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पुलिस को सुधारना है तो इन सवालों के जवाब दो

संजीव भट्ट४ जुलाई २०१६

भारतीय पुलिस सेवा में रहे संजीव भट्ट वे जरूरी सवाल उठा रहे हैं, जिनके जवाब दिए बिना पुलिस सुधार संभव नहीं. ये सवाल उस जड़ पर प्रहार करते हैं जहां से पुलिस व्यवस्था में सड़ांध शुरू होती है.

Indien Angriff Polizeistation Punjab Dinanagar in Gurdaspur
तस्वीर: picture-alliance/dpa/P. Singh

जो पुलिस अफसर काम ना करे, उसे सजा के बजाय सम्मान मिले. ऐसा हो तो समझ जाएं कि पुलिस का नजरिया बदल गया है. भारत में ऐसा हुआ 1990 के बाद. गुजरात काडर में भारतीय पुलिस सेवा के अफसर के तौर पर 27 साल गुजारने के बाद मैं यह बात पूरे दावे के साथ कह सकता हूं कि 1990 के बाद पुलिस की सोच-समझ और नजरिया पूरी तरह बदल गया. खासकर सांप्रदायिक संघर्षों के दौरान उनकी चुप्पी और अकर्मण्यता को नवाजा गया. और ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जबकि पुलिस का इस्तेमाल एक खास धार्मिक समुदाय के कुछ खास समूहों या लोगों को निशाना बनाने के लिए किया गया.

मुझे लगता है कि इससे धीरे-धीरे पुलिस के भीतर एक नई तरह की संस्कृति ने जन्म लिया है. जूनियर पुलिस अफसरों और सिपाहियों के बीच यह बात घर कर गई कि कार्रवाई ना करना या पक्षपात पूर्ण कार्रवाई करना सफलता की सीढ़ियां चढ़ने का जरिया है. इस नई संस्कृति का नतीजा ना सिर्फ पुलिस द्वारा मानवाधिकारों के घोर और बेशर्म उल्लंघन के रूप में दिखता है बल्कि फोर्स में अनुशासनहीनता, अक्षमता, असमानता और भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा देता है. अगर इस चलन को समय रहते ना समझा गया, ना रोका गया और नेस्त ओ नाबूद ना किया गया तो हमें वैसे ही और ज्यादा बल्कि और ज्यादा भयानक अंतःस्फोट देखने को मिलेंगे जैसे कि 2002 के गुजरात नरसंहार के दौरान देखे गए थे.

भारतीय पुलिस और विस्तृत नजरिए से देखा जाए तो पूरे भारतीय समाज के सामने आज कुछ प्रश्न हैं जो चिल्ला-चिल्लाकर जवाब चाहते हैं.

1. वे आंतरिक तत्व कौन से हैं जिन्होंने पुलिस के कंट्रोल और कमांड के पूरे स्ट्रक्चर को खत्म कर दिया है?

2. किन बाहरी तत्वों ने एकदम व्यवस्थागत तरीके से पुलिस की हाइरार्की को बर्बाद करने का काम किया?

3. पुलिस में सही लोगों को कैसे भर्ती किया जाए?

4. भर्ती की प्रक्रिया को राजनीतिक प्रभाव से कैसे बचाया जाए?

5. पुलिस फोर्स को सांप्रदायिक प्रभावों और पक्षपातों से कैसे बचाया जाए?

6. सांप्रदायिक हिंसा के दौरान यह कैसे सुनिश्चित किया जाए कि पुलिस स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर का पालन करेगी?

7. पुलिस को इसके अपने ही गुमराह अफसरों से कैसे बचाया जाए?

8. ऐसा सिस्टम कैसे तैयार किया जाए कि पुलिस का इस्तेमाल राजनीतिक या किसी विचारधारा विशेष को फायदा पहुंचाने के लिए ना हो सके?

9. पुलिस के कामकाज की स्वायत्तता को कैसे दोबारा स्थापित किया जाए?

10. यह कैसे सुनिश्चित किया जाए कि सांप्रदायिक दंगों के दौरान कार्रवाई करते हुए पुलिस किसी भी तरह के पक्षपात से ऊपर उठकर तुरत और प्रभावशाली कार्रवाई करेगी?

