अंटार्कटिक की चादर की गहराई में जाएंगे नासा के रोबोट
३० अगस्त २०२४
नासा के इंजीनियर ऐसे रोबोट बना रहे हैं जो अंटार्कटिक में बर्फ की चादर की गहराई तक जाकर वहां से डेटा भेजेंगे.
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नासा के अंतरिक्ष यान बनाने में विशेषज्ञ इंजीनियर अब अंटार्कटिक की बर्फ की विशाल चादरों के पिघलने की दर मापने के लिए पानी के भीतर काम करने वाले रोबोटिक जांच यंत्रों का एक बेड़ा डिजाइन कर रहे हैं. इसका उद्देश्य यह जानना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण बर्फ कितनी तेजी से पिघल रही है और इसका समुद्र के जलस्तर पर क्या प्रभाव पड़ेगा.
इन पानी के भीतर चलने वाले वाहनों का एक प्रोटोटाइप लॉस एंजेलिस के पास नासा की जेट प्रोपल्शन लेबोरेटरी (जेपीएल) द्वारा विकसित किया जा रहा है. इसे इसी साल मार्च में अलास्का के उत्तर में स्थित बर्फ से ढके ब्यूफोर्ट सागर के नीचे अमेरिकी नौसेना की प्रयोगशाला में टेस्ट किया गया था.
जेपीएल के रोबोटिक्स इंजीनियर और आइसनोड परियोजना के प्रमुख पॉल ग्लिक ने बताया, "ये रोबोट धरती के सबसे कठिन स्थानों पर विज्ञान उपकरणों को पहुंचाने के लिए एक प्लेटफॉर्म हैं."
आर्कटिक-अंटार्कटिक: दुनिया के दो छोरों में कितना अंतर
आर्कटिक और अंटार्कटिक, दुनिया के दो छोर हैं. पृथ्वी के दो सिरे. दोनों जगहों पर जहां तक देखो बर्फ ही बर्फ. सतही तौर पर दोनों एक से दिखते हैं, लेकिन इनमें काफी फर्क है. आर्कटिक और अंटार्कटिक में क्या अंतर है, देखिए.
तस्वीर: picture alliance/Global Warming Images
भूगोल की एक काल्पनिक लकीर
पृथ्वी के बीच एक काल्पनिक रेखा मानी जाती है इक्वेटर, यानी विषुवत रेखा. जीरो डिग्री अक्षांश की यह लकीर पृथ्वी को उत्तरी और दक्षिणी गोलार्ध में बांटती है. अंग्रेजी में, नॉदर्न और सदर्न हेमिस्फीयर. यह उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव की आधी राह में है. आर्कटिक जहां उत्तरी गोलार्ध में है, वहीं अंटार्कटिक दक्षिणी गोलार्ध में है. तस्वीर में: अंटार्कटिक का माउंट एरेबस
तस्वीर: Danita Delimont/PantherMedia/Imago
एक समंदर है, दूसरा महादेश
बचपन में भूगोल के पाठ में आपने महादेशों और महासागरों के नाम याद किए होंगे. सात महादेशों में से एक है अंटार्कटिक और पांच महासागरों में से एक है आर्कटिक. अंटार्कटिक, सागर से घिरी जमीन है. वहीं आर्कटिक जमीन से घिरा सागर. यह दोनों इलाकों के बीच का सबसे बड़ा फर्क है.
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बर्फ में भी अंतर
आर्कटिक महासागर के ऊपर बर्फ की जो पतली परत है, वो लाखों साल पुरानी है. वैज्ञानिक इसे 'पेरीनियल आइस' कहते हैं. आर्कटिक की गहराई करीब 4,000 मीटर (चार किलोमीटर) है. उसकी अंदरूनी दुनिया को हम अब भी बहुत नहीं जानते. दूसरी तरफ अंटार्कटिक बर्फ की बहुत मोटी परत से ढका है. तस्वीर: अंटार्कटिक में गोता लगाती एक व्हेल
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पेंग्विन और पोलर बियर
पेंग्विन और ध्रुवीय भालू, इन दोनों को आप साथ नहीं देखेंगे. पेंग्विन केवल दक्षिणी गोलार्ध में पाए जाते हैं. सबसे ज्यादा पेंग्विन अंटार्कटिक में रहते हैं. इसके अलावा गलापगोस आइलैंड्स, दक्षिण अफ्रीका और न्यूजीलैंड में भी इनकी कुदरती बसाहट है.
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पोलर बियर का घर
पोलर बियर पृथ्वी के सुदूर उत्तरी हिस्से आर्कटिक में रहते हैं. देशों में बांटें तो इनकी बसाहट ग्रीनलैंड, नॉर्वे, रूस, अलास्का और कनाडा में है. पेंग्विन और पोलर बियर में एक समानता ये है कि क्लाइमेट चेंज और ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण दोनों के घर और खुराक पर बड़ा जोखिम मंडरा रहा है.
