नेपाल में कोरोना महामारी के बीच आत्महत्या के मामले भी बढ़े हैं. पुलिस द्वारा जारी ताजा आंकड़ों के मुताबिक कोविड महामारी के बीच जुलाई के मध्य में, वित्तीय वर्ष 2020-21 में नेपाल में कुल 7,141 आत्महत्याएं दर्ज की गईं.
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आंकड़ों से पता चला है कि मरने वालों में 3,928 पुरुष, 2,449 महिलाएं और बाकी बच्चे थे. काठमांडू में त्रिभुवन यूनिवर्सिटी टीचिंग हॉस्पिटल में मनोचिकित्सा विभाग के प्रमुख सरोज प्रसाद ओझा ने देश में अधिक आत्महत्याओं के लिए महामारी के बीच मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को जिम्मेदार ठहराया.
ओझा के मुताबिक लगभग 90 प्रतिशत आत्महत्याएं चिंता और अवसाद जैसे मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों से जुड़ी हैं. उन्होंने कहा कि सामाजिक अलगाव ने लोगों के बीच मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को जन्म दिया है.
ओझा के अनुसार, "जिन लोगों को कोविड-19 के दौरान घर के अंदर रहने के लिए कहा गया था, वे मनो-सामाजिक कारकों से संबंधित मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना कर रहे हैं, जो आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण हैं."
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नजरअंदाज ना करें डिप्रेशन के ये 10 लक्षण
अवसाद जैसी मानसिक बीमारियों को आज भी मन का वहम और दिमाग का फितूर कह कर नजरअंदाज कर दिया जाता है. लेकिन आप खुद में या अपने प्रियजनों में इन लक्षणों को देखें, तो जरूर ध्यान दें.
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नींद में गड़बड़
डिप्रेशन कई तरह के होते हैं, इसलिए नींद का कोई एक पैट्रन नहीं होता. कुछ लोग अवसाद के कारण रात रात भर नहीं सो पाते. इसे इंसॉम्निया कहा जाता है. तो कुछ जरूरत से ज्यादा सोने लगते हैं.
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थकान
मन अच्छा तो तन चंगा. जब दिमाग ही ठीक से काम नहीं कर रहा होगा, तो वह शरीर को कैसे संभालेगा. इसलिए डिप्रेशन से गुजर रहे लोग कई बार ज्यादा थका हुआ महसूस करते हैं.
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बुरे ख्याल
डिप्रेशन से गुजर रहे लोग अक्सर अपनी या दूसरों की जान लेने के बारे में सोचते हैं. यहां तक कि नींद में भी उन्हें बुरे ख्याल आते हैं. कई बार इन बुरे सपनों के डर से भी वे सो नहीं पाते.
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गुस्सा
गुस्से और चिड़चिड़ेपन में फर्क होता है. डिप्रेशन के दौरान इंसान काफी तनाव से गुजरता है. वह सिर्फ सामने वाले पर ही नहीं, खुद पर भी गुस्सा हो जाता है. झगड़ने की जगह उस व्यक्ति को समझने, उससे बात करने की कोशिश करें.
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चिड़चिड़ापन
किसी के चिड़चिड़ेपन का मजाक उड़ाना बहुत आसान है. औरतों को "उन दिनों" का ताना मिल जाता है, तो मर्दों को बीवी से लड़ाई का. लेकिन यह इससे कहीं ज्यादा हो सकता है.
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एकाग्रता की कमी
अगर दिमाग को कंप्यूटर मान लिया जाए, तो समझिए कि डिप्रेशन में उसका प्रोसेसर ठीक से काम नहीं कर पाता. आप एक काम पर टिक नहीं पाते, छोटी छोटी बातें भूलने लगते हैं.
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डर
किसी के डर को निकालने के लिए उसे तर्क समझाने लगेंगे तो कोई फायदा नहीं होगा. अवसाद से गुजर रहा व्यक्ति तर्क नहीं समझता. उसे किसी भी चीज से डर लग सकता है, अंधेरे से, बंद कमरे से, ऊंचाई से, अंजान लोगों से.
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पीठ में दर्द
हमारी रीढ़ की हड्डी गर्दन से ले कर कूल्हे तक शरीर को संभालती है. ज्यादा तनाव से यह प्रभावित होती है और पीठ का दर्द शुरू होता है. कई लोगों को लगातार सर में दर्द भी रहता है जो दवाओं से भी दूर नहीं होता.
