वैज्ञानिकों ने मानव जीनोम के हर हिस्से का पता लगा लिया
रजत शर्मा
१ अप्रैल २०२२
साल 2003 में पूरे हुए ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट में 92% जीनोम का पता चल पाया था. अब 100% जानकारी होने पर कई जेनेटिक बीमारियों का पता लगाया जा सकेगा.
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वैज्ञानिकों ने मानव जीनोम का पहला पूर्ण सीक्वेंस बना लिया है. अब दुनिया की आठ अरब आबादी में जेनेटिक (अनुवांशिक) भिन्नता और म्यूटेशन (उत्परिवर्तन) से होने वाली बीमारियों का पता लगाना आसान हो जाएगा. जीनोम से ही तय होता है कि किसका शरीर कैसा होगा और कैसे काम करेगा. अगर इसमें हल्का सा भी परिवर्तन हो जाए तो कई जन्मजात समस्याएं हो सकती हैं.
इस सफलता से पहले साल 2003 में वैज्ञानिकों ने ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट के तहत, मानव जीनोम का पूरा सीक्वेंस बनाने का ऐलान किया था. लेकिन उस वक्त वे जीनोम का करीब 8 फीसदी हिस्सा पढ़ नहीं पाए थे. ताजा शोध और 2003 के ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट में काम कर चुके अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ वॉशिंगटन के वैज्ञानिक इवान आइशलर ने बताया कि "कुछ जीन जो हमें खास तौर पर मानव बनाते हैं, वो जीनोम के डार्क मैटर (जिस हिस्से के बारे में कम जानकारी हो) में थे, और वो गायब थे. हमें 20 से ज्यादा साल जरूर लगे, लेकिन हमने उनका पता लगा लिया." यह शोध पिछले साल पूरा हो गया था. पीयर रीव्यू (विद्वत समीक्षा) के बाद यह 'साइंस' जर्नल के अप्रैल 2022 अंक में प्रकाशित हुआ है.
इससे क्या फायदा होगा?
वैज्ञानिकों के मुताबिक, जीनोम के बारे में पूरी जानकारी से मानवीय उद्भव और जीव विज्ञान की समझ बढ़ेगी. इसके अलावा बढ़ती उम्र, नर्वस सिस्टम (तंत्रिका तंत्र), कैंसर और हृदय संबंधी बीमारियों के आकलन में मदद मिलेगी. इस प्रोजेक्ट में शामिल वैज्ञानिक केरन मिगा ने कहा कि "हम इंसानी बीमारियों को समझने के मौकों को बढ़ा रहे हैं."
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इस रिसर्च को फंड मुहैया करवाने वाली अमेरिका की सरकारी संस्था- नेशनल ह्यूमन जीनोम रिसर्च इंस्टीट्यूट (एनएचजीआरआई) के निदेशक एरिक ग्रीन ने इसे "अद्वितीय वैज्ञानिक प्राप्ति" बताया है. उन्होंने कहा, "एक सही और पूर्ण मानव जीनोम सीक्वेंस हमारे डीएनए ब्लूप्रिंट का एक व्यापक दृष्टिकोण देगा. यह बुनियादी जानकारी मानव जीनोम की हर क्रियाशील बारीकी को समझने के लिए किए जा रहे प्रयासों में मदद देगी. जिससे मानवी बीमारियों पर हो रहे जेनेटिक शोधों को मदद मिलेगी."
किन्होंने की खोज
यह अमेरिका के कई वैज्ञानिक संस्थानों का साझा प्रयास है. नेशनल ह्यूमन जीनोम रिसर्च इंस्टीट्यूट (अमेरिका), यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, यूनिवर्सिटी ऑफ वॉशिंगटन ने मिलकर एक वैज्ञानिक संघ बनाया. नाम दिया गया टीलोमर टू टीलोमर (टी2टी). टीलोमर एक धागे जैसी संरचना होती है जो जेनेटिक जानकारी रखने वाले गुणसूत्रों (क्रोमसोम) के किनारों पर होती है.
