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सौर जियोइंजीनियरिंग- जलवायु समाधान या मुसीबत की जड़?

२८ जुलाई २०२३

सुनने में तो विज्ञान-गल्प जैसा लगता है, लेकिन रिसर्चरों के एक समूह का मानना है कि सूरज की रोशनी को रोक कर हम जलवायु परिवर्तन से बच सकते हैं. दूसरे लोग इसे एक खतरनाक नजरिया मानते हैं.

Sonnenaufgang in NRW Deutschland
तस्वीर: Jochen Tack/picture alliance

यह एक सामान्य भौतिकी है- अगर हम लंबे समय तक स्ट्रेटोस्फीयर में एयरोसॉल का छिड़काव करें तो वे अंततः सूरज की किरणों को परावर्तित कर, विनाशकारी ग्लोबल वार्मिंग के खतरे को पलट सकेंगे. सोलर जियोइंजीनियरिंग के समर्थक यही कहते हैं.

हालांकि उसके कई विरोधी कहते हैं कि धरती के लिहाज से ये एक खतरनाक दांव है और इसके संभावित नतीजे इतने पेचीदा होंगे कि इस विकल्प के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए.

वर्षों से अपेक्षाकृत एक अजीबोगरीब विचार के रूप में मौजूद सोलर जियोइंजीनियरिंग की अवधारणा इधर सरकारों, राजनीतिज्ञों, अकादमिक विद्वानों और यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र की जलवायु संस्था आईपीसीसी में तेजी से अपनी पैठ बनाती जा रही है. कार्बन उत्सर्जनों में कटौती के लिए जूझती दुनिया को निजात दिलाने के लिए धरती को पूर्व औद्योगिक तापमानों में वापस पहुंचा देने जैसी संभावनाएं देखी जा रही हैं.

सूरज को मद्धम करने की विवादित तकनीक को मिला बड़ा निवेश

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के प्रशासन ने सौर विकरण प्रबंधन (सोलर रेडिएशन मैनेजमेंट-एसआरएम) में एक समन्वित शोध कार्यक्रम शुरू करने के पक्ष में दलील दी है. एसआरएम, सूरज की रोशनी को परावर्तित करने की जियोइंजीनियरिंग कोशिशों को समझाने का एक पद है. हालांकि अमेरिका का यह भी कहना है कि फिलहाल उसका ऐसा कोई कार्यक्रम लॉन्च करने का इरादा नहीं.

यूरोपीय संघ की कार्यकारी शाखा ने एसआरएम से जुड़े शासकीय मुद्दों और खतरों को समझने के लिए एक संभावित फ्रेमवर्क की दिशा में अंतरराष्ट्रीय वार्ताएं शुरू करने को कहा है.

तस्वीर: BULLIT MARQUEZ/AP/picture alliance

एसआरएम काम कैसे करता है?

सबसे पुख्ता तरीका है, धरती की सतह से ऊपर 10 से 50 किलोमीटर के बीच स्थित वायुमंडलीय परत, स्ट्रेटोस्फीयर में सल्फर डाइऑक्साइड की नन्हीं बूंदों का छिड़काव. वहां वे करीब एक साल तक रहकर धूप को रिफलेक्ट कर सकती हैं और धरती को ठंडा.

फिलीपींस के पिनाटुबो में 1991 में ज्वालामुखी विस्फोट से इस सिद्धांत का प्रदर्शन किया गया था. वह विस्फोट इतना शक्तिशाली था कि उसने स्ट्रेटोस्फीयर तक करीब डेढ़ करोड़ टन सल्फर डाइऑक्साइड पहुंचा दी. अगले दो साल के दौरान इस विस्फोट की बदौलत धरती आधा डिग्री सेल्सियस से भी ज्यादा तापमान तक ठंडी हो गई.

जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए सूरज को मद्धम करने की कोशिश

अमेरिका की कॉरनेल यूनिवर्सिटी में सीनियर रिसर्च फैलो डगलस मैकमार्टिन के मुताबिक, मॉडलिंग से पता चलता है कि धरती पर पहुंचने वाली धूप का एक फीसदी हिस्सा भी परावर्तित कर दिया जाए तो वो उसे पूर्व औद्योगिक स्तरों के लिहाज से ठंडा करने के लिए काफी होगा.

