एक असली मानव भ्रूण के शुरुआती विकास को समझने में कई तरह की नैतिक और कानूनी अड़चनें रहती हैं. इसलिए वैज्ञानिकों ने पहली बार लैब में उसका मॉडल बनाया.
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अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में वैज्ञानिकों ने पेट्री डिशों में इंसान के भ्रूण का पहला पूर्ण मॉडल बनाया है. इस बारे में साइंस जर्नल नेचर ने रिपोर्ट छापी है. रिपोर्ट में लिखा गया है कि ऐसे दो अध्ययनों में मानव के असली भ्रूण से स्टेम सेल को निकाल कर पेट्री डिशों में रख कर उसे सही माहौल दिया गया. वयस्क ऊतकों से निकली ये स्टेम कोशिकाएंअपने आप पुन:व्यवस्थित होकर मानव भ्रूण जैसी बन गईं. मानव भ्रूण के शुरुआती विकास के चरणों में वह जो संरचना बनाता है उसे ब्लास्टोसिस्ट कहते हैं. रिसर्चरों ने पेट्री डिश में ऐसे ही ब्लास्टोसिस्ट या 'ब्लास्टॉइड' जैसे मॉडल बनाए हैं.
यह पहला मौका है जब इंसान के भ्रूण के हर एक हिस्से जैसी संरचना इस मॉडल भ्रूण में भी देखी गई है. अब तक रिसर्चरों को मानव भ्रूण के शुरुआती विकास को ठीक से समझने के लिए एक असली भ्रूण पाने में बहुत कठिनाई आती है. क्योंकि इसमें कई तरह की नैतिक और कानूनी अड़चनें आती हैं. इस तरह के मॉडल के विकास से यह काम आसान हो जाएगा.
स्टडी में कहा गया है कि इससे गर्भ में पल रहे बच्चे के विकास को समझने, गर्भपात रोकने, जन्मजात कमियों को समझने और उन्हें दूर करने और बच्चे की चाह रखने वाले असमर्थ जोड़ों की ज्यादा मदद की जा सकेगी. लेकिन इसके लिए मानव ब्लास्टॉइड बनाने की प्रक्रिया को बड़े स्तर पर दोहराने के रास्ते खोजने होंगे.
भ्रूण पर रिसर्च में कैसी रुकावटें
एक मानव भ्रूण पाना हमेशा ही सबसे कठिन रहा है. मानव भ्रूण को लेकर मौजूदा अंतरराष्ट्रीय सहमति और राष्ट्रीय कानून ऐसे हैं जिनमें कई कानूनी और नैतिक अड़चनें हैं. इनके अनुसार, आईवीएफ के जरिए बच्चा पाने की कोशिश करने वालों के लिए भ्रूण विकास का काम अंडे और स्पर्म को मिला कर फर्टिलाइजेशन कराने के केवल 14 दिनों तक ही किया जा सकता है. इस अवधि के बाद उसे कल्चर करने पर रोक है. इस पर स्टडी रिपोर्ट के लेखकों में शामिल एक ऑस्ट्रेलियाई रिसर्चर ने लिखा है, "जो '14-दिन वाले नियम' इन-विट्रो मॉडलों पर लागू होते हैं उनमें उन भ्रूणों की बात नहीं है जो बिना फर्टिलाइजेशन के तैयार किए गए हों." लेकिन टीम के रिसर्चरों ने नियमों की सीमा में रहते हुए केवल पांच दिन तक ही ब्लास्टॉइड को कल्चर किया.
जानवरों की सुनने की अद्भुत तकनीक
विकास के दौर में इंसान ने सुनने के कुछ तरीके खो दिए हैं. वे ध्वनि की फ्रीक्वेंसियों को हाथी या चमगादड़ों की तरह नहीं सुन सकते. ना ही हम बिल्लियों की तरह अपने कान हिला सकते हैं. हालांकि इंसान ने सुनने की क्षमता बढ़ाई है.
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खरगोश अपने कानों को 270 डिग्री तक घुमा सकते हैं
खरगोश अपने कानों को आवाज की तरफ केंद्रित कर सकते हैं. कान घुमाने की क्षमता उन्हें शिकारियों से बचने में मदद देता है. खरगोश के कान देखकर हम उनके बारे में भी बहुत कुछ बता सकते हैं. कान यदि खड़े हों तो इसका मतलब है कि वे बड़े ध्यान से कुछ सुन रहे हैं. यदि एक कान ऊपर हो और दूसरा नीचे, तो खरगोश आराम से कुछ सुन रहा होता है. एक ही स्थिति में कानों को अलग करना उनके डरने का संकेत है.
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बड़े चौकस होते हैं बिल्ली और कुत्ते
कुत्ते इंसान की तुलना में ज्यादा ऊंची फ्रीक्वेंसियों को सुन सकते हैं. यही कारण है कि जब आपको कुछ महसूस नहीं होता तब भी आपका कुत्ता प्रतिक्रिया देता है. कुत्ते अजनबी लोगों की आहट को अपने मालिक की आहट से अलग कर सकते हैं. बिल्ली के कान और भी ज्यादा संवेदनशील होते हैं. कुत्तों में कान की 18 मांसपेशियां होती हैं, बिल्लियों की 30. तो, बिल्ली के पास चुपके से जाने की कोशिश बेकार है.
