भारतीय वैज्ञानिक कोविड-19 की वॉर्म वैक्सीन बनाने के काफी करीब पहुंच गए हैं. ऑस्ट्रेलिया के वैज्ञानिकों ने इस वैक्सीन का परीक्षण किया है.
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ऑस्ट्रेलिया के कॉमनवेल्थ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च ऑर्गनाइजेशन ने भारत के वैज्ञानिकों द्वारा बनाई एक वैक्सीन के फॉर्म्युलेशन का परीक्षण किया है और पाया है कि कोरोना वायरस के विभिन्न वेरिएंट्स पर यह वैक्सीन प्रभावी साबित हुई.
कोविड की यह वॉर्म वैक्सीन बेंगलुरू स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के वैज्ञानिकों ने बायोटेक स्टार्टअप फर्म मिनवैक्स के साथ मिलकर तैयार की है. एसीएस इन्फेक्शियस डिजीज नामक पत्रिका में छपे एक शोध में ऑस्ट्रेलियाई वैज्ञानिकों ने कहा है कि चूहों पर वैक्सीन के प्रयोग किए गए और प्रभावशाली नतीजे मिले.
पिछले हफ्ते प्रकाशित शोधपत्र में बताया गया है कि वैक्सीन ने चूहों में शक्तिशाली प्रतिरोधक क्षमता पैदा की और हैम्सटर्स को वायरस से बचाया. यह वैक्सीन ने 37 डिग्री सेल्सियस पर एक महीने तक और 100 डिग्री सेल्सियस पर 90 मिनट तक स्थिर रही.
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क्या होती है वॉर्म वैक्सीन
ज्यादातर कोविड वैक्सीन कोल्ड होती है. इसका अर्थ है कि उन्हें बहुत कम तापमान पर ही रखना पड़ता है. जैसे कि ऑक्सफर्ड-एस्ट्राजेनेका वैक्सीन को 2-8 डिग्री सेल्सियस तापमान की जरूरत होती है जबकि फाइजर को -70 डिग्री सेल्सिय तापमान से ज्यादा पर नहीं रखा जा सकता.
तस्वीरों मेंः वैक्सीन काम करती है
वैक्सीन काम करती है, इसका सबूत है इन बीमारियों पर विजय
दुनिया में कोविड-19 के खिलाफ टीकाकरण अभियान के बीच याद रखना जरूरी है कि मानव जाति ने वैक्सीन की बदौलत ही कई बीमारियों पर विजय हासिल की है. हो सकता है जल्द कोरोना वायरस भी उतना सिमट जाए जितने ये बीमारियां सिमट चुकी हैं.
तस्वीर: Ciro Fusco/ANSA/picture alliance
पोलियो
1988 में दुनिया में पोलियो के तीन लाख से भी ज्यादा मामले थे, और आज 200 से भी कम मामले हैं. दो बूंद जिंदगी की - इस अभियान ने भारत से पोलियो को पूरी तरह हटाने में बड़ी भूमिका निभाई. पाकिस्तान, अफगानिस्तान और अफ्रीका के कुछ हिस्सों को छोड़ कर आज बाकी पूरी दुनिया पोलियो मुक्त हो चुकी है, टीके की बदौलत.
1980 में दुनिया भर में मीजल्स वायरस 25 लाख से भी ज्यादा लोगों की मौत का कारण बना था, लेकिन 2014 आते आते यह संख्या 75,000 से भी नीचे आ गई. मीजल्स के टीके को कई देशों में दूसरे टीकों के साथ मिला कर भी दिया जाता है और इसे काफी सफल टीका माना जाता है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/J.P. Müller
चेचक
इसे आधुनिक दुनिया की सबसे खतरनाक बीमारी कहा जाता रहा है. चेचक पीड़ित 30 फीसदी लोगों की जान चली जाती थी. टीका बन जाने के बाद भी इस बीमारी को पूरी तरह खत्म करने में करीब दो सौ साल का वक्त लग गया. 1970 के दशक में दुनिया को चेचक से मुक्ति मिली.
तस्वीर: Getty Images/CDC
स्पेनिश फ्लू
1918 में शुरू हुए इंफ्लुएंजा या स्पेनिश फ्लू का टीका 1945 में जा कर बना. दुनिया की एक तिहाई आबादी इससे संक्रमित हुई और पांच करोड़ लोगों की जान गई. अगर टीका ना बना होता, तो आज दुनिया काफी अलग दिखती.
तस्वीर: picture-alliance/Everett Collection
टेटनस
जब भी कभी चोट लगती है, तो लोग टेटनस का इंजेक्शन लेने भागते हैं. डॉक्टर कहते हैं कि हर दस साल में एक बार टेटनस का टीका लगवाना चाहिए. टेटनस एक जानलेवा बीमारी है और हालांकि अब टेटनस के मामले ना के बराबर हैं, लेकिन रोकथाम के लिए टीका अब भी दिया जाता है.