रिसर्च तो यह भी दिखाता है कि स्ट्रेटोस्फीयर में उस पैमाने का सल्फर डाइऑक्साइड पहुंचाना व्यवहारिक तौर पर मुश्किल नहीं.

मैकमार्टिन यह भी बताते हैं कि इसका खर्च भी अपेक्षाकृत रूप से कम रहेगा. एक रिसर्च में सालाना 18 अरब डॉलर (16 अरब यूरो) के खर्च का अंदाजा लगाया गया है. जलवायु परिवर्तन के कारण प्रचंड मौसम की मार से होने वाले नुकसान की तुलना में यह खर्च बहुत कम है. मैकमार्टिन कहते हैं, "जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसानों की तुलना में देखें तो ये मुफ्त का सौदा है."

इसका मतलब यह नहीं कि बात इतनी सहज, सामान्य सी है. दुनिया भर में इसके लिए सैकड़ों विमान तैनात करने होंगे. अगली शताब्दी के दौरान साल में उन्हें हजारों उड़ानें भरनी होंगी, और वायुमंडल में लगातार एयरोसॉल का छिड़काव करते रहना होगा. इस बड़े पैमाने पर प्रौद्योगिकी को झोंकने का समूची धरती पर भी असर पड़ेगा.

इसमें उतावलापन लग सकता है लेकिन तकनीक के समर्थक कहते हैं कि निचले वायुमंडल में नियमित प्रदूषण के नतीजे के रूप में हम पहले से ही 10 गुना ज्यादा एयरोसॉल भर रहे हैं. उसका भी एक कूलिंग इफेक्ट होता है लेकिन उसके साथ स्वास्थ्य और पारिस्थितिकीय नुकसान जुड़े हैं.

नकारात्मक बिंदु कौन से हैं?

भले ही तमाम संभावित असर पूरी तरह से ना समझे गए हों, लेकिन वैज्ञानिक पहले से जानते हैं कि एयरोसोल एसिड रेन (अम्लीय वर्षा) पैदा करेंगे और ओजोन की उस परत को खराब करेंगे, जो संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक और ज्यादा गर्मी को रोकने का काम कर रही है.

बारिश के पैटर्न पर भी असर पड़ेगा, विनाशकारी मौसम प्रणालियां सक्रिय हो उठेंगी जो जलवायु परिवर्तन की वजह से कुछ इलाकों में पहले ही बदतर स्थिति में हैं. आगामी शोध के जरिए दूसरे ज्यादा विनाशकारी प्रभाव पता चल सकते हैं.

सूरज की रोशनी को एयरोसॉल की मदद से परावर्तित कर धरती को ठंडा तो रखा जा सकता है लेकिन जलवायु परिवर्तन के दूसरे दुष्प्रभावों को नहीं पलटा जा सकता, जैसे कि ओशन एसिडिफिकेशन यानी महासागरों का अम्लीकरण.

मैकमार्टिन कहते हैं कि कुछ भी न करने से बेहतर है इन खतरों को समझकर, उनसे निपटकर आगे बढ़ा जाए. "हम अच्छी स्थिति में नहीं हैं. यह जोखिम बनाम जोखिम का मामला है. आज फैसला सिर्फ इस बात पर करना होगा कि अगर जलवायु परिवर्तन वाकई बदतर हो जाए तो उस सूरत में हमारे पास पर्याप्त रिसर्च है या नहीं जिसके दम पर सुविचारित निर्णय कर सकें."

असली काम पीछे ना छूट जाएं

सैकड़ों वैज्ञानिक मानते हैं कि इस प्रौद्योगिकी में और रिसर्च को पूरी तरह रोक देना चाहिए. आरती गुप्ता नीदरलैंड्स की वागेनिंगन यूनिवर्सिटी में वैश्विक पर्यावरणीय गर्वनेंस की प्रोफेसर हैं. सोलर जियोइंजीनियरिंग रिसर्च के लिए पब्लिक फंडिंग जुटाने के खिलाफ सार्वजनिक चिट्ठी लिखने वालों में आरती भी शामिल थीं. इस चिट्ठी में 450 से ज्यादा वैज्ञानिकों के दस्तखत थे.

इस ग्रुप की दलील है कि व्यापक सिम्युलेशन और मॉडलिंग के बावजूद, सौर जियोइंजीनियरिंग के खतरों और प्रभावों को पूरी तरह समझने का एकमात्र जरिया है- जियोइंजीनियर्ड एटमॉस्फेयर में भविष्य की पीढ़ियों को बंद कर किसी अनजाने, निर्जन ग्रह पर उस तकनीक को मुकम्मल तौर पर परखा जाए.

