (एसएसएच) कहा जाता है. यह वह समय होता है जब सूरज की सीधी रोशनी पृथ्वी पर पहुंचती है. यह हर महीने बदलती है. मतलब हर महीने सूरज की रोशनी की मात्रा अलग होती है. इसमें जून और जुलाई में गिरावट आती है. अध्ययन में सामने आया कि अक्टूबर से मई के महीनों में एसएसएच ज्यादा होती है. ऐसा इसलिए क्योंकि इन महीनों में बादल कम घिरते हैं और बारिश नहीं होती.
इस अध्ययन में पश्चिमी तट के तीन शहरों तिरुवनंतपुरम, गोवा और मुंबई को ध्यान में केंद्र में रखा गया है. पूरे पश्चिमी तट को सालाना औसतन 2300 घंटे धूप मिलती थी. साल 2000 के बाद इस क्षेत्र में धूप के घंटों में लगातार गिरावट दर्ज की गई. यहां हर साल औसतन 8.62 घंटे धूप कम हो रही है. इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा धूप सर्दियों में होती है. जबकि मानसून के महीनों में धूप कम होने लगती है.
उत्तरी क्षेत्र में कोलकाता, नई दिल्ली और अमृतसर के आंकड़ों का अध्ययन किया गया. इन शहरों को हर महीने औसतन 187 घंटे धूप मिलती रही है. पर यह धूप अब करीब 13 घंटे प्रति वर्ष की तेजी से घट रही है. सबसे कम धूप अक्टूबर से दिसंबर में देखी गई. वहीं, सबसे ज्यादा धूप प्री-मानसून के मौसम अप्रैल से मई में पड़ती है.
भारत के मध्य आंतरिक क्षेत्र बैंगलोर, नागपुर और हैदराबाद में स्थिती थोड़ी अलग है. साल 1988 से 2007 के बीच धूप बढ़ रही थी. लेकिन साल 2008 के बाद गिरावट शुरू हो गई. प्रीमानसून और मानसून में सूरज की रोशनी कम थी. जबकि सर्दियों में मौसम की विशेष स्थिति के कारण धूप थोड़ी बढ़ी. भारत के मध्य क्षेत्र में सालाना लगभग 2449 घंटे धूप मिल रही थी. लेकिन साल 1988 से 2018 के बीच इसमें हर साल 4.71 घंटे की गिरावट आ रही है.
हालांकि, भारत के उत्तर पूर्वी क्षेत्र में ये ट्रेंड कम देखने को मिला. गुवाहाटी और डिब्रूगढ़ से मिले आंकड़ों के अनुसार कुल मिलाकर साल 1998 से 2018 के बीच धूप के घंटों में मामूली गिरावट देखी गई. वहीं, हिमालय के क्षेत्र में पिछले 20 वर्षों में धूप के घंटों में लगातार गिरावट दर्ज हुई है. गिरावट की ये दर लगभग 9.5 घंटे प्रति साल है.
अरब सागर में स्थित मिनिकॉय आईलैंड और बंगाल की खाड़ी में स्थित पोर्ट ब्लेयर पर धूप के घंटों में पिछले 30 सालों में कमी आई है. यहां गिरावट की दर लगभग 5.7 से 6.1 घंटे प्रति साल है.
क्यों कम हो रही है धूप?
पर्यावरण में लगातार आ रहे बदलाव और परिवर्तन को देखते हुए इस अध्ययन का महत्त्व बढ़ जाता है. इस अध्ययन के लेखक मनोज कुमार श्रीवास्तव ने डीडब्ल्यू से बात की. मनोज बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के भूभौतिकी विभाग में प्रोफेसर हैं. वह बताते हैं कि धूप की कमी का मुख्य कारण वायुमंडल में कणों में बढ़ोतरी है. वातावरण में एयरोसोल की मात्रा बढ़ने से बदल घने और चमकीले हो जाते हैं. वे लंबे समय तक आसमान में रहते हैं. इसकी वजह से सूरज की रोशनी ब्लॉक हो जाती है और पर्याप्त धूप जमीन पर नहीं पड़ती. इसे अल्ब्रेक्ट प्रभाव कहते हैं.
