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राजनीतिसंयुक्त राज्य अमेरिका

तेल, अमेरिका या रूस: सऊदी अरब वास्तव में किसके साथ है?

कैर्स्टन क्निप
१४ अक्टूबर २०२२

तेल निर्यातक देशों के संगठन ने तेल उत्पादन में कटौती करने का फैसला किया है. इसके बाद अमेरिका और सऊदी अरब के बीच संबंध बिगड़ गये हैं. विशेषज्ञों के मुताबिक सऊदी अरब रूस के समर्थन में है और अमेरिका को नजरअंदाज कर रहा है.

सऊदी अरब के लिए जरूरी क्या है
सऊदी अरब पर रूस की मदद करने के आरोप लग रहे हैंतस्वीर: Yuri Kadobnov/AFP/AP/picture alliance

ओपेक प्लस समूह के फैसले पर अमेरिका ने कड़ी प्रतिक्रिया जाहिर की है. व्हाइट हाउस ने अपने बयान में कहा कि पेट्रोलियम निर्यातक देशों के समूह ओपेक प्लस ने 5 अक्टूबर को जो निर्णय लिया वह ‘निराशाजनक' था.

ओपेक प्लस ने निर्णय लिया है कि उसके सदस्य देश नवंबर में तेल उत्पादन में 2 मिलियन बैरल की कटौती करेंगे. यह कुल वैश्विक उत्पादन का 2 फीसदी है.दरअसल, ओपेक में 13 देश हैं और प्लस समूह में 10 देश. इन दोनों को मिलाकर ओपेक प्लस समूह बनता है. प्लस देशों का नेतृत्व रूस करता है. वहीं, ओपेक समूह में सऊदी अरब की भूमिका सबसे ज्यादा मजबूत है.

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने इस निर्णय पर कहा कि ओपेक प्लस के फैसले से पता चलता है कि सऊदी अरब जैसे हमारे पुराने सहयोगियों को ‘अमेरिका से समस्या' है.

अमेरिकी न्यूज चैनल सीएनएन को व्हाइट हाउस और अमेरिकी ट्रेजरी के बीच हुई बातचीत के बारे में जानकारी मिली है. इसमें ओपेक प्लस के फैसले को ‘पूरी तरह से आपदा' और ‘शत्रुतापूर्ण कार्य' बताया गया है. व्हाइट हाउस की प्रेस सचिव कैरीन जां पेयर ने मीडिया से कहा, "यह स्पष्ट है कि ओपेक प्लस रूस के साथ गठबंधन कर रहा है.” वहीं, न्यूयॉर्क के सीनेटर और सीनेट में बहुमत के नेता चक शूमर का कहना है कि ओपेक प्लस ने जो किया वह बहुत ही ‘निंदनीय काम' है.

राष्ट्रपति बाइडेन के सऊदी अरब दौरे से रिश्तों में बेहतरी की उम्मीद जगी थीतस्वीर: Bandar Algaloud/Courtesy of Saudi Royal Court/Handout/AFP

गुस्सा और कड़ी प्रतिक्रिया

ओपेक प्लस देशों के फैसले पर राष्ट्रपति बाइडेन की प्रतिक्रिया के बाद से अमेरिकी राजनीतिक गलियारों में गुस्सा और बढ़ गया है. बाइडेन ने कहा कि इससे सऊदी अरब के साथ अमेरिका के संबंधों पर ‘गंभीर असर' पड़ेगा.

सऊदी अरब ओपेक प्लस समूह का महत्वपूर्ण सदस्य है. यह खाड़ी देश दुनिया में तेल का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक भी है. इसी साल जुलाई महीने में बाइडेन सऊदी की यात्रा पर भी गए थे और दोनों देशों के बीच रिश्ते को बेहतर बनाने की पहल की थी. ऐसे में ओपेक प्लस समूह का यह फैसला, ‘अमेरिका के साथ विश्वासघात' की तरह प्रतीत होता है.

2018 में पत्रकार जमाल खशोगी की हत्या के बाद दोनों देशों के संबंध बिगड़ गए थे. अमेरिका ने इस हत्या की तीखी निंदा की थी. कहा गया था कि सऊदी अरब में मानवाधिकार की स्थिति काफी खराब है. दोनों देशों के बीच इस मुद्दे पर चले लंबे कूटनीतिक विवाद के बाद, जुलाई में बाइडेन के दौरे से रिश्ता बेहतर होने की उम्मीद जगी थी. हालांकि, यह फिर से बिगड़ता नजर आ रहा है.