11. आपराधिक न्याय प्रक्रिया की विश्वसनीयता और निष्ठा को दोबारा कैसे हासिल किया जाए?

12. जब राज्य यानी कि सरकार सांप्रदायिक दंगों को रोकने और काबू करने में नाकाम रहे तो प्रतिनिधि के तौर पर उसकी जिम्मेदारी से कैसे निपटा जाए?

13. सांप्रदायिक हिंसा के पीड़ितों को मुआवजा देने की जिम्मेदारी किसकी होनी चाहिए और यह कैसे होगा?

14. नारकीय बस्तियों की स्थापना में पुलिस और सरकार की क्या भूमिकाएं हैं?

15. इन नारकीय बस्तियों को सामान्य स्थिति तक वापस लाने की प्रक्रिया में विशेषकर पुलिस और आमतौर पर सरकार क्या भूमिका निभा सकती है?

16. तथ्यों की जानकारी जुटाने के लिए जो प्रक्रिया इस्तेमाल की जाती है वह दरअसल अंधरी गली में कुछ तलाशने जैसी या फिर उसे टालते जाने जैसी है. तथ्य जुटाने की प्रक्रिया यानी कमिशन ऑफ इंक्वॉयरी ऐक्ट को प्रभावशाली कैसे बनाया जाए?

17. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग सरकार के हाथों की कठपुतलियां बन जाते हैं. उन्हें प्रभावी पहरेदार कैसे बनाया जाए?

1851 के इंडियन पुलिस ऐक्ट के तहत जो पुलिस फोर्स बनाई गई थी उसका काम था ब्रिटिश शासित भारत में कानून का राज बनाए रखना और उस राज को मजबूती से बचाए रखना. आजादी के बाद से भारतीय पुलिस की भूमिका और नजरिया दोनों बदल रहे हैं. मैं यह समझ सकता हूं कि हर सरकार का अपना एजेंडा होता है. एक पुलिस अफसर होने के नाते मैंने देखा है कि सरकारें कैसे पुलिस फोर्स और इस पूरी संस्था के साथ छेड़छाड़ या खिलवाड़ करते हैं. कांग्रेस की सरकार से लेकर मौजूदा बीजेपी सरकार तक और बीच में आईं गठबंधन सरकारों तक, सब इसमें शामिल रहे. लेकिन आज पुलिस में जो सांस्कृतिक बदलाव हो रहे हैं वे कहीं ज्यादा गहरे हैं. पुलिस को तरफदारी और अकर्मण्यता की बीमारी इतनी गंभीरता से जकड़ चुकी है कि उसे दूर करने के लिए, उसका इलाज करने के लिए न सिर्फ गहरी समझ की जरूरत होगी बल्कि बहुत लंबे समय तक लगातार उस पर काम करना होगा.

यह आसान नहीं होगा. हमें विधायिका, न्यायपालिका, मीडिया और राजनीतिक दलों के बीच के जटिल गठजोड़ को समझना होगा. उनके पुलिस पर सामूहिक और अलग-अलग रूप से पड़ रहे प्रभावों को समझना होगा जिसकी वजह से पुलिस व्यवस्था को ऊपर बताया गया रोग लग रहा है. इस बात पर गहरा अध्ययन करना होगा कि पुलिस जब किसी पक्षपात के कारण किसी खास जगह कार्रवाई नहीं करती है या किसी खास समूह या संप्रदाय के खिलाफ कार्रवाई करती है तो उससे मानवाधिकारों का कितना गंभीर उल्लंघन होता है. इस बात का अध्ययन करना होगा कि इस तरह के पक्षपात से असमानता और अन्याय की भावना किस हद तक पैदा होती है और किस हद तक प्रभावित करती है.

एक समाज के तौर पर हमें इस बात को देखना और समझना होगा कि कैसे हमारे ही एक हिस्से, एक तबके में नाउम्मीदी, मोहभंग और मायूसी घर करती जा रही है. पुलिस में फैली बीमारियां को जड़ से इलाज करने के लिए इतनी गहराई तक जाना ही होगा.

संजीव भट्ट

पूर्व आईपीएस, गुजरात

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