तस्वीर: Imago Images
डिप्थेरिया
नवजात शिशुओं को डीपीटी का टीका दिया जाता है. डी से डिप्थेरिया, टी से टेटनस और पी से पर्टुसिस. ये तीनों बीमारियां बैक्टीरिया के कारण होती हैं. 1948 में डीपीटी का टीका विकसित हुआ लेकिन इसके काफी साइड इफेक्ट हुआ करते थे. 1990 के दशक में इसके फॉर्मूला में बदलाव किए गए.
तस्वीर: picture-alliance/OKAPIA KG/G. Gaugler
इबोला
2014 में फैले इबोला संक्रमण को टीके की मदद से ही रोका जा सका. दो साल तक इस बीमारी ने पश्चिमी अफ्रीका में कहर मचाया. इस दौरान वहां ग्यारह हजार से ज्यादा लोगों की जान गई.
तस्वीर: picture-alliance/AP/S. Alamba
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मेलबर्न के पास जीलॉन्ग स्थित सीएसआईआरओ के ऑस्ट्रेलियन सेंटर फॉर डिजीज प्रीपेअर्डनेस के वैज्ञानिकों ने इस अध्ययन में योगदान दिया है. उन्होंने टीका लगाए जाने के बाद लिए गए चूहों के रक्त के नमूनों की जांच की. इन चूहों को पूरी दुनिया में फैल रहे डेल्टा वेरिएंट समेत विभिन्न कोरनो वायरस से संक्रमित किया गया था.
शोध के सह लेखक और प्रोजेक्ट लीडर डॉ. एसएस वासन कहते हैं कि मिनवैक्स का टीका पाए चूहों ने कोरोना वायरस के सभी स्वरूपों के खिलाफ ताकतवर प्रतिरोध क्षमता दिखाई. एक बयान में डॉ. वासन ने बताया, "हमारा डेटा दिखाता है कि मिनवैक्स ने ऐसे एंटिबॉडी बनाए जो अल्फा, बीटा, गामा और डेल्टा समेत सभी वेरिएंट्स को खत्म करने में कामयाब रहीं.”
सीएसआईआरओ के हेल्थ एंड बायोसिक्यॉरिटी डाइरेक्टर डॉ. रॉब ग्रेनफेल कहते हैं दुनिया को वॉर्म वैक्सीन यानी ज्यादा तापमान पर भी स्थिर रहने वाले टीके की बहुत जरूरत है. उन्होंने कहा, "ऐसी जगहों पर जहां संसाधनों की कमी है या फिर ऑस्ट्रेलिया के क्षेत्रीय इलाकों जैसे गर्म हिस्सों में, जहां कोल्ड स्टोरेज बड़ी चुनौती है, वहां के लिए वॉर्म वैक्सीन बहुत जरूरी है.”
अंतरराष्ट्रीय सहयोग जरूरी
इस वैक्सीन का मानव परीक्षण इस साल के आखिर में शुरू हो सकता है. ऑस्ट्रेलियाई वैज्ञानिकों का शोध मानव परीक्षण के लिए उचित उम्मीदवार चुनने में मददगार साबित होगा.
देखिए, कहां कहां पहुंची वैक्सीन
कहां कहां पहुंची वैक्सीन
कोविड-19 वैक्सीन को लोगों तक पहुंचाने के लिए दुनियाभर के सैकड़ों स्वास्थ्यकर्मी दूभर यात्राएं कर रहे हैं. उनका काम है वैक्सीन को उन जगहों पर ले जाना जहां आना-जाना आसान नहीं है. मिलिए, ऐसे ही लोगों से.
तस्वीर: Anupam Nath/AP Photo/picture alliance
पहाड़ की चढ़ाई
दक्षिणी तुर्की में दूर-दराज पहाड़ी इलाकों में रहने वाले लोगों तक वैक्सीन पहुंचाने के लिए सिर्फ स्वास्थ्यकर्मी होना काफी नहीं है. उन्हें शारीरिक रूप से तंदुरुस्त और मजबूत भी होना पड़ता है क्योंकि पहाड़ चढ़ने पड़ते हैं. डॉ. जैनब इरेल्प कहती हैं कि लोग अस्पताल जाना पसंद नहीं करते तो हमें उनके पास जाना पड़ता है.