सऊदी अरब के महत्वाकांछी आधुनिकीकरण योजना के लिए भारी मात्रा में धन की जरूरत होगीतस्वीर: Amr Nabil/AP Photo/picture alliance

यूक्रेन युद्ध और रूस के साथ राजनीतिक टकराव की वजह से पूरी दुनिया में ऊर्जा की कीमतें आसमान छू रही हैं. अगर सऊदी ने तेल उत्पादन में वृद्धि की होती, तो इन्हें नीचे लाया जा सकता था. तेल की कीमतों का कम होना राष्ट्रपति बाइडेन की डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए भी मायने रखता है, क्योंकि नवंबर में मध्यावधि चुनाव होने वाले हैं. अगले महीने आठ नवंबर को संसद, राज्य और गवर्नर के लिए चुनाव होंगे.

कीमतें बढ़ने का सीधा असर अमेरिकी मतदाताओं पर पड़ेगा. ऐसे में तेल की कीमतों का बढ़ना अमेरिका के लिए राजनीतिक रूप से भी काफी संवेदनशील है. शायद यही वजह है कि तेल उद्योग से जुड़ी एक पत्रिका ने अपने लेख के शीर्षक में पूछा, "क्या ओपेक प्लस ने अमेरिकी मध्यावधि चुनाव के नतीजे तय किए हैं?”

क्या रूस के पक्ष में है सऊदी अरब

अमेरिका इस फैसले को अपने अपमान की तरह देख रहा है. दूसरी ओर इसे सऊदी अरब और खाड़ी के दूसरे देशों का रूस के लिए मौन समर्थन के रूप में भी देखा जा सकता है. यह फैसला रूसी तेल पर लगाए गए उस प्रतिबंध के असर को भी कम कर सकता है जिस पर यूरोपीय संघ ने जून में सहमति बनाई थी.

यूरोपीय संघ के प्रतिबंध का मकसद रूस को आर्थिक तौर पर कमजोर करना था, ताकि वह जल्द से जल्द युद्ध को समाप्त करने पर मजबूर हो जाए. हालांकि, ओपेक प्लस के फैसले से तेल की कीमतें फिर से बढेंगी और इसका सीधा फायदा रूस को भी मिलेगा.

वाशिंगटन के जॉर्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर और मध्य पूर्व के विशेषज्ञ मार्क लिंच ने अपने ब्लॉग पर लिखा "ओपेक प्लस के फैसले पर काफी तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की गई, क्योंकि अमेरिका राजनीतिक रूप से दुनिया को जिस दो खेमे में देखता है उसमें सऊदी अरब उसके विरोधी खेमे में दिखा.”

इस राजनीतिक बंटवारे में एक ओर रूस है, तो दूसरी तरफ यूक्रेन और उसके पश्चिमी समर्थक देश. सऊदी अरब और अन्य पड़ोसी खाड़ी देश रूस के खिलाफ लगाई गई यूरोपीय और अमेरिकी पाबंदियों का समर्थन करने में पहले से ही दिलचस्पी नहीं दिखा रहे थे.

वाशिंगटन स्थित मिडिल ईस्ट इंस्टीट्यूट में रक्षा और सुरक्षा कार्यक्रम के संस्थापक निदेशक बिलाल साब ने डीडब्ल्यू को बताया, "इस फैसले से रूस को तेल की बिक्री से ज्यादा कमाई होगी. साथ ही, यह यूक्रेन के खिलाफ रूसी युद्ध के प्रयासों को कम नहीं होने देगा.”

सऊदी अरब को लगता है कि हूथी विद्रोहियों के हमले के समय अमेरिका ने साथ नहीं दियातस्वीर: Hassan Ammar/AP/dpa/picture alliance

सब पैसे का मामला है

तमाम आरोप-प्रत्यारोप के बीच सऊदी अरब ने कहा कि ओपेक प्लस का फैसला पूरी तरह आर्थिक मामलों से जुड़ा हुआ है. इसका राजनीति से कोई वास्ता नहीं है. सऊदी के विदेश मंत्री अदेल अल-जुबेर ने अमेरिकी ब्रॉडकास्टर फॉक्स न्यूज को बताया, "तेल कोई हथियार नहीं है. यह लड़ाकू विमान या टैंक नहीं है जिससे आप शूट कर सकते हैं. हम तेल को इस्तेमाल की एक वस्तु के रूप में देखते हैं, जिसमें हमारी बड़ी हिस्सेदारी है.”