टी2टी के वरिष्ठ सदस्य और एनएचजीआरई में वैज्ञानिक एडम फिलिप्पी ने इस मौके पर कहा कि "आने वाले भविष्य में जब हम किसी का जीनोम सीक्वेंस करेंगे तो, हम बता पाएंगे कि उनके डीएनए में क्या-क्या अलग है और इससे उनकी स्वास्थ्य देखभाल बेहतर तरीके से की जा सकेगी." उन्होंने कहा, "मानव जीनोम को पूरी तरह से सीक्वेंस करना बिल्कुल नया चश्मा पहनने जैसा है. क्योंकि अब हमें सब कुछ साफ-साफ दिख रहा है, तो हम इनका काम पता लगाने के एक कदम और नजदीक पहुंच गए हैं."
8% पूरा करने में क्यों लगे 20 साल
2003 में जब ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट पूरा हुआ तो वैज्ञानिक 92% जीनोम सीक्वेंस बना चुके थे. टी2टी के मुताबिक, बचे हुए आठ प्रतिशत हिस्से को बनाने में 20 साल लगने के पीछे 3 बड़े कारण रहे.
1. आकार: हमारे शरीर में करीब 3.055 अरब बेस पेयर(A, C, G, T) होते हैं. सरल शब्दों में इन्हें भाषा का वर्ण भी कह सकते हैं. अगर इन्हें पढ़ने लायक 12 साइज फोंट में छापा जाए तो इसकी लंबाई करीब 2580 किलोमीटर होगी यानी दिल्ली से चेन्नई तक की दूरी से भी ज्यादा. इतने लंबे सीक्वेंस को प्रोसेस कर पाना, आज के समय में मौजूद तकनीक के लिए भी आसान नहीं है.
2. पेचीदगी: हमारी जीनोम के कुछ हिस्से बार-बार खुद को दोहराते हैं. इतने सालों में बेहतर हुई तकनीक से इन दोहरे हिस्सों को पहचानना आसान हुआ है.
3. लागत: 2003 में आए नतीजों के बाद इस दिशा में काम होने लगा. नतीजतन डीएनए सीक्वेंसिंग की लागत कम हुई. जो काम पहले लाखों डॉलर में हुआ करता था, वो अब कुछ हजार में होने लगा. इसके अलावा जेनेटिक सीक्वेंसिंग के लिए ताकतवर कंप्यूटरों की जरूरत होती है. बीते दशकों में ही कंप्यूटर तकनीक बेहतर हुई है.
इसके अलावा इस प्रोजेक्ट में शामिल वैज्ञानिक कई अलग-अलग संस्थानों से जुड़े थे. सभी जगह काम को एक स्तर पर रखना भी एक मानवीय चुनौती रहती है.
फिंगरप्रिंट का सबक: अनोखा है हर इंसान
125 साल पहले अर्जेंटीना के अपराध विज्ञानियों ने कैदियों के फिंगरप्रिंट लिये. तब से अब तक कैसा रहा है पहचान और शिनाख्त की वैज्ञानिक दुनिया का सफर.
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125 साल बाद भी आधुनिक
1891 में अर्जेंटीना के अपराध विज्ञानी खुआन वुसेटिच ने मॉर्डन स्टाइल फिंगरप्रिंट आर्काइव बनाना शुरू किया. तब से फिंगरप्रिंट को अहम सबूत के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है. इस तस्वीर में चोरी के बाद पुलिस अफसर दरवाजे के हैंडल को साफ कर रहा है, ताकि फिंगरप्रिंट साफ दिखाई पड़ें.