तस्वीर: Bulent Kilic/AFP
बर्फीली यात्राएं
पश्चिमी इटली के ऐल्पस पहाड़ी के मारिया घाटी में कई बुजुर्ग रहते हैं जो वैक्सिनेशन सेंटर तक नहीं पहुंच सकते. 80 साल से ऊपर के लोगों को घर-घर जाकर वैक्सीन लगाई जा रही है.
तस्वीर: Marco Bertorello/AFP
हवाओं के उस पार
अमेरिका के अलास्का में यह नर्स युकोन नदी के किनारे बसे कस्बे ईगल जा रही है. उसके बैग में कुछ ही वैक्सीन हैं क्योंकि ईगल सौ लोगों का कस्बा है जहां आदिवासी लोग रहते हैं. उन्हें प्राथमिकता दी जा रही है.
तस्वीर: Nathan Howard/REUTERS
मनाना भी पड़ता है
दक्षिणी-पश्चिमी कोलंबिया के पहाड़ी इलाकों में 49 साल के ऐनसेल्मो टूनूबाला का काम सिर्फ वैक्सीन ले जाना नहीं है. उन्हें वैक्सीन की अहमियत भी समझानी पड़ती है क्योंकि कुछ आदिवासी समूह दवाओं से ज्यादा जड़ी-बूटियों पर भरोसा करते हैं.
तस्वीर: Luis Robayo/AFP
कई-कई घंटे चलना
मध्य मेक्सिको नोवा कोलोन्या इलाके में ये लोग चार घंटे पैदल चलकर टीकाकरण केंद्र पहुंचे. ये हुइशोल आदिवासी समूह के लोग हैं.
तस्वीर: Ulises Ruiz/AFP/Getty Images
नाव में सेंटर
ब्राजील के रियो नेग्रो में नोसा सेन्योरा डो लिवरामेंटो समुदाय के लोगों तक वैक्सीन नाव पर बने एक टीकाकरण केंद्र के जरिए पहुंची है.
तस्वीर: Michael Dantas/AFP
अंधेरे में उजाला
ब्राजील के इस आदिवासी इलाके में बिजली नहीं पहुंची है लेकिन वैक्सीन पहुंच गई है. 70 साल की रैमुंडा नोनाटा को वैक्सीन की पहली खुराक मोमबत्ती की रोशनी में मिली.
तस्वीर: Tarso Sarraf/AFP
झील के उस पार
यूगांडा की सबसे बड़ी झील बनयोन्यनी के ब्वामा द्वीप पर रहने वालों को वैक्सीन लगवाने के लिए नाव से आना पड़ता है.
तस्वीर: Patrick Onen/AP Photo/picture alliance
सब जल-थल
जिम्बाब्वे के जारी गांव में पहुंचने के लिए बनी सड़क टूट गई है. नदी पार करने का यही तरीका है लेकिन वैक्सीन तो पहुंचेगी.
तस्वीर: Tafadzwa Ufumeli/Getty Images
जापान के गांव
जापान में शहर भले चकाचौंध वाले हों, आज भी बहुत से लोग दूर-दराज इलाकों में रहते हैं. जैसे किटाएकी में इस बुजुर्ग के लिए स्वास्थ्यकर्मी घर आए हैं टीका लगाने.
तस्वीर: Kazuhiro Nogi/AFP
बेशकीमती टीके
इंडोनेशिया में टीकाकरण जनवरी में शुरू हो गया था. बांडा आचेह से मेडिकल टीम नाव के रास्ते छोटे छोटे द्वीपों पर पहुंची. टीके इतने कीमती हैं कि सेना मेडिकल टीम के साथ गई.
तस्वीर: Chaideer Mahyuddin/AFP
दूसरी लहर के बीच
भारत में जब कोरोना वायरस चरम पर था, तब वैक्सीनेशन जारी था. लेकिन ब्रह्मपुत्र नदी पर स्थित बहाकजरी गांव में मेडिकल टीम के पास पहुंचे लोग मास्क आदि से बेपरवाह दिखाई दिए. (ऊटा श्टाइनवेयर)
तस्वीर: Anupam Nath/AP Photo/picture alliance
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सीएसआईआरओ के हेल्थ एंड बायोसिक्यॉरिटी डाइरेक्टर डॉ. रॉब ग्रेनफेल कहते हैं कि कोविड से लड़ने में दुनियाभर के वैज्ञानिकों का सहयोग जरूरी है. एक बयान में उन्होंने कहा, "महामारी ने बताया है कि सस्ती वैक्सीन और इलाज उपलब्ध करवाने के लिए अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक सहयोग बेहद जरूरी है.”
सीएसआईआरओ इससे पहले दो अहम कोविड वैक्सीनों का परीक्षण कर चुका है, जिनमें ऑक्सफर्ड-एस्ट्राजेनेका का प्रि-क्लीनिकल परीक्षण भी शामिल है.