मिडिल ईस्ट इंस्टीट्यूट के साब का मानना है कि सऊदी अरब अमेरिका को संकेत देना चाहता है कि उसे किसी ने उकसाया नहीं है. वह यह दिखाना चाहता है कि अपने आर्थिक हित से जुड़े फैसले खुद ही लेगा. देश की कई मौजूदा महत्वाकांक्षी योजनाओं को पूरा करने के साथ-साथ राजनीतिक स्थिरता बनाए रखने के लिए, सऊदी तेल से होने वाली आय पर निर्भर है. देश के राष्ट्रीय बजट को तेल की ऊंची कीमतों से मदद मिलती है.

खराब हो रहे रिश्ते

सऊदी अरब और उसके लंबे समय से सहयोगी रहे अमेरिका के बीच संबंध पिछले कुछ समय से वैसे भी अच्छे नहीं रहे हैं. सऊदी ने महसूस किया कि जब यमन के हूथी विद्रोहियों ने उसके तेल ठिकानों पर हमला किया था, तब अमेरिका ने पूरी तरह साथ नहीं दिया. उसे लगा कि अब अमेरिका उसके साथ मजबूती से खड़ा नहीं है.

दूसरी ओर अमेरिका ने जमाल खगोशी की हत्या को लेकर भी सऊदी की तीखी आलोचना की थी. वहीं, यमन पर सऊदी अरब की तरफ से किए गए हमले में नागरिकों को निशाना बनाए जाने को लेकर भी दोनों देशों के बीच संबंधों में कटुता आयी थी.

सऊदी अरब के पुराने दुश्मन ईरान को परमाणु हथियार हासिल करने से कैसे रोका जाए, इस बारे में भी दोनों देशों की राय अलग-अलग है. बाइडेन सरकार को उम्मीद है कि तथाकथित ‘ईरान समझौते' को नए तरीके से लागू करके ईरान को परमाणु हथियार हासिल करने से रोका जा सकता है. अमेरिका इस राजनयिक समाधान के पक्ष में है, लेकिन सऊदी को लगता है कि ऐसा करना पर्याप्त नहीं होगा.

इन तमाम बातों का अर्थ यह है कि दोनों देश आपसी संबंधों को लेकर एक-दूसरे पर पूरी तरह भरोसा नहीं कर सकते हैं. साब का मानना है, "अगर यह फैसला ओपेक प्लस ने लिया है, तो मुझे इस बात पर संदेह है कि दोनों देशों के बीच हाल में हुई बातचीत सफल रही.”

अब आगे क्या होगा?

साब ने डीडब्ल्यू को बताया कि लंबी अवधि में दोनों देशों के बीच सैन्य संबंधों पर इसका गंभीर असर हो सकता है. उन्होंने कहा, "दोनों के बीच सैन्य संबंध अभी भी बने हुए हैं, लेकिन जिस तरह का राजनीतिक और नीतिगत माहौल बन रहा है उस स्थिति में सैन्य संबंधों के बेहतर बने रहने की उम्मीद कम है.”

इस सप्ताह अमेरिका के वरिष्ठ राजनेताओं ने सऊदी को हथियारों की आपूर्ति बंद करने की मांग की है. डेमोक्रेटिक पार्टी के सीनेटर क्रिस मर्फी ने इस हफ्ते वाशिंगटन पोस्ट से बातचीत में कहा, "यमन में सऊदी हमले और उससे जुड़े मानवाधिकार के उल्लंघन के मामलों में हस्तक्षेप यह सुनिश्चित करने के लिए किया गया था कि वे इस अंतरराष्ट्रीय संकट को हल करने के लिए हमें चुनें, लेकिन उन्होंने रूस को चुना.”

साब ने आशंका जताई है कि फिलहाल अमेरिका और सऊदी के संबंध और खराब होंगे. उन्होंने कहा, "मुझे लगता है कि सऊदी ने बाइडेन सरकार को लेकर अपना रूख साफ कर लिया है. उन्हें पता चल गया है कि इस रिश्ते के ठीक होने की कोई संभावना नहीं है, लेकिन अमेरिका के साथ बेहतर संबंध की उम्मीद उन्होंने नहीं छोड़ी है. उन्हें ऐसा लगता है कि देश में डेमोक्रेटिक की जगह किसी अन्य पार्टी, शायद रिपब्लिकन की सरकार बनने पर सऊदी अरब के साथ रिश्ते बेहतर हो सकते हैं.”

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