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इतिहासमिस्र

एक पत्थर में छिपी है एक सभ्यता की कहानी

स्टीफन डेजे
३० सितम्बर २०२२

प्राचीन मिस्र को समझने की कुंजी है ये पत्थरः जो इतिहास में रोजेटा स्टोन के नाम से मशहूर है. और जिसने हाइरोग्लिफ यानी चित्रलिपि की गुत्थियों को हल करने में मदद की थी. पुरातत्व के इस रोमांच में संयोग का भी बड़ा हाथ था.

रोजेटा स्टोन
तस्वीर: picture-alliance/ZB

19 जुलाई 1799 को फ्रांसीसी सैनिकों ने नील डेल्टा के बंदरगाह शहर रोजेटा में एक ध्वस्त दीवार के मलबे से पत्थर की एक मामूली सी सिल्ली खींच निकाली थी. उसकी सतह पर लिपि के तीन खंड उकेरे गए थे. ओटोमन साम्राज्य से लोहा लेने की तैयारी कर रहे,  नेपोलियन के मिस्र अभियान (1798-1801) में शामिल एक भी आदमी को इस बात का जरा भी ख्याल था कि उनके हाथ कौनसा खजाना आ लगा है. लेकिन जल्द ही खबर आग की तरह फैल गई.

मिस्र में हटाई गईं फैरो की पट्टियां, लेकिन डिजिटल तरीके से

पत्थर की ये सिल्ली ग्रेनाइट जैसी किसी चट्टान से बनी थी, 112 सेंटीमीटर ऊंची और 75.7 सेंटीमीचर चौड़ी. और वो कहीं ज्यादा प्राचीन पत्थर का एक हिस्सा भर थी.

लेकिन अभिलेखों, अक्षरों और चिन्हों का मतलब क्या था?

ये सिल्ली टूटीफूटी भी थीः ऊपरी पाठ यानी अस्पष्ट चित्रलिपि का दो तिहाई हिस्सा गायब था. उसके अलावा, किनारों पर कई सारी पंक्तियां क्षतिग्रस्त थीं. रोजमर्रा के कामकाज से जुड़े प्राचीन मिस्र का लेखन रूप, डिमोटिक स्क्रिप्ट का मध्य पाठ, महफूज था. नीचे, प्राचीन यूनानी पाठ, एक बड़ा कोना नहीं था.

मिस्र की सभ्यता के राज हैं रोजेटा स्टोनतस्वीर: AlexAnton/Zoonar/picture alliance

एक रहस्यपूर्ण खोज

लेकिन उन तीनों पाठों का मतलब क्या था? क्या वे अलग अलग भाषाओं और स्क्रिप्टों में एक जैसे संदेश थे? नेपोलियन की इस अन्वेषी सेना का कमांडर लेफ्टिनेमट पियरे-फ्रांकयोस बुचार्ड पूरी तरह से गदगद था. रहस्य ने उसे अपनी गिरफ्त में ले लिया था. उसने सेना के साथ रहे फ्रांसीसी पुरातत्वविदों को सूचित कर दिया. लेकिन उनके पास भी कोई जवाब नहीं था और आगे की जांच के लिए वो उस खोज को फ्रांस ले जाना चाहते थे.

लेकिन वो कोशिश 1801 में नाकाम हो गई. अंग्रेज सेना फ्रांसीसियों से जीत गई. पराजित सेना को अपने तमाम मिस्र कला संग्रह और हस्तशिल्प भी सरेंडर करने पड़े. और इस तरह युद्ध के एक व्यर्थ सामान की तरह रोजेटा स्टोन लंदन आ पहुंचा. आज वो ब्रिटिश संग्रहालय की शोभा बढ़ा रहा है.

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इस रहस्यभरी खोज से उत्तेजित यूरोपीय शोधकर्ताओं ने चित्रलिपि को खंगालना, उसके अर्थ की तलाश शुरू की. फ्रांसीसी सिलवेस्टर डे सेसी ने जनभाषा या प्रचलित भाषा की उस टेक्स्ट के यूनानी हिस्से से तुलना की. 1802 में स्वीडन के योहान डेविड आकरब्लाड ने प्रचलित नामों को पढ़ने में सफलता हासिल की. ब्रिटिश जानकार थॉमस यंग ने बदले में गणितीय ढंग से लिपि की इस गुत्थी को सुलझाने की कोशिश की लेकिन वो प्राचीन मिस्र कथा के पेचीदा व्याकरण को नहीं समझता था.

भाषाविद चैम्पोल्लियोन ने खंगाला अर्थ

फ्रांसीसी भाषाविद ज्यां-फ्रांकियोस चैम्पोल्लियोन (1790-1832) ने आखिरकार लिपि का अर्थ खोजने में सफलता हासिल की. यंग से उलट वो कॉप्टिक भाषा अच्छी तरह बोल लेते थे और मिस्र के बारे में और उसकी संस्कृति के बारे में बहुत कुछ जानते थे. उन्होंने पाया कि डेमोटिक स्क्रिप्ट के संकेताक्षर, शब्दांश या उच्चारण-इकाई के लिए थे. जबकि टालमेइक चित्रलिपियां बदले में कॉप्टिक भाषा की ध्वनियों को प्रतिबिम्बित करती थी.

