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‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ से आरएसएस को क्या दिक्कत है

समीरात्मज मिश्र
२७ जून २०२५

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस के महासचिव दत्तात्रेय होसबोले ने संविधान की प्रस्तावना से 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द हटाने पर विचार करने की मांग उठाकर यह बहस एक बार फिर छेड़ दी है.

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के महासचिव ने भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता और समाजवादी शब्द पर सवाल उठाए हैंतस्वीर: Ayush Yadav/DW

आपातकाल के पचास साल पूरे होने पर आयोजित एक कार्यक्रम में आरएसएस महासचिव दत्तात्रेय होसबोले ने कहा कि इमरजेंसी के दौरान संविधान में धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द जोड़े गए थे, जो मूल प्रस्तावना का हिस्सा नहीं थे. उन्होंने कहा कि इन शब्दों को बाद में हटाया नहीं गया लेकिन इन शब्दों को रहना चाहिए या नहीं, इस पर बहस होनी चाहिए. उन्होंने यह भी कहा कि ये दो शब्द डॉक्टर आंबेडकर के संविधान में नहीं थे.

होसबोले के इस बयान पर भारत की राजनीति में खूब बहस हो रही है. कांग्रेस पार्टी के आधिकारिक सोशल मीडिया अकाउंट पर कहा गया है, "लोकसभा चुनाव में तो बीजेपी के नेता खुलकर कह रहे थे कि हमें संविधान बदलने के लिए संसद में 400 से ज्यादा सीटें चाहिए. अब एक बार फिर वे अपनी साजिशों में लग गए हैं, लेकिन कांग्रेस किसी कीमत पर इनके मंसूबों को कामयाब नहीं होने देगी.”

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आखिर दत्तात्रेय होसबोले ये बात क्यों कह रहे हैं और क्या समाजवादी और पंथनिरपेक्ष यानी सोशलिस्ट और सेक्युलर शब्द संविधान की प्रस्तावना से निकाले जा सकते हैं?

दरअसल, संविधान की मूल प्रस्तावना जिसे संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को स्वीकार किया था उसमें ‘समाजवादी' और ‘पंथनिरपेक्ष' शब्द नहीं थे. आपातकाल के दौरान 1976 में 42वें संविधान संशोधन के जरिए प्रस्तावना में समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और अखंडता शब्द शामिल किए गए. यानी मूल प्रस्तावना में भारत को ‘संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य' की जगह ‘संप्रभु, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, गणराज्य' बनाने की बात कही गई और साथ ही ‘राष्ट्र की एकता' की जगह ‘राष्ट्र की एकता और अखंडता' कर दिया गया.

इस संशोधन को लेकर विवाद आज भी जारी है. कुछ लोग इसे आपातकालीन राजनीति का हिस्सा मानते हैं, तो कुछ इसे संविधान की मौलिक भावना को ही शब्दों में ढालने की बात करते हैं.

भारत के संविधान में धर्मनिरपेक्षता और समाजवादी शब्द 1976 में संशोधन के जरिए डाले गए, तब देश में इमरजेंसी लगी थीतस्वीर: Aamir Ansari/DW

समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष तत्व पहले से ही हैं संविधान में

वास्तव में, भारतीय संदर्भ में ‘समाजवाद' का अर्थ एक ऐसी शासन व्यवस्था से है जिसमें संपत्ति और संसाधनों का न्यायसंगत वितरण हो, आर्थिक असमानता को दूर करने का प्रयास हो, वंचित वर्गों को सशक्त बनाने की बात हो और साथ ही न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था का निर्माण हो. यानी ना तो पूरी तरह पूंजीवाद हो और न ही पूरी तरह साम्यवाद हो बल्कि दोनों का समन्वय हो.

मूल संविधान में भी समाजवादी और पंथनिरपेक्ष मूल्यों को पहले से ही रखा गया है, 42वें संशोधन के जरिए प्रस्तावना में सिर्फ इन शब्दों का उल्लेख भर किया गया है.

