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भारत की ओर ताकते दुनिया के सबसे सताए लोग

१६ सितम्बर २०१६

रोहिंग्या मुसलमानों को अक्सर दुनिया में सबसे ज्यादा सताए हुए लोग कहा जाता है. भारत की राजधानी दिल्ली में भी कुछ रोहिग्या मुसलमान रहते हैं और शरण चाहते हैं.

Indien Rohingya Flüchtlinge
तस्वीर: DW/C. Kapoor

सुरक्षा और बेहतर जिंदगी की तलाश में म्यांमार से भटकते हुए कुछ रोहिंग्या मुसलमान दिल्ली में भी आ पहुंचे हैं. कालिंदी कुंज इलाके में ऐसे लगभग 370 लोग रहते हैं. यहां ये लोग पिटाई, बलात्कार या फिर हत्या जैसी प्रताड़ना सहने को तो मजबूर नहीं हैं, लेकिन उनकी जिंदगी में अनिश्चितता बराबर बनी हुई है.

एक अमेरिकी एनजीओ जकात ने इन लोगों को ग्यारह हजार वर्ग फीट की जमीन के एक टुकड़े पर बसा रखा है और तंबुओं में ये लोग गुजर बसर कर रहे हैं. वैसे तो यहां इन लोगों को एक साल के लिए रखा गया था लेकिन वो समयसीमा तो कब की बीत गई और अब इन लोगों से ये जगह खाली करने को कहा जा रहा है. ये पहला मौका नहीं है जब इन लोगों से ऐसा करने को कहा जा रहा है, लेकिन इस बार भी वो नहीं जानते कि अब कहां जाना है.

रोहिंग्या लोगों का संबंध म्यांमार के पश्चिमी रखाइन प्रांत से है. लेकिन म्यांमार की सरकार लगभग दस लाख लोगों वाले इस समुदाय को गैरकानूनी बांग्लादेशी प्रवासी मानती है. इसी का नतीजा है ज्यादातर रोहिंग्या लोगों को म्यांमार की नागरिकता नहीं दी जाती है और सांप्रदायिक हिंसा के कारण बहुत से लोग वहां से अपना सब कुछ छोड़ कर भागने को मजबूर हैं.

तस्वीर: DW/C. Kapoor

कई दशकों से रोहिंग्या लोग पहचान का संकट झेल रहे हैं. उन्हें म्यांमार के भीतर और बाहर दर-ब-दर भटकना पड़ रहा है. ज्यादातर लोग बहुत ही दयनीय हालात में रह रहे हैं. उनके अस्थायी बसरों में उत्पीड़न, मानव तस्करी और बलात्कार जैसे अपराधों का जोखिम बराबर बना रहता है. वर्ष 2012 के बाद से लगभग एक लाख रोहिंग्या मुसलमान बेहतर जिंदगी की तलाश में नावों पर सवार होकर दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में गए हैं. उनमें से बहुत सारे बांग्लादेश, इंडोनेशिया, थाइलैंड और भारत जैसे देशों में शरण लिए हुए हैं.

भारत ने अभी तक रोहिंग्या मुसलमानों को अपने यहां लेता रहा है और उसे इन शरणार्थियों के लिए सुरक्षित जगह माना जाता है. 33 साल के उस्मान बताते हैं कि दिल्ली पहुंचने से पहले वो भारत-बांग्लादेश सीमा के पास घने जंगल में बिना खाए पीए तीन दिन तक रहे थे. ये बात लगभग तीन साल पुरानी है. अपने अनुभव बताते हुए उस्मान कहते हैं, "म्यांमार में तो अधिकारी जवान महिला और पुरूषों की आंखों पर कपड़ा बांधते हैं और रात में उन्हें अपने साथ ले जाते हैं. फिर ये लोग कभी वापस नहीं लौटते हैं."