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चमगादड़ करते हैं अल्ट्रासोनिक ध्वनि तरंगों का इस्तेमाल
चमगादड़ रात की उड़ानों के दौरान रास्ता पता करने के लिए इकोलोकेशन पर भरोसा करते हैं. वे अपने मुंह से अल्ट्रासोनिक ध्वनि तरंगों को बाहर भेजते हैं, फिर उसकी गूंज वापस लौटकर आती है. चमगादड़ इस तरीके का इस्तेमाल वस्तुओं के आकार और उसकी जगह को निर्धारित करने और घुप्प अंधेरे में खाने की तलाश में करते हैं. चमगादड़ के कान में 20 मांसपेशियां होती हैं, जिनसे वे कान का आकार और दिशा बदलकर गूंज सुन सकते हैं.
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सबसे अच्छा सुनने वाला जानवर किसी काम का नहीं
शिकार और शिकारियों के बीच लंबे समय से चली आ रही दौड़ में, बड़े पतंगे चमगादड़ों से बचने में कामयाब रहे हैं. ऐसा उन्होंने अल्ट्रासाउंड ध्वनि सुनने वाले अपने कान विकसित कर किया है. जानवरों की दुनिया में वे ऐसे जीव हैं जो उच्चतम फ्रीक्वेंसी की आवाज सुनने के काबिल हैं. यह इंसानों की तुलना में 150 गुना बेहतर है. वे चमगादड़ की तुलना में 100 हर्ट्ज से ज्यादा की फ्रीक्वेंसी वाली ध्वनि भी सुन सकते हैं.
जब झींगुर, टिड्डे और पतंगे अपने शिकारियों की अल्ट्रासोनिक तरंगों को सुनते हैं तो वे उनसे बचने के लिए फौरन भाग जाते हैं. शिकारी दूर हों तो वे भाग जाते हैं, करीब हों तो या आड़ा तिरछा या लूपिंग पैटर्न में उड़ने लगते हैं. कुछ टिड्डे और झींगुर शिकारियों को डराने के लिए टिकटिक की आवाज भी निकालते हैं.
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जीवित पनडुब्बियों जैसी है व्हेल
अंडरवाटर सोनार ध्वनि इकोलोकेशन तकनीकों पर ही आधारित है. चमगादड़ और व्हेल रात में या गहरे अंधेरे में महासागर में रास्ता खोजने के लिए इसका उपयोग करते हैं. पनडुब्बियों की ही तरह, व्हेल भी ध्वनि तरंगों और ध्वनि परावर्तन का इस्तेमाल कर भोजन खोजती हैं. व्हेल की सीटी और क्लिक के बारे में कहते हैं कि वह उन्हें दुनिया का 3 डी परिदृश्य देती है और दो व्हेलों के बीच संचार में भी अहम होती है.
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जबड़े के माध्यम से सुनती है डॉल्फिन
डॉल्फिन के कान होते हैं. लेकिन वे समुद्र में तैरने के लिए चमगादड़ की ही तरह इकोलोकेशन जैसे एक मेकेनिज्म का इस्तेमाल करती हैं. वे अपने माथे से सोनिक कंपन पैदा करती हैं. समुद्र में मौजूद पानी और दूसरे जीवों से टकरा कर इन कंपनों का परावर्तन होता है और फिर डॉल्फिन के जबड़े और दांतों में मौजूद ध्वनि रिसेप्टर्स उसे समझते हैं. आपने सही पढ़ा, सुनने के लिए कानों का होना जरूरी नहीं है.
तस्वीर: picture-alliance/WILDLIFE/W. Peolzer
हाथियों को तूफान का पता लग जाता है
अपने विशाल कानों की मदद से हाथी बारिश से पहले बादलों के इकट्ठा होने की आवाज सुन सकते हैं. हाथियों को इंफ्रासाउंड की लहरों का पता चल जाता है. यह कम फ्रीक्वेंसी वाली ध्वनि होती है जिसे इंसान नहीं सुन सकता. वे अपने पैरों की तंत्रिका का इस्तेमाल कर धरती के कंपन को भी सुन सकते हैं. कुछ जानवरों के शरीर के कुछ हिस्सों पर रिसेप्टर होते हैं जो कंपन और ध्वनि तरंगों को तंत्रिका तंत्र तक पहुंचाते हैं.
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प्रकृति का निगरानी कैमरा हैं उल्लू
उल्लू ना केवल रात को अच्छी तरह देख सकते हैं बल्कि वे अपने सिर को 360 डिग्री घुमा भी सकते है. इसके अलावा उनके पास सुनने की शानदार क्षमता क्षमता होती है. उल्लुओं के कान विषम होते हैं, इसलिए जब वे उड़ते हैं तो एक कान ऊपर से आवाज सुनता है जबकि दूसरा नीचे से आने वाली आवाज सुनता है. रात को अच्छी तरह देख सकने की क्षमता और उसके साथ सुनने की इस बेहतरीन प्रणाली का अर्थ है कि उनका शिकार उनसे बच नहीं सकता.