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वास्तव में, पंथनिरपेक्ष शब्द के अंतर्निहित सिद्धांत पहले से ही संविधान के कई अनुच्छेदों में अंतरनिहित हैं. अनुच्छेद 25-28 तक जहां धर्म की स्वतंत्रता का प्रावधान करते हैं वहीं अनुच्छेद 14-15 के तहत मिले समानता के अधिकार में धार्मिक समानता का अधिकार भी संविधान में मिला हुआ है. धर्म के आधार पर भेदभाव को निषिद्ध किया गया है. इसके अलावा अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यकों को अपनी शैक्षणिक संस्थाएं चलाने का अधिकार देता है. यानी संविधान में धर्मनिरपेक्षता के तत्व और भावना पहले से ही निहित हैं.

संविधान का मूल ढांचा

यही नहीं, साल 1994 में एसआर बोम्मई मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी धर्मनिरपेक्षता को संविधान का मूल ढांचा माना है. ठीक इसी तरह संविधान में समाजवादी तत्व भी पहले से मौजूद थे. अनुच्छेद 38, 39, 43 के तहत समाजवाद के मूल तत्वों को व्यवहार में लाने की सलाह दी गई है. इसलिए 1976 में समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़ना केवल पहले से मौजूद नीतियों की पुष्टि भर थी.

दूसरी बात कि क्या इन शब्दों को वास्तव में संविधान से हटाया जा सकता है?

इसके साथ ही एक सवाल यह भी उठता है कि यदि इन दोनों शब्दों से इतनी आपत्ति थी तो इन्हें 1977 में आई जनता पार्टी की सरकार ने क्यों नहीं बदल दिया. उस वक्त 42वें संशोधन की तमाम चीजों को बदल दिया गया था. जानकारों का कहना है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की सरकार के कुछ सहयोगियों ने ही उस वक्त इन्हें हटाने से मना किया था क्योंकि उनके मुताबिक, इससे राजनीतिक रूप से काफी नुकसान होने की आशंका थी.

भारतीय संविधान तैयार करने में डॉ भीमराव अंबेडकर की भूमिका अहम थीतस्वीर: Aamir Ansari/DW

सुप्रीम कोर्ट का फैसला

 आरएसएस नेता की ओर से यह मांग तब आई है जब कुछ महीने पहले ही नवंबर 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों को प्रस्तावना से हटाने की मांग वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया था. कोर्ट ने कहा था कि ये शब्द संविधान की मूल संरचना का हिस्सा हैं और इन्हें हटाना संविधान की भावना के खिलाफ होगा.

यही नहीं, हटाने के लिए संविधान में विशेष बहुमत की जरूरत होगी जो मौजूदा सत्तारूढ़ पार्टी के पास नहीं है. विपक्षी दलों का कहना है कि यही सब करने के लिए तो बीजेपी ‘चार सौ पार' करने का मंसूबा पाले हुए थी पिछले लोकसभा चुनाव में. हालांकि चार सौ पार हो जाते तब भी ऐसा करना संभव नहीं था क्योंकि सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि ये शब्द संविधान के मूल ढांचे का भाग हैं.

वरिष्ठ पत्रकार शरद गुप्ता कहते हैं, "बात बहुमत की नहीं है. दरअसल, ये अपनी विचारधारा के पक्ष में जनमत बनाने की कोशिश की है. राम मंदिर का मामला देखिए. उन्हें पता था कि कहने से नहीं बन पाएगा, फिर भी 1989 से ही कहते चले आ रहे थे, और फिर बन गया. तो उन्हें पता है कि आज नहीं तो कभी तो आएगी दो तिहाई बहुमत और जब तक नहीं आएगी, तब तक इसके जरिए बहुमत पाने की कोशिशें जारी रहेंगी, अपनी विचारधारा मजबूत करने के लिए जनमत बनाने की कोशिश होती रहेगी.”

बीजेपी खुद समाजवादी

शरद गुप्ता कहते हैं कि वैसे तो बीजेपी के लोग खुद को भी समाजवादी मानते हैं कि पार्टी की स्थापना ही ‘गांधीवादी समाजवाद' के मूल्यों पर की गई थी लेकिन बीजेपी समाजवाद से संबंधित राजनीतिक पार्टियों से खुद को अलग दिखाना चाहती है.