तस्वीर: DW/C. Kapoor

उस्मान कहते हैं कि भारत रोहिंग्या मुसलमानों को उस तरह की सुविधाएं तो नहीं दे सकता है जैसी उसने अफगान या इराकी शरणार्थियों को दी हैं लेकिन फिर भी उसने रोहिंग्या लोगों के लिए म्यांमार से कहीं ज्यादा किया है. कालिंदी कुंज की इस बस्ती के 137 बच्चों में से 60 की उम्र पांच साल से कम है और वे स्कूल नहीं जाते हैं. 47 बच्चे स्कूल जाते हैं जिनकी फीस जकात फाउंडेशन दे रहा है.

दिल्ली में रहने से इन लोगों की जिंदगी में बहुत बदलाव आया है. 27 साल के मोहम्मद इस्माइल लगभग ढाई साल पहले दिल्ली पहुंचे. उनके परिवार में दो भाई, एक भाभी और दो बहनों समेत कुछ छह लोग हैं. ये सभी लोग अपने माता पिता को म्यांमार में छोड़ कर दिल्ली आए.

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अब इस्माइल का दिल्ली में अपना घर है. वो कहते हैं, "कम से कम यहां हमारी स्वीकार्यता है. हम अपने धर्म के मुताबिक रह सकते हैं, हमें ये डर नहीं है कि कोई हमें मार देगा. भारत ने हमें स्वीकार किया है. इधर उधर दिख रही इस गंदगी के बावजूद मैं यहां बहुत सुरक्षित महसूस करता हूं, कभी वापस नहीं जाना चाहूंगा."

लेकिन झुग्गियों में बीमारियों का खतरा और जगह खाली करने के नोटिस के कारण बेघर होने की संभावनाओं को टाला नहीं जा सकता. दिल्ली में आजकल मच्छरों के कारण डेंगू और चिकनगुनिया जैसी बीमारियां फैली हैं. कालिंदी कुंज के इस कैंप में भी 40 लोग बीमार हो गए हैं और वो अपने इलाज का खर्चा उठाने के काबिल नहीं हैं.

स्वास्थ्य सुविधाएं ना होने के कारण हालात उनके लिए बदतर ही होते जा रहे हैं. हालांकि संयुक्त राष्ट्र की शरणार्थी एजेंसी ह्यूमन राइट्स वॉच ने इनकी मदद का वादा किया है लेकिन अब तक ज्यादा कुछ हो नहीं पाया है. दूसरा दिल्ली में रहने वाले रोहिंग्या लोगों के लिए रोजगार भी एक बड़ी समस्या है. मिसाल के तौर पर उस्मान दिहाड़ी पर मजदूरी करते हैं और उन्हें एक दिन का तीन सौ रुपए से भी कम मेहनताना मिलता है. महीने में 10 से 15 दिन ही काम मिलता है.

तस्वीर: DW/C. Kapoor

अब्दुल वसीम भी एक रोहिंग्या शरणार्थी हैं जो दिल्ली में अपनी बेटी के साथ रहते हैं. वो खराब सेहत के कारण काम नहीं कर सकते हैं. वो म्यांमार में अपनी पत्नी और पांच बच्चों को छोड़ कर आए हैं और जिस तरह म्यांमार ने अपनी सीमा को बंद कर दिया है, उसके चलते उन्हें कभी अपने परिवार से मिलने की उम्मीद नहीं है. उनकी बेटी कालिंदी कुंज के रिहायशी इलाके में घरों में काम करके जितना कमाती है, उसी से बाप बेटी का गुजारा होता है.

रोहिंग्या मुसलमानों की पीड़ा अक्सर मीडिया की सुर्खी बनती है और इस पर सार्वजनिक बहसें भी होती हैं. लेकिन एक सवाल अपनी जगह पर कायम है. आखिर वो यहां से कहां जाएं. ये लोग अब भी यही पता करने में जुटे हैं कि भारत में उनके समुदाय के कुल कितने लोग रहते हैं.

चीना कपूर/एके

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