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इंसानी रिहाइश
हजारों साल से आर्कटिक में इंसान रहते आए हैं. जैसे कि मूलनिवासी इनौइत्स और सामी. वहीं दक्षिणी ध्रुव से हमारी पहचान को बहुत ज्यादा वक्त नहीं बीता. 19वीं और 20वीं सदी में जिस तरह दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत चोटियों तक पहुंचने की होड़ लगी थी, वैसी ही महत्वाकांक्षा साउथ पोल के लिए भी थी. काफी कोशिशों के बाद दिसंबर 1911 में नॉर्वे के खोजी रोल्ड एमंडसन को दक्षिणी ध्रुव पर पहुंचने में कामयाबी मिली.
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हरियाली
अंटार्कटिक का ज्यादातर हिस्सा स्थायी रूप से बर्फ से ढका रहता है. ऐसे में पौधों के उगने के लिए बहुत कम ही जगह है. यहां ज्यादातर लाइकेन्ज और मॉस के रूप में ही वनस्पति है. आर्कटिक अपेक्षाकृत कहीं ज्यादा हरा-भरा है. यहां करीब 900 प्रजातियों की काई और 2,000 से भी ज्यादा प्रकार के वैस्क्यूलर प्लांट पाए जाते हैं. इनमें ज्यादातर फूल के पौधे हैं.
तस्वीर: picture alliance/Global Warming Images
मौसम का फर्क
आर्कटिक के लिए जून का महीना 'मिड समर' है, यानी आधी गर्मी बीत गई और आधी बची है. मार्च से सितंबर तक सूरज लगातार क्षितिज से ऊपर होता है और 21 जून के आसपास यह सबसे ऊंचे पॉइंट पर पहुंचता है. वहीं अंटार्कटिक में इसका उल्टा है. वहां 21 दिसंबर के आसपास मिड समर होता है, यानी सूरज क्षितिज में सबसे ऊपर पहुंचता है.
तस्वीर: Brian Battaile/U.S. Geological Survey/AP/picture alliance
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इन जांच यंत्रों का लक्ष्य अंटार्कटिक के आसपास गर्म होते महासागरीय पानी के कारण बर्फ की चादरों के पिघलने की दर के बारे में अधिक सटीक डेटा जमा करना है, ताकि वैज्ञानिक भविष्य में समुद्र स्तर में वृद्धि का पूर्वानुमान बेहतर तरीके से लगा सकें.
दुनिया की सबसे बड़ी बर्फ की चादर का भविष्य इस सप्ताह दक्षिणी चिली में 11वीं वैज्ञानिक समिति के अंटार्कटिक अनुसंधान सम्मेलन में जुटे लगभग 1,500 वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं का प्रमुख केंद्र है.
लगातार पतली हो रही है चादर
जेपीएल के 2022 में प्रकाशित एक विश्लेषण के अनुसार, अंटार्कटिक की बर्फ की चादर के पतले होने और इसके टूटने से 1997 से इसका द्रव्यमान लगभग 120 खरब टन कम हो गया है, जो कि पहले की तुलना में दोगुना है.
नासा के अनुसार, अगर यह बर्फ पूरी तरह से पिघल जाती है, तो इससे वैश्विक समुद्र स्तर में अनुमानित 200 फीट (60 मीटर) की वृद्धि हो सकती है. बर्फ की यह चादर हजारों वर्षों में बनी है. यह महासागर में जमीन से कई मील दूर तक फैली होती है और ग्लेशियरों को समुद्र में बहने से रोकती है.
उपग्रह से ली गई तस्वीरों से पता चला है कि चादर का बाहरी भाग तेजी से टूटकर हिमखंडों में बदल रहा है. जितनी तेजी से यह चादर बिखर रही है, उतनी तेजी से फिर से नहीं बन सकती. साथ ही, बढ़ता महासागरीय तापमान चादर को नीचे से भी कमजोर कर रहा है, जिसका वैज्ञानिक आइसनोड जांच यंत्रों की मदद से और अधिक सटीकता से अध्ययन करने की उम्मीद कर रहे हैं.
गंगोत्री में बर्फ और गंगा में पानी नहीं तो क्या करेगा भारत
देश के प्रधानमंत्री से लेकर मजदूर, अरबपति, आम लोग और फिल्म स्टार, सभी जीवन में कम-से-कम एक बार जिस गोमुख की पदयात्रा कर लेना चाहते हैं, वह सूख रही है.