सुप्रीम कोर्ट में इस संबंध में याचिकाएं खारिज होने के बावजूद यह बहस चलती रही कि इन शब्दों को हटाया जाना चाहिए, लेकिन यह मांग तक ही सीमित रही, इससे आगे कोई संवैधानिक प्रक्रिया नहीं चली.

भारत के संविधान में कई चित्र हैं जो उसके समावेशी चरित्र का ब्यौरा देते हैंतस्वीर: Facebook A/C von Gurdeep Singh Sappal

हालांकि कहा ये जाता है कि ये शब्द हटाए जाएं या ना हटाए जाएं लेकिन हिन्दू राष्ट्र बनाने की राह में प्रस्तावना में निहित ये दोनों शब्द सबसे बड़ा रोड़ा हैं, खासकर पंथनरिपेक्ष. इसीलिए बार-बार इनकी चर्चा होती रहती है. होसबोले ने सवाल उठाया है कि क्या समाजवाद कभी भारत की सभ्यतागत भावना के अनुरूप था? क्या धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा हमारे देश की संस्कृति और परंपराओं के साथ मेल खाती है? उन्होंने तर्क दिया है कि ये शब्द उस समय की राजनीतिक हालात का परिणाम थे और इन्हें संविधान में शामिल करना गैरजरूरी था.

संविधान की मूल भावना

वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार झा कहते हैं कि संविधान में शामिल किए गए ये शब्द और इनकी मूल भावनाएं आधुनिक भारत के दर्शन का प्रतिबिंब हैं जो लंबे स्वाधीनता संघर्ष के बाद बना है. उनके मुताबिक, "आधुनिक भारत का जो जन्म हुआ, उसकी मूल भावना स्वतंत्रता आंदोलन की थी जो समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष की भावना थी. संविधान की मूल भावना बराबरी, समानता और समता की है. इसे हटाया नहीं जा सकता. ये सिर्फ शब्द का मामला नहीं है. वास्तव में बीजेपी सेक्युलरिज्म और सोशलिज्म को कंसेप्चुअली खत्म करना चाहती है, जबकि उसे समझना चाहिए कि बिना इनके लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं. इन्हें खत्म करने का मतलब लोकतंत्र को खत्म करना है.”

संजय कुमार झा कहते हैं कि वास्तव में बीजेपी और आरएसएस ने संविधान को कभी स्वीकार ही नहीं किया और संविधान की मूल भावना से ये कभी सहमत ही नहीं रहे. उनके मुताबिक, आरएसएस ही नहीं बल्कि बीजेपी के भी कई बड़े नेता संविधान को बदलने की मांग अक्सर करते रहे.

वो कहते हैं, "अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बीजेपी जब पहली बार सरकार में आई तो सरकार ने संविधान समीक्षा आयोग बनाया लेकिन आयोग की सिफारिशों में भी यह मना कर दिया गया था और इन्हें गैर-जरूरी बता दिया था.”

संविधान को लेकर आरएसएस और बीजेपी की सोच चाहे जो रही हो लेकिन 2014 के बाद से ही बीजेपी संविधान से जुड़े मुद्दों पर बहुत सोच-समझकर बात करती है क्योंकि संविधान से जुड़े मुद्दे अक्सर उसके लिए राजनीतिक तौर पर नुकसानदायक साबित होते हैं. हाल ही में 2024 के लोकसभा चुनाव में उसके कुछ नेताओं ने संविधान बदलने की बातें कहकर विपक्ष को मौका दे दिया और बीजेपी उम्मीद से 160 सीटें नीचे चली आई.

2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के वक्त आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का ‘आरक्षण की समीक्षा' वाला बयान बीजेपी भला कैसे भूल सकती है. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बार-बार ‘संविधान का रक्षक और सम्मानकर्ता' होने का सबूत देना पड़ता है. ऐसे में संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए ‘समाजवाद' और ‘पंथनिरपेक्ष' शब्दों को हटाने की बहस की मांग कहां तक पहुंचेगी, यह कहना फिलहाल मुश्किल है. 

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