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खराब हाजमा
आप सोच रहे होंगे कि भला दिमाग का हाजमे से क्या लेना देना हो सकता है? याद कीजिए बचपन में परीक्षा के डर से कैसे पेट खराब हो जाया करता था. डिप्रेस्ड इंसान हर वक्त उसी अनुभव से गुजरता है.
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सेक्स में रुचि नहीं
मर्दों में इरेक्टाइल डिस्फंक्शन आम होता है. परेशानी की बात यह है कि यह किसी दुष्चक्र जैसा है क्योंकि अपने पार्टनर की उम्मीदों पर खरा ना उतरना भी डिप्रेशन की वजह बन सकता है.
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मदद
बहुत जरूरी है कि डिप्रेस्ड इंसान की मदद की जाए. डॉक्टर के पास जाने और दवाई से हरगिज परहेज नहीं करना चाहिए. जिस तरह किसी भी शाररिक बीमारी को ठीक करने के लिए दवा और प्यार दोनों की जरूरत पड़ती है, ठीक वैसा ही मानसिक बीमारी के साथ भी होता है.
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मनोरोग विशेष के मुताबिक बेरोजगारी, लंबे समय तक शैक्षणिक कार्यक्रम, पारिवारिक विवाद, वित्तीय समस्याएं, शराब का सेवन और मादक द्रव्यों के सेवन जैसे मनो-सामाजिक कारकों ने अधिकांश आत्महत्याओं में योगदान दिया है.
पिछले 12 सालों से मानसिक स्वास्थ्य की वकालत पर काम कर रहे जगन्नाथ लामिछाने का कहना है, "आत्महत्या को सार्वजनिक स्वास्थ्य के मुद्दे के रूप में देखने के बजाय, हमारा समाज आत्महत्या को एक आपराधिक दृष्टिकोण से देखता है जिससे लोगों के लिए आत्महत्या और मानसिक स्वास्थ्य के बारे में बात करना मुश्किल हो जाता है. इस झिझक के कारण आत्महत्या अधिक होती है."
वे कहते हैं, "इसलिए हमें स्कूली शिक्षा में आत्महत्या की रोकथाम और मानसिक कल्याण के विषय को शामिल करके जमीनी स्तर से मानसिक स्वास्थ्य की वकालत करनी होगी."
कोरोना वायरस के कारण मानसिक स्वास्थ्य का मुद्दा भी तेजी से दुनिया भर में उभरकर आया है. लॉकडाउन ने लोगों की आदतें तो जरूर बदल दी हैं लेकिन एक बड़ा तबका तनाव के बीच जिंदगी जी रहा है. यह तनाव बीमारी और भविष्य की चिंता को लेकर है.
डिप्रेशन का ज्यादा खतरा किसे
किशोरावस्था में हुआ व्यवहार बहुत हद तक यह निर्धारित करता है कि कोई व्यक्ति आने वाले समय में अवसाद का शिकार हो सकता है या नहीं.
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इंग्लैड के रिसर्चरों के मुताबिक ऐसे युवा डिप्रेशन के ज्यादातर शिकार होते हैं जिनके साथ किशोरावस्था में अच्छा व्यवहार नहीं हुआ हो. बीएमजे पत्रिका में छपी रिपोर्ट के मुताबिक किशोरावस्था में प्रताड़ित हुए लोगों को अक्सर बाद में ज्यादा भुगतना पड़ता है.
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वे लोग जिन्हें किशोरावस्था में किसी प्रिय सामान के खो जाने, उनके बारे में झूठ फैलाए जाने, मारपीट या ब्लैकमेल जैसी घटनाओं से गुजरना पड़ता है, उनकी अवसाद का शिकार होने की ज्यादा संभावना होती है.
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इस रिसर्च में करीब 4000 लोगों से 13 साल की उम्र में एक प्रश्नपत्र भरवाया गया. पांच साल बाद उनका अवसाद के लिए टेस्ट किया गया. रिसर्चरों ने पाया कम से कम हर हफ्ते प्रताड़ित किये जाने वाले 683 लोगों में से 15 फीसदी 18 साल की उम्र में अवसाद ग्रसित थे.
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युवावस्था में अवसाद के कई कारण हो सकते हैं. इनमें पारिवारिक समस्याएं, किसी तरह का नुकसान, मारपीट भी शामिल हैं.
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रिसर्चरों ने पाया कि प्रताड़ना के खिलाफ स्कूलों में चलाए जा रहे कार्यक्रम खास कारगर नहीं हैं. उनके मुताबिक किशोरावस्था में बच्चों को इस तरह के अनुभवों से जितना ज्यादा बचाया जा सके, बेहतर है.