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सोनम रघुवंशी: केस को ढाल बना, महिला अधिकारों पर हमले क्यों?

रितिका
१२ जून २०२५

इंदौर के राजा रघुवंशी की हत्या का आरोप उनकी पत्नी सोनम रघुवंशी और तीन दूसरे लोगों पर लगा है. मामले की जांच फिलहाल जारी है. एक जांच पुलिस कर रही है तो दूसरा ट्रायल सोशल मीडिया पर चल रहा है.

पुलिस हिरासत में सोनम रघुवंशी
एक हत्या के मामले का हवाला देकर महिलाओं के अधिकारों को निशाना बनाया जा रहा है. एक महिला अपराधी या आरोपी के अपराध से अधिक क्या उनका जेंडर मायने रखता है?तस्वीर: ANI

सोनम रघुवंशी को पति की हत्या के आरोप में 8 जून को गिरफ्तार किया गया. उन पर आरोप है कि उन्होंने तीन लोगों को पैसे देकर अपने पति राजा रघुवंशी की हत्या करवाई. पुलिस का कहना है कि यह हत्या तब हुई जब सोनम और राजा, अपने हनीमून के लिए मेघालय गए थे. पुलिस ने जब जांच शुरू की तो सोनम ने गाजीपुर में सरेंडर कर दिया. यह मामला जिस तरह से सुर्खियों में है उससे यह सवाल उठ रहा है कि क्या आरोपी के महिला होने की वजह से हंगामा हो रहा है. 

भारत में राष्ट्रीय आपराधिक ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक साल 2022 में हत्या के 28,522 मामले दर्ज किए गए थे. यानी औसतन हर दिन करीब 78 लोगों की हत्या हुई. देश में हत्या के मामले लगभग हरेक साल कमोबेश इतने ही रहते हैं. इन सभी हत्याओं के पीछे कारण अलग अलग होता है.

हालांकि, बहुत कम ही ऐसा होता है कि अपराधियों के जरिये एक बड़े तबके को निशाना बनाकर उनके अधिकारों को खत्म करने की बात की गई हो, जैसा सोनम रघुवंशी के मामले में देखा जा रहा है. कानून व्यवस्था की जगह जवाब महिला अधिकार कार्यकर्ताओं से मांगे जा रहे हैं. 

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट बताती है कि दुनियाभर में हत्या जैसे गंभीर अपराधों के दोषी और पीड़ित अधिकतर पुरुष होते हैं. 2021 के आंकड़ों के मुताबिक दुनियाभर में हुई 81 फीसदी हत्या के पीड़ित पुरुष रहे और दोषियों में भी पुरुषों की भागीदारी महिलाओं की तुलना में कई गुना अधिक थी. सवाल यह है कि अपराधी जब पुरुष हो तो उनके अपराध के आधार पर क्या पूरे तबके के अधिकारों को खत्म करने की मांग की जाती है?

जब अपराध से अधिक अपराधी महत्वपूर्ण हो जाए

सोनम रघुवंशी, मुस्कान रस्तोगी, निकिता सिंघानिया ये उन महिलाओं के नाम है जिन्हें अलग अलग मामलों में गिरफ्तार किया गया. एक समानता यह थी कि तीनों ही मामलों में मृतक इनके पति थे. दूसरी यह कि तीनों ही मामलों में उनके महिला होने को ढाल बनाकर वही सवाल दोहराए गए. मसलन,  "महिलाओं को जरूरत से ज्यादा अधिकार मिल गए हैं, उन्हें सीमित करने की जरूरत है." महिला विरोधी यह नैरेटिव हर बार इस बात पर ही आकर रुकता है कि पुराने जमाने में महिलाओं के पास कोई स्वतंत्रता और कानूनी अधिकार नहीं था, इसलिए वह दौर ही बेहतर था.


महिला अधिकार कार्यकर्ता योगिता भयाना ने डीडबल्यू से बातचीत में कहा, "एक जेंडर जिसे सदियों से दबाया जा रहा है, आज भी उनके साथ ऐसा ही भेदभाव जारी है तो जाहिर सी बात है कानून तो उसके लिए बनेंगे. अगर आप आंकड़ों को देखेंगे आप इससे इनकार नहीं कर सकते महिलाएं अपराध की अधिक भुक्तभोगी हैं. अपराध पुरुषों के साथ भी होते हैं और हम उनके खिलाफ नहीं हैं लेकिन अगर पीड़ितों की संख्या में महिलाएं कई गुना अधिक हैं तो कानून तो उनके लिए बनने ही चाहिए."

क्या महिलाएं अपराधी नहीं हो सकती?

कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के इंस्टिट्यूट ऑफ क्रिमिनलॉजी की पीएचडी स्कॉलर एलिजाबेथ ए. गुरियन ने अपने एक रिसर्च पेपर में लिखा था कि जो महिलाएं हत्या करती हैं उन्हें एक 'महिला' के तौर पर दिखाया जाता है लेकिन एक पुरुष हत्यारे को सिर्फ एक 'हत्यारे' के तौर पर. जब महिलाएं किसी भी तरीके के अपराध में शामिल होती हैं, खासकर गंभीर आपराधिक मामलों में यहां उनके अपराध के साथ साथ उनके जेंडर को भी कठघरे में खड़ा किया जाता है. 

महिलाओं का ट्रायल सिर्फ उनके अपराध की गंभीरता नहीं बल्कि उनके जेंडर से जुड़े सामाजिक पूर्वाग्रहों के आधार पर भी किया जाता है. इस पर योगिता कहती हैं कि जो घटना हुई है उसे सही नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन इस एक मामले के आधार पर यह नैरेटिव बनाना भी गलत है कि महिलाएं कैसे अपराधी बन रही हैं. क्योंकि समाज हमेशा से महिलाओं को पीड़ित की भूमिका में देखता आया है.

नारीवादी विचारक और मनोवैज्ञानिक मानते हैं, पुरुष अपराधियों के मुकाबले महिला अपराधियों के साथ समाज और कानून व्यवस्था इसलिए अधिक क्रूरता से पेश आते हैं क्योंकि महिलाओं से हमेशा दया, सहिष्णुता, देखभाल जैसी भावनाओं की उम्मीद की जाती है. यही वजह है कि जब कोई महिला जघन्य अपराध करती है तो उसे एक व्यक्ति या अपराधी के तौर पर नहीं बल्कि एक पूरे जेंडर के प्रतिनिधी के रूप में देखा जाता है. बतौर अपराधी भी उनके ऊपर अपराध से अधिक लैंगिक रूढ़िवाद हावी होता है. ऐसे अपराध को स्त्रीत्व के खिलाफ भी मान लिया जाता है.

महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता और स्वावलंबी होना कठघरे में

इंस्टिट्यूट ऑफ लेबर इकोनॉमिक्स की रिपोर्ट बताती है कि आर्थिक सुधारों के बीच, बीते पांच दशकों में महिलाओं की भागीदारी कार्यबल के साथ साथ आपराधिक मामलों में भी बढ़ी है. हालांकि, पुरुषों के मुकाबले आपराधिक गतिविधियों में महिलाएं की संख्या काफी कम है. रिपोर्ट यह भी बताती है कि महिलाएं अपराध क्यों और किन परिस्थितियों में करती हैं, इस पर बेहद कम शोध हुए हैं. इसलिए इन मामलों में लैंगिक पूर्वाग्रह हावी नजर आते हैं.

इस रिपोर्ट में महिलाओं की आर्थिक भागीदारी और अपराध के संबंध को समझना भी जरूरी है. चाहे वह राजा रघुवंशी या सौरभ राजपूत की हत्या का केस हो या अतुल सुभाष की आत्महत्या का, सारे मामलों में महिलाओं के आर्थिक और सामाजिक रूप से स्वतंत्र होने का हवाला दिया गया है. इसके आधार पर यह नैरेटिव बनाया गया कि महिलाओं का स्वावलंबी होना, 'मॉर्डन' या नारीवादी होना भी उनके अपराधी होने की एक वजह है.


इन मामलों का हवाला देते हुए सोशल मीडिया पर एक तबका महिला अधिकारों और कानूनों को हटाने की मांग कर रहा है. तर्क है कि पढ़ी-लिखी, नौकरीपेशा महिलाएं कानून का गलत इस्तेमाल करने लगी हैं. वो यह भी कह रहे हैं कि ऐसी महिलाएं जानकारी को अपने गलत कामों के लिए इस्तेमाल कर रही हैं. एक व्यक्ति के अपराध के लिए एक पूरे जेंडर के अधिकारों को हटाने की मांग से जाहिर है कि समाज के लिए अपराध से अधिक अहम अपराधी का जेंडर है. जब अपराधी पुरुष होते हैं तो उनके अधिकारों को खत्म करने की मांग नहीं होती. 

योगिता कहती हैं, "यह एक एजेंडा है. कुछ आपराधिक मामलों को चुनकर, जिसमें महिलाएं अपराधी या आरोपी हैं, इस एजेंडे को योजनाबद्ध तरीके से चलाया जा रहा है. तर्क दिए जा रहे हैं कि लड़कियों को पढ़ा-लिखा दिया, वे अब सशक्त होकर बाहर जा रही हैं. इसलिए ऐसा हो रहा है. इन आपराधिक मामलों को ढाल बनाकर जिस तरीके का नैरेटिव चलाया जा रहा है उससे पता चलता है कि हम कितने असंवेदनशील हैं. यह पहली बार महसूस हो रहा है कि हमें बराबरी हासिल करने के लिए एक बेहद लंबा सफर तय करना होगा."