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सहेजना और तुलना करना
मौके से फिंगरप्रिंट जुटाने के लिए एक चिपचिपी फिल्म का इस्तेमाल किया जाता है. अचूक ढंग से फिंगरप्रिंट जुटाने में कई घंटे लग जाते हैं. एक बार फिंगरप्रिंट जुटाने के बाद जांचकर्ता उनकी तुलना रिकॉर्ड में संभाले गए निशानों से करते हैं. इन दिनों तेज रफ्तार कंप्यूटर ये काम बड़ी तेजी से कर देते हैं.
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स्याही की जरूरत नहीं
पहले फिंगरप्रिंट जुटाना बहुत ही मुसीबत भरा काम होता था, स्याही से हाथ भी गंदे हो जाते थे. लेकिन अब स्कैनर ने स्याही की जगह ले ली है. स्कैन करती ही डाटा सीधे बायोमैट्रिक डाटा बैंक को भेज दिया जाता है.
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क्यों खास है फिंगरप्रिंट
कंप्यूटर अंगुली की बारीक लाइनों और उनके पीछे के उभार को पहचान लेता है. अंगुली के केंद्र से अलग अलग लाइनों की मिलीमीटर के बराबर छोटी दूरी, उनकी घुमावट, उनकी टूटन सब दर्ज हो जाती है. दो लोगों के फिंगरप्रिंट कभी एक जैसे नहीं हो सकते, भले ही वे हूबहू दिखने वाले जुड़वा क्यों न हों.
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कहां कहां इस्तेमाल
नाइजीरिया में चुनावों में धांधली रोकने के लिए अधिकारियों ने फिंगरप्रिंट स्कैनर का इस्तेमाल किया. यही वजह है कि सिर्फ रजिस्टर्ड वोटर ही वोट डाल पाए वो भी सिर्फ एक बार.
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कौन कहां से कब आया
शरणार्थी संकट का सामना करते यूरोप में भी अधिकारी फिंगरप्रिंट का सहारा ले रहे हैं. यूरोपीय संघ के जिस भी देश में शरणार्थी पहली बार पहुंचेगा, उसका फिंगरप्रिंट वहीं लिया जाएगा. फिंगरप्रिंट लेने के लिए स्थानीय पुलिसकर्मियों को ट्रेनिंग दी गई है, उन्हें स्कैनर भी दिये गए हैं.
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ये मेरा डाटा है
अब कई स्मार्टफोन फिंगरप्रिंट डिटेक्शन के साथ आ रहे हैं. आईफोन और सैमसंग में टच आईडी है. फोन को सिर्फ मालिक ही खोल सकता है, वो भी अपनी अंगुली रखकर. अगर फोन खो जाए या चोरी भी हो जाए तो दूसरे शख्स को फोन का डाटा नहीं मिल सकता.
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ATM बैंकिंग
स्कॉटलैंड के डुंडी शहर में ऑटोमैटिक टेलर मशीन (एटीएम). इस मशीन से सिर्फ असली ग्राहक पैसा निकाल सकते हैं. फिंगरप्रिंट के जरिये मशीन कस्टमर की बायोमैट्रिक पहचान करती है. यह मशीन फर्जीवाड़े की संभावना को नामुमकिन कर देती है.
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पासपोर्ट की सेफ्टी
जर्मनी समेत कई देशों ने 2005 से पासपोर्ट में डिजिटल फिंगरप्रिंट डाल दिया. पासपोर्ट में एक RFID (रेडियो फ्रीक्वेंसी कंट्रोल्ड आईडी) चिप होती है. चिप के भीतर बायोमैट्रिक फोटो होती है, यह भी फिंगरप्रिंट की तरह अनोखी होती है.
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चेहरे की बनावट से पहचान
फेशियल रिकॉगनिशन सॉफ्टवेयर भी पहचान को बायोमैट्रिक डाटा में बदलता है. कंप्यूटर और उससे जुड़े कैमरे की मदद से संदिग्ध को भीड़ में भी पहचाना जा सकता है. इंटरनेट और कंप्यूटर कंपनियां भी अब फेशियल रिकॉगनिशन सॉफ्टवेयर का काफी इस्तेमाल कर रही हैं.