सूरज आखिर क्या है?

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आरती गुप्ता ने डीडब्ल्यू को बताया, "जलवायु प्रणाली के बारे में बहुत सारी चीजें ऐसी हैं जो जरूरी नहीं कि हमें मालूम हो. उस किस्म के अपरिवर्तनीय नतीजों के बारे मे हम तभी जान पाएंगे जब वे वास्तव में घटित होंगे."

इस ग्रुप की दलील है कि इस प्रौद्योगिकी का आकर्षण कार्बन उत्सर्जनों में कटौती की प्रमाणित और अपरिहार्य कार्रवाई में देरी ही कराएगा. आरती कहती हैं, "यह बेअसर हो सकता है और खतरों और दुष्प्रभावों को और बढ़ा सकता है. उसी दौरान हम उत्सर्जन में कटौती और फॉसिल ईंधन को हटाने के संबंध में जो करना है उससे निगाहें फेरे रहेंगे."

समूह का यह भी मानना है कि सोलर जियोइंजीनियरिंग निष्पक्ष और समावेशी तौर पर कभी काम नहीं कर पाएगी और इसमें अमीर और ताकतवर देशो का ही बोलबाला बना रहेगा. गुप्ता कहती हैं, "जलवायु वार्ताओं का इतिहास बताता है कि इन सभी बड़े पेचीदा और विवादास्पद मुद्दों पर छोटे द्वीप या विकासशील राज्यों को जोर नहीं होगा, ना उन्हें वीटो का हक होगा, ना इन प्रौद्योगिकियों पर नियंत्रण हासिल होगा."

सेंटर फॉर एनवायरन्मेंटल लॉ को भी इस पर संदेह है. उसका कहना है कि जलवायु संकट से निपटने के उपकरण पहले से मौजूद हैं. वाशिंगटन डीसी के इस संस्थान के मुताबिक "भविष्य के तकनीकी पेंचोखम पर दांव लगाने से खतरनाक तौर पर ध्यान भटकता है और वास्तविक समाधानों को लागू करने में देरी होती जाती है."

वैज्ञानिकों के संगठन, द यूनियन ऑफ कन्सर्न्ड सांइटिस्ट्स ने इस बारे में रिसर्च को मॉडलिंग और पर्यवेक्षणीय अध्ययनों तक सीमित रखने की मांग की है. हालांकि उसने भविष्य में छोटे स्तर के प्रयोगों से इंकार भी नहीं किया है.

इस साल की शुरुआत में, 110 भौतिकविदों और जीवविज्ञानियों ने एक बागी तेवर वाला खुला खत लिखा, जिसमें मांग की गई कि इस किस्म के हस्तक्षेपों से क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर जलवायु के खतरों पर कैसा असर पड़ेगा, इस बारे में एक समग्र, अंतरराष्ट्रीय आकलन होना चाहिए.

सारे मर्ज की एक दवा का लोभ

दूसरे वैज्ञानिक उत्सर्जनों में कटौती के लिए पर्याप्त समय हासिल करने, वायुमंडल से पर्याप्त कार्बन डाइऑक्साइड निकालने और जलवायु परिवर्तन के बदतर दुष्प्रभावों से बचने के लिए, इसे चुनिंदा विकल्पों में से एक के रूप मे देखते हैं.

उदाहरण के लिए, जॉन बेकर एक रेस्टोरेशन इकोलॉजिस्ट हैं. अमेरिका के समुद्री जंगलों की बहाली के अपने काम के दौरान उन्होंने जलवायु परिवर्तन के नुकसान का करीबी अनुभव है. वह कहते हैं, "हम लोग बहुत ही नाजुक बिंदु पर हैं जहां जीवन की गुणवत्ता में गिरावट और अपने बायोस्फीयर के पतन को रोकने के लिए हमें सभी संभव औजार और तरीके इस्तेमाल करने होंगे."

सौर ऊर्जा के भविष्य पर बहस जारी है. इस बीच वैज्ञानिक मानते हैं कि तमाम परिदृश्यों में सबसे ज्यादा चिंता का विषय है- यथासंभव तेजी के साथ कार्बन उत्सर्जनों में कटौती.

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