सूडान में भी हैं पिरामिड

हनोवर स्थित मिस्र सभ्यता के जानकार क्रिस्टियान लोबन ने डीडब्ल्यू को बताया, "इस वजह से चैम्पोल्लियोन ये साबित कर पाए थे कि चित्र लिपि के गठन के पीछे कॉप्टिक भाषा थी. उसी वजह से वो चित्रलिपियों का तोड़ निकाल पाए."

कहते हैं कि अपनी खोज से बेहद रोमांचित चैम्पोल्लियोन अपने भाई के दफ्तर में घुस गए और चिल्लाए:  "ज्यां तियं मॉं अफेयर! ", (मुझे मिल गया!). और ये कहते ही बेहोश हो गए.

मिस्र की चित्रलिपि- इंसानी आकृतियों, जंतुओ और वस्तुओं का इस्तेमाल करे वाली चित्रप्रधान लिपि- 3200 ईसापूर्व से 400 ईसवी के दरमियान वो इस्तेमाल में थी. उस दौरान लिखित भाषा पूरी तरह से इस्तेमाल से बाहर हो गई थी और पढ़ी नहीं जा सकती थी.

ब्रिटिश म्यूजियम में रोजेटा स्टोनतस्वीर: Daniel Kalker/picture alliance

तो फिर रोजेटा स्टोन ठीक ठीक कहां से आया था? और उकेरा गया लेखन क्या था?

चित्रलिपि में कॉप्टिक भाषा की ध्वनियों को प्रतिबिम्ब

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि ये भाषा करीब 196 ईसापूर्व में टोलोमिक युग (लगभग 323 से 30 ईसापूर्व) के दौरान आई थी. फैरो टोलेमी चतुर्थ की मृत्यु के समय से टोलोमिक वंश का शासन सत्ता संघर्षों से घिरा रहा था. जब 204 ईसापूर्व मे विद्रोह भड़क उठा तो फैरो के प्रति वफादारी की मांग की गई और उसी के तहत 196 ईसा पूर्व में मिस्र के पादरियों की एक सभा ने कथित रूप से "मेम्फिस हुक्मनामा" तैयार किया था.

उसे इस तरह लिखा गया था कि आबादी के तीन समूह उसे पढ़ सकते थेः चित्रलिपि में पादरियों के लिए ईश्वर के शब्द, मिस्री भाषा में अधिकारियों के लिए जन अक्षर लिपि, और मिस्र के यूनानी शासकों के लिए प्राचीन यूनानी बड़े अक्षर. मिस्र के हर मंदिर में पत्थर के एक जैसे स्तंभ खड़े किए गए थे.

रोजेना स्टोन की मदद से, ज्यां-फ्रांकोयस चैम्पोल्लियोन ने फनेटिक यानी ध्वनिप्रधान चित्रलिपि की वर्णमाला तैयार की थी. दूसरे विद्वान, लिपि को पूरी तरह से अनूदित करने के लिए इसका उपयोग कर पाने में समर्थ थे.

हनोवर में केस्टनर म्यूजियम के मिस्र विभाग के प्रमुख लोबेन के मुताबिक, "रोजेटा स्टोन का भला हो कि उसकी मदद से चैम्पोल्लियोन चित्रलिपि के अर्थ को निकाल पाए  थे. उसकी बदौलत मिस्रवासियों को उनकी आवाज दोबारा मिल गई. और साथ ही साथ, इजिप्टोलॉजी का जन्म भी हुआ."

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मालिकान कौन हैं?

आज तक, रोजेटा स्टोन पुरातत्व की सबसे महत्वपूर्ण खोजनो में से एक माना जाता है. उसकी अहमियत बहुत बड़ी है- और सिर्फ विज्ञान के लिए ही नहीं. आखिरकार, उपनिवेशी दौर में इंग्लैंड पहुंच जाने वाली कला का मालिक कौन था?

जर्मन इजिप्टोलॉजिस्ट लोबन कहते हैं, "वो पत्थर की सिल्ली तमाम मनुष्यता की है. वो कहां है, इससे फर्क नहीं पड़ता है. दुनिया भर के संग्रहालयों में मिस्र की चीजें, देश के बाहर उसकी सर्वोत्तम राजदूत हैं." वो कहते हैं कि पर्यटन को भी लाभ हुआ है जो आखिरकार फैरो के घर में पैसे ला रहा है.

जर्मनी के हिल्डेशाइम में रोमर और पेलिसायस संग्रहालय में लोबन इन दिनों, रोजेटा स्टोन पर एक प्रमुख प्रदर्शनी की तैयारी कर रहे हैं. "डिसाइफर्ड" नाम का ये शो अगले साल 9 सितंबर को शुरू होगा.

उधर लंदन में इसी साल 13 अक्टूबर से ब्रिटिश म्यूजियम में एक प्रमुख प्रदर्शनी आयोजित की जा रही है. उसका टाइटल है-  "हाइरोग्लिफः अनलॉकिंग ऐनशियन्ट इजिप्ट" (चित्रलिपिः प्राचीन मिस्र की खोज). उस मौके पर शोधकर्ताओं की खोज से जुड़ी उपलब्धियों को भी सम्मानित किया जाएगा. चित्रलिपियों को खंगालने की शुरुआत के 200 साल बाद ये मौका आया है.

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