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जेनेटिक फिंगरप्रिंट के जनक
एलेक जेफ्रीज ने 1984 में किसी संयोग की तरह डीएनए फिंगरप्रिंटिंग की खोज की. उन्होंने जाना कि हर इंसान के डीएनए का पैटर्न भी बिल्कुल अलग होता है. डीएनए फिंगरप्रिंटिंग की उन्होंने एक तस्वीर तैयार की जो बारकोड की तरह दिखती है.
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हर इंसान के लिये बारकोड
जर्मनी की फेडरल क्रिमिनल पुलिस ने 1998 से अपराधियों का डीएनए फिंगरप्रिंट बनाना शुरू किया. जेनेटिक फिंगरप्रिंट की मदद से जांचकर्ता अब तक 18,000 से ज्यादा केस सुलझा चुके हैं.
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निर्दोष की मदद
परिस्थितिजन्य सबूतों या वैज्ञानिक सबूतों के अभाव में कई बार निर्दोष लोग भी फंस जाते हैं. घटनास्थल की अच्छी जांच और बायोमैट्रिक पहचान की मदद से निर्दोष लोग झेमेले से बचते हैं. किर्क ब्लड्सवर्थ के सामने नौ साल तक मौत की सजा खड़ी रही. अमेरिका में डीएनए सबूतों की मदद से 100 से ज्यादा बेकसूर लोग कैद से बाहर निकले.
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पीड़ित परिवारों को भी राहत
डीएनए फिंगरप्रिंटिंग का पहली बार बड़े पैमाने पर इस्तेमाल स्रेब्रेनित्सा नरसंहार के मामले में हुआ. सामूहिक कब्रों से शव निकाले गए और डीएनए तकनीक की मदद से उनकी पहचान की गई. डीएनए फिंगरप्रिंट को परिजनों से मिलाया गया. पांच साल की एमा हसानोविच को तब जाकर पता चला कि कब्र में उनके अंकल भी थे. 6,000 मृतकों की पहचान ऐसे ही की गई.
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फोन और कंप्यूटर में बायोमैट्रिक डाटा
बायोमैट्रिक डाटा के मामले में काफी काम हो रहा है. वैज्ञानिक अब आवाज के पैटर्न को भी बायोमैट्रिक डाटा में बदलने लगे हैं. वॉयस रिकॉगनिशन सॉफ्टवेयर की मदद से धमकी देने वालों को पहचाना जा सकता है. फिंगरप्रिंट की ही तरह हर इंसान के बोलने के तरीका भी अलग होता है. मुंह से निकलती आवाज कई तरंगों का मिश्रण होती है और इन्हीं तरंगों में जानकारी छुपी होती है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/A. Warmuth (
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आगे की राह
मानव शरीर में कुल करीब 30 हजार जीन होती हैं. क्रोमोसोम नाम के 23 समूहों में बंटे यह जीन हर सेल के न्यूक्लियस में पाए जाते हैं. इनमें से 19,969 जीन प्रोटीन बनाते हैं, जो मानव शरीर में होने वाली प्रक्रियाओं की बुनियाद है. टी2टी को नए शोध में 2000 नए जीन भी मिले हैं. इनमें से ज्यादातर का असर नहीं दिखता है. वैज्ञानिकों ने करीब 20 लाख नए जेनेटिक वैरियंट भी खोजे हैं, जिनमें से 622 उन जीनों से जुड़े हैं, जिनका असर हमारे स्वास्थ्य पर होता है.
वैज्ञानिकों का अगला कदम होगा कि इन जीनों में विविधता के पैटर्न का पता लगाया जा सके. टी2टी संघ से जुड़े वैज्ञानिकों के मुताबिक, मानवीय विविधता को दर्शाते 350 से ज्यादा लोगों के डीएनए का टेंप्लेट बनाना उनका अगला लक्ष्य है. ताकि मानव शरीर से जुड़ी हर तरह की विविधता उन्हें मालूम हो.