सऊदी अरब में जुर्म करने पर बहुत कड़ाई से सजा दी जाती है. लेकिन मानवाधिकार आयोग को उम्मीद है कि इस फैसले से देश की दंड व्यवस्था में सुधार आने में मदद मिलेगी.
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सऊदी अरब ने नाबालिगों को दी जाने वाली मौत की सजा पर रोक लगा दी है. रविवार को देश के मानवाधिकार आयोग ने एक बयान जारी कर इस फैसले की जानकारी दी. सऊदी के राज परिवार द्वारा सुधार कार्यक्रम के तहत उठाया गया यह ताजा कदम है. 25 अप्रैल को ही मानवाधिकार आयोग ने कोड़े मारने की सजा को समाप्त करने की घोषणा की थी. आयोग का कहना है कि 18 साल से कम उम्र में किए गए अपराधों के लिए नाबालिगों को मौत की सजा नहीं दी जाएगी. आयोग के अध्यक्ष अवाद अल-अवाद ने कहा, "इसके बदले दोषी नाबालिग को बाल सुधार गृह में 10 साल से अधिक की सजा नहीं होगी."
अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल के मुताबिक सऊदी अरब ने 2019 में 184 लोगों को मौत की सजा दी जिसमें एक नाबालिग था. 18 वर्ष से कम उम्र के लोगों द्वारा किए गए अपराधों के लिए मृत्युदंड, बाल अधिकारों पर यूएन कन्वेंशन के खिलाफ है, जिस पर सऊदी अरब ने भी हस्ताक्षर किये हैं. अवाद ने कहा, "सऊदी अरब के लिए यह एक महत्वपूर्ण दिन है. यह फैसला एक अधिक आधुनिक दंड संहिता स्थापित करने में हमारी मदद करेगा."
नए कानून के मुताबिक देश के अल्पसंख्यक शिया समुदाय के कम से कम छह लोगों की मौत की सजा खत्म हो जाएगी. अप्रैल 2019 में इस सुन्नी देश में 37 लोगों का सिर कलम कर दिया गया था. ये सभी आतंकवाद के दोषी थे. उस समय यूएन प्रमुख ने कहा था कि दोषियों में अधिकतर शिया थे जिनकी निष्पक्ष सुनवाई नहीं हुई होगी. कम से कम तीन नाबालिगों को भी सजा दी गई थी.
क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान कई सामाजिक और आर्थिक सुधार कर सऊदी अरब को आधुनिक बनाने में लगे हुए हैं. 25 अप्रैल को ही देश ने कोड़े मारने की सजा खत्म कर दी थी. कोड़े की सजा के बदले दोषियों के लिए जेल या फिर आर्थिक सजा का प्रावधान किया गया है. इसके पहले अदालतों को यह अधिकार था कि वे कई तरह के जुर्म के दोषी पाए जाने वालों को कोड़ों की सजा सुना सकती थीं. पत्रकार जमाल खशोगी की हत्या और एक्टिविस्टों को लेकर सऊदी अरब के रवैये की आलोचना होती रही है.
भारत में राजद्रोह के नाम पर हुई गिरफ्तारियों से इसकी परिभाषा और इससे जुड़े कानून की ओर ध्यान खिंचा है. आइए देखें कि भारतीय कानून व्यवस्था में राजद्रोह का इतिहास कैसा रहा है.
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भारतीय दंड संहिता यानि आईपीसी के सेक्शन 124-A के अंतर्गत किसी पर राजद्रोह का आरोप लग सकता है. ब्रिटिश औपनिवेशिक काल की सरकार ने 19वीं और 20वीं सदी में राष्ट्रवादी असंतोष को दबाने के लिए यह कानून बनाए थे. खुद ब्रिटेन ने अपने देश में राजद्रोह कानून को 2010 में समाप्त कर दिया.
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सेक्शन 124-A के अनुसार जो भी मौखिक या लिखित, इशारों में या स्पष्ट रूप से दिखाकर, या किसी भी अन्य तरीके से ऐसे शब्दों का प्रयोग करता है, जो भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के लिए घृणा या अवमानना, उत्तेजना या असंतोष पैदा करने का प्रयास करे, उसे दोषी सिद्ध होने पर उम्रकैद और जुर्माना या 3 साल की कैद और जुर्माना या केवल जुर्माने की सजा दी जा सकती है.
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"देश विरोधी" नारे और भाषण देने के आरोप में हाल ही में दिल्ली की जेएनयू के छात्रों, दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर एसएआर गिलानी से पहले कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी, लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता अरुंधती रॉय, चिकित्सक और एक्टिविस्ट बिनायक सेन जैसे कई लोगों पर राजद्रोह का आरोप लगा.
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सन 1837 में लॉर्ड टीबी मैकॉले की अध्यक्षता वाले पहले विधि आयोग ने भारतीय दंड संहिता तैयार की थी. सन 1870 में ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने सेक्शन 124-A को आईपीसी के छठे अध्याय में जोड़ा. 19वीं और 20वीं सदी के प्रारम्भ में इसका इस्तेमाल ज्यादातर प्रमुख भारतीय राष्ट्रवादियों और स्वतंत्रता सेनानियों के लेखन और भाषणों के खिलाफ हुआ.
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पहला मामला 1891 में अखबार निकालने वाले संपादक जोगेन्द्र चंद्र बोस का सामने आता है. बाल गंगाधर तिलक से लेकर महात्मा गांधी तक पर इस सेक्शन के अंतर्गत ट्रायल चले. पत्रिका में छपे अपने तीन लेखों के मामले में ट्रायल झेल रहे महात्मा गांधी ने कहा था, "सेक्शन 124-A, जिसके अंतर्गत मुझ पर आरोप लगा है, आईपीसी के राजनीतिक वर्गों के बीच नागरिकों की स्वतंत्रता को दबाने के लिए रचे गए कानूनों का राजकुमार है."
सन 1947 में ब्रिटिश शासन से आजादी मिलने के बाद से ही मानव अधिकार संगठन आवाजें उठाते रहे हैं कि इस कानून का गलत इस्तेमाल अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ किए जाने का खतरा है. सत्ताधारी सरकार की शांतिपूर्ण आलोचना को रोकना देश में भाषा की स्वतंत्रता को ठेस पहुंचा सकता है.
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सन 1962 के एक उल्लेखनीय 'केदार नाथ सिंह बनाम बिहार सरकार' मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कानून की संवैधानिकता को बरकरार रखने का निर्णय लिया था. हालांकि अदालत ने ऐसे भाषणों या लेखनों के बीच साफ अंतर किया था जो “लोगों को हिंसा करने के लिए उकसाने वाले या सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने की प्रवृत्ति वाले हों.”
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आलोचक कहते आए हैं कि देश की निचली अदालतें सुप्रीम कोर्ट के फैसले को नजरअंदाज करती आई हैं और राज्य सरकारों ने समय समय पर मनमाने ढंग से इस कानून का गलत इस्तेमाल किया है. भविष्य में इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए कुछ लोग केंद्र सरकार से सेक्शन 124-A की साफ, सटीक व्याख्या करवाने, तो कुछ इसे पूरी तरह समाप्त किए जाने की मांग कर रहे हैं.