तस्वीर: Xavier Galiana/AFP
खत्म हो रहे हैं ग्लेशियर
हिमालय के ग्लेशियरों के बीच गंगा के उद्गम स्थल पर बर्फ निरंतर कम हो रही है. यह 140 करोड़ देशवासियों के लिए अस्तित्व का संकट बन सकती है. बढ़ता तापमान धरती के दूसरे हिस्सों के साथ हिमालय पर बिछी बर्फ की मोटी चादर को मिटा रहा है.
तस्वीर: Xavier Galiana/AFP
हर मिनट, हर सेकेंड घट रही है बर्फ
वैज्ञानिक और रिसर्चरों का कहना है कि हर दिन, हर मिनट नहीं, बल्कि हर सेकेंड बहुत तेजी से बर्फ सिमट रही है. बड़े-बड़े इलाकों से बर्फ गायब है और सिर्फ चट्टान नजर आ रहे हैं. लोग मानें या नहीं, लेकिन इसके प्रमाण अब आंखों के सामने हैं.
तस्वीर: Xavier Galiana/AFP
मां गंगा
भारत के मध्य से 2,500 किलोमीटर की यात्रा करने वाली पवित्र नदी 50 करोड़ से ज्यादा लोगों, असंख्य मवेशियों या दूसरे जीव जंतुओं को पालती है. गंगा उनकी आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक,और औद्योगिक जरूरतें पूरी करके मां बन जाती है.
तस्वीर: Tanika Godbole/DW
आजाद भारत के 75 साल
आजादी के 75 सालों में भारत, ब्रिटेन को पीछे छोड़ दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया. इसके साथ ही यह तीसरा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक और कोयला जलाने वाला दूसरा सबसे बड़ा देश भी है. देश में सूखा, बाढ़ की आपदाएं और पानी की कमी निरंतर बढ़ती जा रही हैं.
तस्वीर: Xavier Galiana/AFP
बढ़ते सैलानी
हिंदुओं के लिए गंगा का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व भी बहुत ज्यादा है. समृद्धि और सुविधाएं बढ़ने के साथ गंगोत्री और गोमुख पहुंचने वाले लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है. गंगोत्री शहर तो दुकान, सैलानी और ट्रैफिक से भर गया है. पर्यावरण इसका भी खामियाजा भुगत रहा है.
तस्वीर: Xavier Galiana/AFP
पिघलते ग्लेशियर
एक तरफ सैलानी बढ़ रहे हैं, तो दूसरी तरफ ग्लेशियर पिघल रहे हैं. वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के मुताबिक, बीते 90 साल में गंगोत्री ग्लेशियर 1.7 किलोमीटर सिकुड़ गया. अब वहां सिर्फ चट्टान दिख रही है.
तस्वीर: Xavier Galiana/AFP
प्राकृतिक आपदाएं
ग्लेशियरों का पिघलना और मौसम के पैटर्न में बदलाव कई आपदाएं लेकर आ रहा है. अक्टूबर में गंगोत्री में हुए हिमस्खलन ने 26 लोगों की जान ली. पिछले साल ग्लेशियर टूटने से 72 लोगों की मौत हुई. 2013 में भारी बारिश और बाढ़ ने 5,000 लोगों की जीवनलीला खत्म कर दी.
तस्वीर: Xavier Galiana/AFP
पानी की कमी
भारत दुनिया के उन देशों में है, जहां पानी पर भारी दबाव है. दुनिया के महज 4 फीसदी जल संसाधन पर 17 फीसदी आबादी की प्यास बुझाने का दबाव है. नीति आयोग के मुताबिक करीब 60 करोड़ लोग पहले से ही अत्यधिक जल संकट का सामना कर रहे हैं.
तस्वीर: Xavier Galiana/AFP
भोजन पर असर
संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन के असर से भारत में चावल 10 से 30 फीसदी और मक्के का उत्पादन 25 से 70 फीसदी घट गया है. इसके पीछे बढ़ता तापमान, भूजल की कमी और मौसम के अत्यधिक तीखे तेवर जिम्मेदार हैं.
तस्वीर: Xavier Galiana/AFP
रोजगार का संकट
भारत का कृषि क्षेत्र सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार देने के साथ ही सबसे ज्यादा पानी का इस्तेमाल भी करता है. कुओं और पंपों से निकलता पानी भूजल में भारी कमी ला रहा है और मौसमी बदलाव के कारण उनकी भरपाई नहीं हो रही है. नतीजतन बहुत से किसान खेती छोड़ रहे हैं.
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ये बेलनाकार वाहन, जो लगभग 8 फीट (2.4 मीटर) लंबे और 10 इंच (25 सेमी) व्यास के होते हैं, बर्फ में बनाए गए छेदों या समुद्र में जहाजों से छोड़े जाएंगे.