प्रोफेसर मनोज कुमार श्रीवास्तव कहते हैं, "वातावरण में एयरोसोल सूरज की रोशनी को रोकते या बिखेरते हैं. जिससे जमीन तक कम रोशनी पहुंच पाती है. इसे सोलर डिमिंग भी कहा जाता है. फैक्ट्रियों से निकलने वाला धुआं, गाड़ियों का प्रदूषण, खेतों में पराली जलाना, लकड़ी या कोयले से खाना पकाना, ये सब हवा में एयरोसोल की मात्रा को बढ़ा रहे हैं."
भारत को कैसे हो रहा धूप कम होने से नुकसान?
भारत की धरती पर कम धूप पड़ने से कई समस्याएं पैदा होने वाली हैं. वे क्षेत्र जो सीधा सूरज की रोशनी पर निर्भर हैं, उन पर इसका सबसे ज्यादा असर होगा. अगर धूप के घंटे कम हो जाएंगे, तो सोलर पैनल्स कम बिजली पैदा करेंगे. बिजली उत्पादन पर 10 से 20 फीसदी असर पड़ेगा. इससे भारत की सोलर एनर्जी मिशन में अड़चने पैदा होंगी.
इसके अलावा कृषि क्षेत्र सबसे अधिक प्रभावित होगा. फसलों को फोटोसिंथेसिस के लिए पर्याप्त धूप नहीं मिलेगी. खाद्य सुरक्षा पर असर पड़ेगा. पौधों और पेड़ों की बढ़ने की गति धीमी हो जाएगी. खासकर धान, गेहूं और कपास जैसी फसलें प्रभावित होंगी. अधिक धुंध और प्रदूषण से सांस संबंधी बीमारियां होने का भी खतरा है. कम धूप के कारण विटामिन-डी की कमी हो सकती जिसका असर इम्यून सिस्टम पर पड़ता है.
भारत से पहले चीन रहा है इसका भुक्तभोगी
ऐसा ही कुछ पडोसी देश चीन में भी देखने को मिला था. साल 1980 और 1990 के दशक में चीन ने उद्योगीकरण के दरवाजे खोल दिए थे. कई कारखाने, बिजली संयंत्र और उद्योग स्थापित किए गए. जिसके चलते चीन की हवा में भारी मात्रा में एरोसोल्स फैल गए. सूरज की रोशनी बहुत मुश्किल से उसकी जमीन पर पहुंच पाती थी. सैटेलाइट डेटा से पता चला कि सोलर रेडिएशन में 10 से 20 फीसदी तक कमी आई है. बीजिंग में 1960 के दशक में सालाना 2600 घंटे तक धूप पड़ती थी. यह साल 2000 तक घटकर लगभग 2200 घंटे रह गई.
चीन ने स्थिति की गंभीरता को समझा. साल 2005 के बाद चीन ने प्रदूषण नियंत्रण में काफी सुधार किया. उसने अपनी नीतियों और तकनीक में बदलाव किए. वायु प्रदूषण रोकथाम और नियंत्रण कार्य योजना 2013 को लागू किया गया. कोयले पर आधारित बिजलीघरों को बंद या अपग्रेड किया.
बीजिंग और शंघाई जैसे शहरों में उद्योगों को शहर से बाहर शिफ्ट किया गया. नियम उलंघन पर भारी जुर्माना तय किया गया. साथ ही डेटा आधारित ऊर्जा प्लानिंग पर जोर देना शुरू किया गया. इसी तरह औद्योगिकीकरण और शहरीकरण के चलते ब्रिटेन, जापान, अमेरिका और जर्मनी में धूप के घंटों में गिरावट आई थी. लेकिन हाल के वर्षों में सुधार भी हुआ है.
अब भारत में सूरज की रोशनी और धूप में यह गिरावट एक गंभीर पर्यावरणीय चुनौती का संकेत है. इस से ऊर्जा, कृषि, स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. साथ ही चरम मौसम परिस्थितियों की भविष्यवाणी करना मुश्किल हो जाता है. इसलिए भारत को भी एक बेहतर नीति की दिशा में सोचने की जरूरत है.