म्यांमार से बांग्लादेश पहुंचने वाला हर रोहिंग्या अपने साथ एक दुख भरी दास्तान ले कर आया है. नाबालिग बच्चियों के लिए यह सफर कितना भयावह है, यह उनकी आपबीती से पता चलता है. एक ऐसी ही बच्ची की कहानी..
तस्वीर: Thomson Reuters Foundation/S. Glinski
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अजीदा को वह लम्हा भुलाये नहीं भूलता, जब एक नकाबपोश सिपाही ने उसकी इज्जत पर हाथ डाला था. वह चीखी, चिल्लायी पर जंगल में उसकी चीख सुनने वाला कोई नहीं था. सिपाही के घिनौने हाथ अजीदा के कपड़ों को चीरते हुए उसकी टांगों के बीच घूम रहे थे. 13 साल की बच्ची ने उसे रोकने की बहुत कोशिश की. लेकिन हाथ में बंदूक थामे उस सिपाही पर हैवानियत सवार थी. "मुझे बहुत दर्द हुआ और उस वक्त मेरे मन में बस एक ही बात चल रही थी कि मैंने अपनी इज्जत खो दी. अब मैं पाक नहीं रही, अब कोई मुझे नहीं स्वीकारेगा, अब कभी मेरी शादी नहीं हो पाएगी."
कुछ ही मिनटों पहले अजीदा ने अपने माता पिता को मरते देखा था. सिपाही उसके घर में घुस आये थे. डर के मारे वह एक मेज के नीचे जा छिपी थी. वहां से उसने सिपाहियों को अपने मां बाप पर गोलियां चलाते देखा. और इसके बाद वह भी सिपाहियों के हाथ लग गयी. उन्होंने उसके घर को आग लगा दी और उसे खींच कर जंगल में ले गए.
ये हर रोज 20 हजार रोहिंग्या का पेट भरते हैं
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सहमा हुआ जीवन
अजीदा अब बांग्लादेश में एक शरणार्थी शिविर में रह रही है. उसकी 15 साल की एक बहन भी उसके साथ है. माता पिता के अलावा दो बड़ी बहनों की भी म्यांमार के राखाइन प्रांत में हुई हिंसा में जान चली गयी. बहन मीनारा के साथ भी सिपाहियों ने वही हाल किया. दोनों इतना सहम गयी हैं कि शिविर के टेंट से भी बाहर नहीं आतीं. "यहां बंदूकें नहीं हैं लेकिन लोग तो हैं, जो जब चाहें हमारी इज्जत लूट सकते हैं." मीनारा का कहना है कि उसने और भी लड़कियों के बलात्कार के अनुभव सुने हैं, "इसलिए हम कोशिश करते हैं कि हम हर वक्त टेंट के अंदर ही रहें."
अजीदा और मीनारा उन चुनिंदा लड़कियों में से हैं, जो अपने साथ हुई ज्यादतियों के बारे में बात करने के लिए तैयार हैं. हालांकि थॉम्पसन रॉयटर्स फाउंडेशन से भी वे इसी शर्त पर बात करने के लिए तैयार हुईं कि उनकी पहचान गुप्त रखी जाएगी. बांग्लादेश के कॉक्स बाजार के एक स्कूल में जब इन लड़कियों से बात की गयी, तो उन्होंने किसी भी पुरुष से बात करने से इंकार कर दिया. जिस क्लासरूम में बातचीत हुई, वहां के सब खिड़की दरवाजे बंद कराये.
सहमी हुई हैं मीनारा और अजीदा तस्वीर: Thomson Reuters Foundation/S. Glinski
काश मर ही जाती!
यूनिसेफ के यौं लीबी की मानें तो बाकी लड़कियां इतनी हिम्मत भी नहीं जुटा पातीं. अब तक यूनिसेफ के पास यौन हिंसा के 800 मामले आये हैं, जबकि असल संख्या इससे कहीं ज्यादा होने की आशंका है. यूनिसेफ के लिए काम करने वाली नर्स रेबेका डास्किन का कहना है, "ऐसे माहौल में लड़कियां बहुत डरी होती हैं कि उन्हीं पर लांछन लगाया जाएगा. वे परिवार वालों को भी कुछ बताने से डरती हैं."
डास्किन इन बच्चियों को सदमे से बाहर लाने की कोशिश में लगी हैं, "ज्यादातर मामलों में यह पहला यौन संपर्क होता है और क्योंकि वह बेहद हिंसक और कई लोगों की मौजूदगी में होता है, इसलिए सदमा और भी बड़ा होता है."
मीनारा का सदमा उसकी इस बात से बयान हो जाता है, "मैं मर जाऊंगी लेकिन घर वापस नहीं जाऊंगी." वहीं अजीदा का हाल इससे से बुरा है, "जब सिपाही मुझे उठा कर ले गये थे, मुझे लगा था कि मैं मर जाऊंगी. अब मुझे लगता है कि काश मर ही गयी होती, इज्जत गंवाने से तो वही बेहतर होता."