हालांकि इनमें चलाने वाला कोई प्रोपल्शन नहीं होगा लेकिन ये जांच यंत्र विशेष सॉफ्टवेयर के मार्गदर्शन का उपयोग करते हुए धाराओं में बहेंगे और "ग्राउंडिंग जोन" तक पहुंचेंगे, जहां बर्फ की चादर महासागर के खारे पानी और जमीन से मिलती है. ये वैसी जगह हैं, जो सैटलाइट से भी नहीं देखी जा सकतीं.
जेपीएल के जलवायु वैज्ञानिक इयान फेंटी ने कहा, "लक्ष्य सीधे बर्फ और महासागर के पिघलने की जगहों से डेटा जुटाना है."
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कैसे मिलेगा डेटा?
जब ये अपने लक्ष्यों पर पहुंच जाएंगे, तो ये जांच यंत्र अपना भार छोड़ देंगे और वाहन के एक सिरे से निकले तीन टांगों वाले "लैंडिंग गियर" का उपयोग करके बर्फ की चादर के नीचे खुद को जोड़ लेंगे. आइसनोड्स तब एक साल तक बर्फ के नीचे से डेटा रिकॉर्ड करेंगे, जिसमें मौसमी उतार-चढ़ाव भी शामिल हैं. फिर खुद को आजाद कर खुले समुद्र की ओर बहते हुए उपग्रह के माध्यम से जानकारी भेजेंगे.
अब तक बर्फ की चादर के पतले होने का दस्तावेजीकरण उपग्रह अल्टीमीटरों द्वारा ऊपर से बर्फ की ऊंचाई में बदलाव को मापकर किया गया था.
पिघलती बर्फ के साथ बदलते लोग
जलवायु परिवर्तन इन लोगों के घरबार और रोजी रोटी छीन रहा है. इनके पास अब एक ही चारा बचा है, जलवायु के मुताबिक परिवर्तित हो जाएं. देखिए, कैसे बदल रहे हैं आर्कटिक के आदिवासी...
तस्वीर: Melissa Renwick/REUTERS
कैसे बदल रहे हैं लोग
आर्कटिक पर रहने वाले आदिवासी लोग बदल रहे हैं क्योंकि उनके आसपास का वातावरण बदल रहा है. बर्फ पहले से पतली हो गई है और तापमान बढ़ता जा रहा है.
तस्वीर: Melissa Renwick/REUTERS
तकनीक का सहारा
कनाडा के न्यूफाउंडलैंड और लैब्राडोर में रहने वाले ये लोग अपने पारंपरिक जीवन को बनाए रखने के लिए अब तकनीक का ज्यादा सहारा ले रहे हैं.
तस्वीर: Melissa Renwick/REUTERS
हाईवे पर मछलियां नहीं
पहले ये लोग ‘आइस हाईवे’ पर मछलियां पकड़ते थे लेकिन सूखा लंबा हो रहा है, तूफान और बाढ़ की तीव्रता बढ़ रही है और पारंपरिक तरीकों से जीवन मुश्किल होता जा रहा है.
तस्वीर: Melissa Renwick/REUTERS
‘स्मार्टआइस’ प्रोग्राम
आदिवासी लोग स्मार्टआइस प्रोग्राम चला रहे हैं जिसमें तकनीक के जरिए बर्फ की मोटाई पर नजर रखी जाती है. स्थानीय लोग वेबसाइट से जान सकते हैं कि कहां कितनी मोटी बर्फ है और फिर उस हिसाब से शिकार की जगह तय करते हैं.
तस्वीर: Melissa Renwick/REUTERS
चार गुना तेज गर्मी
वैज्ञानिकों का कहना है कि आर्कटिक बाकी धरती के मुकाबले चार गुना ज्यादा तेजी से गर्म हो रहा है. विशेषज्ञ मानते हैं कि 2035 तक आर्कटिक सागर का आकार गर्मियों में मात्र चार लाख वर्ग किलोमीटर तक सिमट जाने का अंदेशा है.
तस्वीर: Melissa Renwick/REUTERS
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मार्च में किए गए परीक्षण के दौरान, एक आइसनोड प्रोटोटाइप ने समुद्र में 330 फीट (100 मीटर) की गहराई तक उतरकर लवणता, तापमान और प्रवाह का डेटा जमा किया था. पहले के परीक्षण कैलिफोर्निया के मोंटेरे बे और मिशिगन के ऊपरी प्रायद्वीप से सटे लेक सुपीरियर की जमी हुई सतह के नीचे किए गए थे.
वैज्ञानिकों का मानना है कि एक ही जगह पर बर्फ की चादर से डेटा जमा करने के लिए 10 जांच यंत्र आदर्श होंगे, लेकिन ग्लिक ने बताया कि "पूरे पैमाने पर तैनाती के लिए समय-सीमा तैयार करने से पहले हमें और विकास और परीक्षण करने की आवश्यकता है."