तस्वीर: DW
कुछ नेत्रहीन लोग चमगादड़ की तरह रास्ता खोजते हैं
कुछ नेत्रहीन इंसान अपने आसपास का पता करने के लिए ध्वनि की गूंज का सहारा लेते हैं. ऐसा करने का एक तरीका यह है कि वे अपने मुंह से क्लिक क्लिक की आवाज निकालते हैं और फिर कमरे के आकार या दीवार या बाड़ की दूरी का अनुमान लगाने के लिए उसकी गूंज सुनते हैं. कुछ लोग तो इकोलोकेशन का इस्तेमाल कर अपने आसपास के माहौल के बारे में बता भी सकते हैं.
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दूसरी ओर, न्यू यॉर्क में इकान स्कूल ऑफ मेडिसिन में स्टेम सेल के बारे में पढ़ाने वाले प्रोफेसर थॉमस स्वाका कहते हैं कि इस तरीके से बने वैकल्पिक मॉडल उपलब्ध होने से रिसर्चरों को असली भ्रूणों का इंतजार नहीं करना पड़ेगा और उन पर नियम-कानूनों का दबाव भी कम होगा. वह कहते हैं, "अभी भी मानव के प्रारंभिक विकास के स्तर पर होने वाले बदलावों से जुड़ूी इतनी सारी बातें रहस्य बनी हुई हैं, जिनसे शरीर की तमाम गतिविधियों, अंगों और बीमारियों के बारे में समझा जा सकता है." जर्मनी के साइंस मीडिया सेंटर से बातचीत में स्वाका ने बताया कि "ब्लास्टॉइड जैसे तरीकों की तत्काल जरूरत है, जिससे ऐसे तमाम राज खोले जा सकें."
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कैसे बनता है इंसान का भ्रूण
इंसान में फर्टिलाइजेशन के कुछ दिनों के बाद अंडा ब्लास्टोसिस्ट नाम की संरचना बनाता है. इसकी बाहरी परत ट्रोफेक्टोडर्म कहलाती है और उसके अंदर इनर सेल मास सुरक्षित होता है. जैसे जैसे ब्लास्टोसिस्ट विकसित होता जाता है, वैसे वैसे अंदर का पदार्थ दो तरह की कोशिकाओं के समूह में बंट जाता है - इन्हें इपीब्लास्ट और हाइपोब्लास्ट कहते हैं.
इसके बाद ब्लास्टोसिस्ट जाकर गर्भाशय के ऊत्तकों पर जाकर चिपक जाता है और आगे का विकास वहीं दीवार से जुड़ कर होता है. इसके बाद यहीं इपीब्लास्ट की कोशिकाओं के विकास से आगे चलकर पूरा भ्रूण बनता है. दूसरी तरफ ट्रोफेक्टोडर्म आगे चलकर पूरा प्लेसेंटा बनाता है और हाइपोब्लास्ट से उस झिल्ली का निर्माण होता है, जिससे बढ़ते भ्रूण को खून की सप्लाई मिलती है.
विज्ञान के लिए एक अहम कदम
अमेरिकी और ऑस्ट्रेलियाई वैज्ञानिकों ने देखा कि 6 से 8 दिन के कल्चर के बाद मानव ब्लास्टॉइड्स बने. यह ब्लास्टॉइड आकार में प्राकृतिक ब्लास्टोसिस्ट के बराबर थे और उनमें कोशिकाओं की संख्या भी उतनी ही थी. उनमें भी खाली जगह और इनर सेल मास जैसे कोशिकाओं के गुच्छे थे.
इसके बाद रिसर्चरों ने पाया कि जब इन ब्लास्टॉइड को पेट्री डिश में प्लांट किया गया तो कैसे उन्होंने वैसा ही व्यवहार किया जैसा वे गर्भाशय की दीवार पर चिपकने पर करते हैं. असली ब्लास्टोसिस्ट की ही तरह जब इन्हें चार-पांच दिन तक बढ़ने दिया गया तो उनमें भी प्लेसेंटा की कोशिकाओं और प्रो-एम्नियॉटिक कैविटी बनने के शुरुआती लक्षण दिखने लगे. इस चरण पर भ्रूण के कल्चर को रोक दिया गया.
वियना में इंस्टीट्यूट ऑफ मॉलिक्यूलर बायोटेक्नॉलजी के रिसर्चर निकोलास रेवरॉन ने साइंस मीडिया सेंटर से बातचीत में कहा, "इसमें सबसे अहम बात यह रही जो ब्लास्टॉइड भ्रूण की तीन तरह की कोशिकाएं बना पाए - ट्रोफेक्टोडर्म, इपीब्लास्ट और हाइपोब्लास्ट लेकिन कई कोशिकाएं उससे अलग भी थीं." नई खोज के इस पहलू को भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि ऐसे अध्ययन फिलहाल काफी सीमित हैं.