आईबी/एके (रॉयटर्स)
कौन हैं रोहिंग्या मुसलमान
म्यांमार के पश्चिमी रखाइन प्रांत में रोहिंग्या मुसलमानों की आबादी लगभग दस लाख है. लेकिन उनकी जिंदगी प्रताड़ना, भेदभाव, बेबसी और मुफलिसी से ज्यादा कुछ नहीं है. आइए जानते हैं, कौन हैं रोहिंग्या लोग.
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इनका कोई देश नहीं
रोहिंग्या लोगों का कोई देश नहीं है. यानी उनके पास किसी देश की नागरिकता नहीं है. रहते वो म्यामांर में हैं, लेकिन वह उन्हें सिर्फ गैरकानूनी बांग्लादेशी प्रवासी मानता है.
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सबसे प्रताड़ित लोग
म्यांमार के बहुसंख्यक बौद्ध लोगों और सुरक्षा बलों पर अक्सर रोहिंग्या मुसलमानों को प्रताड़ित करने के आरोप लगते हैं. इन लोगों के पास कोई अधिकार नहीं हैं. संयुक्त राष्ट्र उन्हें दुनिया का सबसे प्रताड़ित जातीय समूह मानता है.
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आने जाने पर भी रोक
ये लोग न तो अपनी मर्जी से एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा सकते हैं और न ही अपनी मर्जी काम कर सकते हैं. जिस जगह वे रहते हैं, उसे कभी खाली करने को कह दिया जाता है. म्यांमार में इन लोगों की कहीं सुनवाई नहीं है.
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बंगाली
ये लोग दशकों से रखाइन प्रांत में रह रहे हैं, लेकिन वहां के बौद्ध लोग इन्हें "बंगाली" कह कर दुत्कारते हैं. ये लोग जो बोली बोलते हैं, वैसी दक्षिणपूर्व बांग्लादेश के चटगांव में बोली जाती है. रोहिंग्या लोग सुन्नी मुसलमान हैं.
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जोखिम भरा सफर
संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि 2012 में धार्मिक हिंसा का चक्र शुरू होने के बाद से लगभग एक लाख बीस हजार रोहिंग्या लोगों ने रखाइन छोड़ दिया है. इनमें से कई लोग समंदर में नौका डूबने से मारे गए हैं.
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सामूहिक कब्रें
मलेशिया और थाइलैंड की सीमा के नजदीक रोहिंग्या लोगों की कई सामूहिक कब्रें मिली हैं. 2015 में जब कुछ सख्ती की गई तो नावों पर सवार हजारों रोहिंग्या कई दिनों तक समंदर में फंसे रहे.
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इंसानी तस्करी
रोहिंग्या लोगों की मजबूरी का फायदा इंसानों की तस्करी करने वाले खूब उठाते हैं. ये लोग अपना सबकुछ इन्हें सौंप कर किसी सुरक्षित जगह के लिए अपनी जिंदगी जोखिम में डालने को मजबूर होते हैं.
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बांग्लादेश में आसरा
म्यांमार से लगने वाले बांग्लादेश में लगभग आठ लाख रोहिंग्या लोग रहते हैं. इनमें से ज्यादातर ऐसे हैं जो म्यांमार से जान बचाकर वहां पहुंचे हैं. बांग्लादेश में हाल में रोहिंग्याओं को एक द्वीप पर बसाने की योजना बनाई है.
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आसान नहीं शरण
बांग्लादेश कुछ ही रोहिंग्या लोगों को शरणार्थी के तौर पर मान्यता देता है. वो नाव के जरिए बांग्लादेश में घुसने की कोशिश करने वाले बहुत से रोहिंग्या लोगों को लौटा देता है.
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दर ब दर
बाग्लादेश के अलावा रोहिंग्या लोग भारत, थाईलैंड, मलेशिया और चीन जैसे देशों का भी रुख कर रहे हैं.
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सुरक्षा के लिए खतरा
म्यांमार में हुए हालिया कई हमलों में रोहिंग्या लोगों को शामिल बताया गया है. उनके खिलाफ होने वाली कार्रवाई के जवाब में सुरक्षा बलों का कहना है कि वो इस तरह के हमलों को रोकना चाहते हैं.
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मानवाधिकार समूहों की अपील
मानवाधिकार समूह म्यांमार से अपील करते हैं कि वो रोहिंग्या लोगों को नागरिकता दे और उनका दमन रोका जाए.
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कानूनी अड़चन
म्यांमार में रोहिंग्या लोगों को एक जातीय समूह के तौर पर मान्यता नहीं है. इसकी एक वजह 1982 का वो कानून भी है जिसके अनुसार नागरिकता पाने के लिए किसी भी जातीय समूह को यह साबित करना है कि वो 1823 के पहले से म्यांमार में रह रहा है.
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आलोचना
रोहिंग्या लोगों की समस्या पर लगभग खामोश रहने के लिए म्यांमार में सत्ताधारी पार्टी की नेता आंग सान सू ची की अक्सर आलोचना होती है. माना जाता है कि वो इस मुद्दे पर ताकतवर सेना से नहीं टकराना चाहती हैं. सू ची हेग को अंतरराष्ट्रीय अदालत में रोहिंग्या मुसलमानों के नरसंहार से जुड़े आरोपों का सामना करने के लिए जाना पड़ा है.