जेल में बंद महिलाओं के साथ किया गया रेप और वर्जिनिटी टेस्ट

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एक केस को उदाहरण बनाकर, महिलाओं को पीछे धकेलने की कोशिश?

पत्रकार और लेखिका एन जोन्स अपनी किताब ‘वुमन हू किल' में लिखती हैं कि महिलाओं के अपराध के खिलाफ शोर अधिक तब मचता है जब वे बराबरी की ओर बढ़ रही होती हैं. ये शोर और चिंता शायद एक कोशिश होती है, महिलाओं की प्रगति रोकने की. गुरियन लिखती हैं, "इतिहास उठाकर देखा जाए तो 'दुष्ट' की अवधारणा भी शायद लैंगिक पूर्वाग्रहों के आधार पर बनाई गई."

जाने माने जर्नल, साइंस डायरेक्ट की एक रिसर्च के मुताबिक महिलाएं, जो हत्या की दोषी होती हैं उनका मीडिया ट्रायल हमेशा इस आधार पर किया जाता है कि एक अच्छी और बुरी महिला कैसी होती है. अक्सर उन्हें मीडिया कवरेज के दौरान मानसिक तौर पर ‘पागल' या ‘दुष्ट' भी करार दे दिया जाता है. महिला आरोपियों और दोषियों का ट्रायल अलग अलग पैमाने पर किया जाता है. ऐसी महिलाओं का चित्रण पुरुषों से नफरत करने वाली, लेस्बियन और नशे की लती के रूप में होता है. जिस तरीके का चरित्र हनन महिला अपराधियों/दोषियों का होता है, उससे आम तौर पर पुरुष अपराधियों को नहीं गुजरना पड़ता.


उदाहरण के तौर पर पुरुष अपराधियों के रंग, रूप, वे कैसे दिखते हैं इस पर चर्चा शायद ही कभी हो. सोनम रघुवंशी, मुस्कान रस्तोगी, निकिता सिंघानिया की तस्वीरों के आधार पर उन्हें ट्रोल किया जा रहा है. एक अपराधी या आरोपी कैसा दिखता है इससे उसके अपराध का कोई सीधा संबंध नहीं होता लेकिन उक्त मामलों में यह लैंगिक रूढ़िवाद के नतीजे के रूप में हमारे सामने है. रिसर्च बताती है कि महिला आरोपियों को अक्सर ‘बदसूरत और मर्दाना' दिखाने की कोशिश की जाती है, क्योंकि सामाजिक मापदंडों के खांचे में फिट होने वाली महिलाएं ऐसे अपराध नहीं करतीं.


कोर्ट के ट्रायल से पहले सोशल मीडिया ट्रायल

सोशल मीडिया अल्गोरिद्म से अब आपराधिक मामले भी नहीं बच पा रहे. लोगों को पता है कि मौजूदा अल्गोरिद्म इस केस को आगे बढ़ा रहा है इसलिए कई अकाउंट्स लगातार अपने मनमुताबिक आरोपी सोनम रघुवंशी का ट्रायल कर रहे हैं. मृतक राजा रघुवंशी और पीड़ित परिवार की निजी तस्वीरों और वीडियो का इस्तेमाल कर नए एंगल जोड़े जा रहे हैं. सोशल मीडिया ट्रायल इस हद तक असंवेदनशील है कि जो अकाउंट्स मृतक के लिए न्याय मांग रहे हैं, वही इस घटना पर मीम्स भी बना रहे हैं.

चंद घंटों में हत्या की वजह पूर्वोत्तर राज्यों में कानून व्यवस्था की स्थिति बदल कर महिलाओं का अधिक स्वतंत्र होना बन गया. साइंस डायरेक्ट की रिसर्च यह भी कहती है मीडिया का यह चित्रण सिर्फ यहीं नहीं रुकता बल्कि यह अदालती कार्रवाई को भी प्रभावित करता है क्योंकि उस महिला की एक छवि पहले ही गढ़ दी गई होती है. यह काम इस वक्त सोशल मीडिया कर रहा है. इस पर योगिता कहती हैं ऐसे तो महिला अपराधी बेहद कम होती हैं लेकिन जो होती हैं उनसे कानून व्यवस्था भी ऐसे ही सवाल पूछती है. पहला यह कि एक महिला होकर आपने ऐसा कैसे कर दिया. आपको और जज किया जाता है इस आधार पर कि अपराध तो पुरुष करते हैं. महिलाओं को तो संस्कारी होना चाहिए."

 

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